जालंधर से दिल्ली आने वाली सुपर एक्सप्रेस सुबह आठ बजे यमुनानगर स्टेशन पर पहुंची थी. यहां से दिल्ली के लिए अगली ट्रेन रात ग्यारह बजे थी, इसलिए मैंने सुबह वाली यह ट्रेन पकड़ने का फैसला किया था. ट्रेन आई और दो मिनट के ठहराव के बाद दिल्ली की ओर बढ़ गई. मेरी यात्रा अचानक ही तय हुई थी, इसलिए मेरे पास रिजर्वेशन नहीं था. तो मैंने साधारण दर्जे का टिकट लिया और चढ़ गया एसी चेयरकार में. यह सोचकर कि टीटी से बात करके एकाध सीट का जुगाड़ कर लूंगा. संयोग से ट्रेन के आगे बढ़ते ही टीटी मुझे दिख गया. मैंने उससे एक सीट का आग्रह किया. जवाब में उसने अपने ठेठ हरियाणवी होने का सबूत दिया, ‘मेरे आगे-पीछे ना घूम. जाके पीछे खड़ा हो जा. अभी कोई सीट ना है. देवबंद के बाद पता चलेगी.’
डिब्बे की ज्यादातर सीटें खाली थीं, पर मैंने किसी सीट पर बैठने के बजाय पहले स्थिति साफ कर लेनी चाही. एक साथी यात्री ने बताया कि ज्यादातर सीटें सहारनपुर और देवबंद में जाकर भरती हैं. फिर भी मैंने किसी सीट पर बैठने के बजाय टीटी के कहे अनुसार डिब्बे के आखिर में खड़ा होकर इंतजार करने का फैसला किया. खड़े-खड़े मेरी नजर एक परिवार पर पड़ी. दो संभ्रांत महिलाएं थीं. दोनों आपस में बहनें लग रही थीं. जींस और टीशर्ट पहने हुए. उम्र 25 से 30 रही होगी. करीब पांच साल का एक बच्चा भी उनके साथ था. तीन लोगों का यह परिवार तीन सीटों पर बैठकर यात्रा कर रहा था.
लेकिन मेरा ध्यान उस परिवार की तरफ खींचा था एक लड़की ने जो उनकी सीट के ठीक बगल में खड़ी थी. पीली सलवार-कमीज पहने साधारण चेहरे-मोहरे वाली एक सांवली-सी लड़की. वह एक सीट पर बैठी हुई थी जिसे बाद में आए एक यात्री ने अपनी सीट बता कर खड़ा कर दिया था. इसलिए अब वह उन दोनों महिलाओं के पास जाकर खड़ी हो गई थी. थोड़ी देर बाद उनमें से एक महिला अपनी सीट से उठी, इधर-उधर नजर दौड़ाई और थोड़ी दूर पर खाली पड़ी एक सीट पर उस बच्ची को बैठने का इशारा कर दिया. लड़की गई और उस सीट पर बैठ गई. तब तक मुझे यह बात समझ आ चुकी थी कि यह लड़की इन्हीं लोगों के साथ है और शायद उनकी नौकर है. थोड़ी देर में सहारनपुर आ गया. खूब सारे लोग चढ़े. वह लड़की एक बार फिर से विस्थापित होकर अपनी मालकिन के पास जाकर खड़ी हो गई.
जब मैं रुका तो महिला बोली, ‘आप अपना काम कीजिए. चिल्लाने की जरूरत नहीं है’
मैं अभी भी टीटी के कहे मुताबिक देवबंद में सीट पाने की इच्छा मन में लिए डिब्बे के कोने में खड़ा था. पर अब मेरा ध्यान उस लड़की पर ठहर गया था जिसे बार-बार सीट से उठना पड़ रहा था. इस बार दूसरी महिला उठी. उड़ती निगाहों से उन्होंने डब्बे का मुआयना किया. थोड़ी दूर पर दो सीटें अब भी खाली थीं. सो मैडम ने उस लड़की को उन्हीं सीटों पर आसन जमाने का इशारा कर दिया. लड़की जाकर बैठ गई. इस बीच बच्चा जो थोड़ा चंचल था, बार-बार अपनी सीट से भागता और वह लड़की उसे पकड़ने के लिए भागती. तब तक देवबंद आ गया. यहां भी कुछ यात्री चढ़े. नतीजा लड़की का एक बार फिर से विस्थापन हो गया.
इस बीच अपनी सीट के जुगाड़ के लिए मैं एक बार फिर टीटी की शरण में पहुंचा. टीटी महोदय ने मुजफ्फरनगर में सीट नंबर 38 मुझे अलॉट कर दी. बदले में अतिरिक्त किराया और फाइन जोड़कर उन्होंने मेरे लिए नया टिकट बना दिया. मैं बेसब्री से मुजफ्फरनगर का इंतजार करने लगा. एक बार फिर मेरा ध्यान लड़की की तरफ गया. वह फिर से उन महिलाओं के पास पास खड़ी थी. मुजफ्फरनगर भी आ गया. जैसे ही सीट खाली हुई महिला ने एक बार फिर से उस लड़की को खाली सीट पर बैठने का इशारा कर दिया. संयोग से वह मुझे अलॉट हुई सीट थी. मैं अपनी सीट पर पहुंचा. पर पीछे से उनमें से एक महिला बार-बार लड़की से कहे जा रही थी, ‘बैठी रहो, उठना मत.’ उस लड़की की स्थिति हास्यास्पद थी. मैं उसे हटने के लिए कह रहा था और उसकी मालकिन उसे बैठे रहने के लिए.
स्थिति भांप कर मैंने लड़की के बजाय उस महिला से मुखातिब होने का फैसला किया. गुस्सा भी आ ही रहा था सो एक सांस में भड़ास निकाल दी, ‘मत उठने का क्या मतलब है? दूसरे की सीट पर बैठ कर जाएंगी क्या? नौकरानी रखने का शौक है, उसके लिए एक टिकट खरीदने का नहीं. अपने तीनों की टिकटें खरीदने की याद थी, इसके लिए क्यों नहीं खरीदा? इसे एक सीट से दूसरी सीट पर कुदा क्यों रही हो? और इसे छोटे बच्चे के साथ बिठाने में क्या परेशानी है?’ जब मैं रुका तो दूसरी महिला बोली, ‘आप अपना काम कीजिए. चिल्लाने की जरूरत नहीं है.’ मैंने वही किया यानी अपनी सीट से उस बेचारी लड़की को उठाया, खुद बैठ गया. दूसरी महिला को बात थोड़ी समझ में आ गई थी. उसने अपनी छोटी बहन को चुप कराया पर तब भी अपने बेटे के साथ उन्होंने लड़की को नहीं बिठाया. मेरठ आ गया. यहां कुछ सीटें और खाली हो गईं, लड़की का एक बार फिर से पुनर्वास हो गया.रास्ते भर एक घटना मेरे दिमाग को फेंटती रही. दिल्ली में द्वारका का वह डॉक्टर जोड़ा जिसने एक हफ्ते तक अपनी नौकरानी को घर में बंद करके बैंकॉक का सफर करने में कतई शर्म महसूस नहीं की थी. मैं सोच रहा था कि पैसे और इंसानियत के बीच यह कैसा व्युत्क्रमानुपाती संबंध हो गया है.हम दिल्ली पहुंच गए. सब अपने-अपने रास्ते चले गए. मुझे पछतावे ने घेर लिया- उस लड़की को बैठे ही रहने देता तो क्या फर्क पड़ जाता? आखिर लड़कर भी मैं उसकी मालकिन को तो कुछ समझा नहीं पाया.