45 साल के प्रणव देबबर्मा करीब पांच सौ आदिवासियों की एक रैली की अगुवाई कर रहे हैं. इनमें से किसी के पास लाल झंडे हैं तो किसी ने लाल टोपी पहन रखी है. ऊंची-नीची सड़कों वाला यह पश्चिम त्रिपुरा का सिमना निर्वाचन क्षेत्र है. देबबर्मा यहां से लगातार चार बार विधानसभा के लिए चुने जा चुके हैं. 1993 में अपने पहले निर्वाचन के महज 25 साल के रहे देबबर्मा राज्य में सबसे कम उम्र के विधायक थे. देबबर्मा कहते हैं, ‘मुझे यकीन है कि पांचवीं बार भी जीत मेरी होगी. आदिवासी समुदाय का वाममोर्चे पर काफी विश्वास है. स्थिर शासन, विकास और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे पर हमारा राज्य सबसे आगे है. आदिवासी वाममोर्चे को फिर से सत्ता में लाएंगे.’
एक वक्त था जब सिमना उग्रवाद से त्रस्त था. आठ साल पहले तक यहां ऑल त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स (एटीटीएफ) की तूती बोलती थी. खुद देबबर्मा का 1997 में भूमिगत विद्रोहियों ने अपहरण कर लिया था. इसका मकसद वाममोर्चा सरकार पर दबाव बनाना था. लेकिन 2011 आते-आते हालात बिल्कुल बदल गए. इस पूर्वोत्तर राज्य में उग्रवाद से हुई मौतों का आंकड़ा एक पर सिमट गया. 2000 में यह 514 था. सीपीएम कार्यकर्ता कमला देबबर्मा कहते हैं, ‘अब कोई शाम को भी अगरतला से सिमना आ सकता है. उग्रवाद के दौर में इसका मतलब था मौत को दावत देना. आदिवासी समुदाय पार्टी को वोट देगा क्योंकि पार्टी ने हमारा सशक्तिकरण किया है.’
इतिहास और तथ्य इस बात को वजन देते हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में माणिक सरकार के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे ने कुल 60 सीटों में से 49 जीतीं थीं. आदिवासियों के लिए सुरक्षित 20 सीटों में से 19 पर उसने जीत हासिल की. ग्रामीण त्रिपुरा, विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में वाममोर्चे की मजबूत पकड़ है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 83 फीसदी है. हालांकि आदिवासी राज्य में अल्पसंख्यक हैं और त्रिपुरा की 36.71 लाख जनसंख्या में उनकी संख्या 9.93 लाख है, फिर भी त्रिपुरा में अब तक वाम मोर्चे की छह सरकारें बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है. 1972 में त्रिपुरा को राज्य का दर्जा मिला था. आदिवासी क्षेत्रों में 17 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां 1977 से 2008 के बीच वाम मोर्चा कभी नहीं हारा. जानकारों की मानें तो उग्रवाद की विदाई के साथ इन इलाकों में वह पहले से भी ज्यादा मजबूत स्थिति में है. सीपीएम के राज्य सचिव बीजन धर बताते हैं, ‘आदिवासी हमारा मजबूत आधार रहे हैं. त्रिपुरा में साम्यवादी आंदोलन आदिवासियों के भरोसे के बिना सफल नहीं हो सकता था. ग्रामीण हमारे साथ हैं क्योंकि गांवों में सड़क, पेयजल, स्वच्छता, स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं जो 20 साल पहले नदारद थीं अब मौजूद हैं.’
1949 में त्रिपुरा रजवाड़े का भारत में विलय होने से पहले से भी वहां के आदिवासी समाज में वाम विचारधारा की मजबूत मौजूदगी थी. तब वहां दशरथ देब और उनकी गणमुक्ति परिषद का बोलबाला था. 1952 में दशरथ देब पूर्वी त्रिपुरा की सुरक्षित सीट से सीपीआई के टिकट पर सांसद बने. 1964 में जब पार्टी में ऐतिहासिक दोफाड़ हुआ तो दशरथ ने सीपीएम का दामन थामा और त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद का गठन किया. यह अब वाममोर्चे का आनुषंगिक संगठन है. दशरथ और त्रिपुरा में वाममोर्चे के पहले मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती की जोड़ी का ही कमाल था कि राज्य के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में पार्टी की मजबूत पैठ बन गई. कांग्रेस का आधार शहरी वर्ग तक ही सीमित रहा खासकर सरकारी कर्मचारियों में. 20 साल की सत्ता के बाद 1988 में कांग्रेस और वाम विरोधी आदिवासी राजनीतिक दल त्रिपुरा उपजाति युवा समिति के गठबंधन ने इसे उखाड़ फेंका. लेकिन 1993 में यह फिर सत्ता में आ गया. दशरथ राज्य के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री बने. दशरथ और नृपेन दोनों आज नहीं हैं, लेकिन करीब ढाई लाख सदस्यों वाली गणमुक्ति परिषद आज भी त्रिपुरा में वाममोर्चे का आधार स्तंभ है.
पिछले 20 साल के दौरान त्रिपुरा ने कई मोर्चों पर तरक्की की है. मगर यह भी सच है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर राज्य चुनौतियों से जूझ रहा है
अब सवाल उठता है कि क्या वाममोर्चे ने त्रिपुरा के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों के गरीब लोगों के लिए पर्याप्त काम किया है. सीपीएम के आदिवासी विधायक और मंडई बाजार सीट से लड़ रहे मनोरंजन देबबर्मा कहते हैं, ‘ग्रामीण विद्युतीकरण और स्वच्छ पेयजल के मामले में हम 60 फीसदी काम करने में सफल हुए हैं. अभी बहुत कुछ बाकी है, लेकिन फिर भी मैं कह सकता हूं कि पिछले 20 साल में जितना काम हमने किया है उतना देश में किसी और राज्य में नहीं हुआ होगा.’
पिछले 20 साल के दौरान कांग्रेस का आधार शहरी और गैरआदिवासी इलाकों तक सीमित रहा है. पार्टी आंतरिक गुटबाजी की समस्या से भी जूझती रही है. कांग्रेस ने इस बार क्षेत्रीय पार्टियों आईएनपीटी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ त्रिपुरा के साथ गठबंधन किया है. त्रिपुरा में आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली और भी कई पार्टियां हैं लेकिन हमेशा उनका वोट बंट जाता है. ऐसी ही एक पार्टी त्रिपुरा स्थानीय जन मोर्चा (आईपीएफटी) के मुखिया एनसी देबबर्मा कहते हैं, ‘त्रिपुरा की छोटी आदिवासी पार्टियों में फूट डलवाने में वाममोर्चे की बड़ी भूमिका रहती है. वे फूट डालकर राज करने की नीति जानते हैं और इस काम में कांग्रेस के कुछ नेता भी उनकी मदद करते रहे हैं.’
आंकड़े बताते हैं कि त्रिपुरा के 8,132 गांवों में से 2,877 में आज भी स्वच्छ पेयजल का अभाव है. 1,513 गांव अब भी सड़क से दूर हैं. करीब 60,000 परिवार भूमिहीन हैं और इनमें एक बड़ी जमात आदिवासियों की है. केरल और मिजोरम के बाद त्रिपुरा देश का तीसरा सबसे साक्षर राज्य है. यहां साक्षरता दर 87.8 फीसदी है. लेकिन आदिवासियों में साक्षरता देखें तो यह आंकड़ा 56.5 फीसदी पर सिमट जाता है. और यह भी तथ्य है कि साक्षर लोगों में सिर्फ नौ फीसदी ऐसे हैं जिन्होंने दसवीं के आगे तक पढ़ाई की है. अगरतला में डेंटिस्ट और आदिवासी समुदाय के कहाम्नक जमतिया कहते हैं, ‘आदिवासी इलाकों के विकास की जो बात राज्य सरकार करती है वह खोखली है. सिर्फ कुछ सड़कें या स्कूल बनाने से आदिवासी समाज का भला नहीं होगा. सरकार सिर्फ फौरी उपाय करके आदिवासियों का तुष्टीकरण करना चाहती है. उसके पास दूरदृष्टि नहीं है.’
वाममोर्चा सिर्फ आदिवासी नहीं बल्कि अनुसूचित जाति के वोटों के सहारे भी चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद कर रहा है. राज्य में 10 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. जानकारों का मानना है कि इस मोर्चे पर भी वाममोर्चा अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे है. हालांकि एक झटका उसे 2012 में तब लगा जब आरएपी के एक विधायक पार्थदास पर 2008 का चुनाव अनुसूचित जाति के जाली प्रमाणपत्र के सहारे लड़ने की बात सामने आई. तब सरकार की काफी किरकिरी हुई थी. बाद में गुवाहाटी हाई कोर्ट की अगरतला खंडपीठ ने भी विधायक को फर्जी जाति प्रमाणपत्र पर चुनाव लड़ने का दोषी पाया था. त्रिपुरा में कांग्रेस के मुखिया सुदीप रॉय बर्मन कहते हैं, ‘वाममोर्चा सरकार को चाहिए था कि वह विधायक को इस्तीफा देने को कहती. लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हें क्लीन चिट देने की कोशिश की. इससे पता चलता है कि 20 साल के शासन ने इस सरकार की नैतिकता खत्म कर दी है.’ कई बार यह आरोप लगते रहे हैं कि चुनावी लाभ के लिए अपने कैडर और नौकरशाही के गठजोड़ के जरिए वाममोर्चा दूसरे समुदाय के लोगों को फर्जी अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र देने का रैकेट चला रहा है. पार्थ दास प्रकरण इन आरोपों को बल देता है.
हालांकि यह भी है कि भले ही त्रिपुरा में वाममोर्चा सरकार के खिलाफ मामलों की भीड़ बढ़ रही हो, लेकिन फिर भी वह उन गलतियों से बची रही है जो उसने प. बंगाल में कीं और जिनकी वजह से उसे आखिरकार सत्ता से बाहर होना पड़ा. त्रिपुरा में भी औद्योगीकरण हो रहा है मगर सावधानी के साथ. मुख्यमंत्री माणिक सरकार कहते हैं, ‘हमने विशेष औद्योगिक उन्नति केंद्र सरकारी जमीन पर स्थापित किए हैं.’ सीपीएम के एक नेता बताते हैं कि सरकार ने कुछ निजी जमीन का भी अधिग्रहण किया है लेकिन उसके लिए पर्याप्त मुआवजा दिया गया है. त्रिपुरा में गैस का विशाल भंडार है और ओएनजीसी पलाटना में 726 मेगावॉट उत्पादन वाला ऊर्जा संयंत्र लगा रही है. ग्रामीण विकास के लिए सरकार ने रबड़ की खेती का मॉडल अपनाया है जो काफी सफल रहा है. आज केरल के बाद त्रिपुरा देश का दूसरा सबसे बड़ा रबड़ उत्पादक राज्य है. खोवाई जिले में रहने वाले और कभी बगावत की राह चले साधन देबबर्मा कहते हैं, ‘कभी मैंने हथियार उठाए थे क्योंकि आदिवासी खाने और दवाइयों के अभाव में मर रहे थे. जब मैंने हथियार छोड़े तो सरकार ने रबड़ की खेती के जरिए मेरे पुनर्वास में मदद की. पिछले साल मैंने इससे छह लाख रुपये कमाए थे. वाम मोर्चा सरकार रहनी चाहिए.’
हालांकि तस्वीर के स्याह पहलू भी हैं. राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है. मुख्यमंत्री भले ही दावा करें कि राज्य में दो-दो मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन सच यह है कि पथरी के छोटे-से ऑपरेशन के लिए भी आदमी को गुवाहाटी या कोलकाता जाना पड़ता है क्योंकि विशेषज्ञों की कमी है. राज्य में अब भी 2,759 डॉक्टरों और 5,679 नर्सों की कमी है. आदिवासी इलाकों में कम से कम 23 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां मरीजों को लाने-ले जाने के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं है. 17 स्वास्थ्य केंद्रों में तो बेड तक नहीं है.
हालांकि तस्वीर के स्याह पहलू भी हैं. राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है. मुख्यमंत्री भले ही दावा करें कि राज्य में दो-दो मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन सच यह है कि पथरी के छोटे-से ऑपरेशन के लिए भी आदमी को गुवाहाटी या कोलकाता जाना पड़ता है क्योंकि विशेषज्ञों की कमी है.
पूर्व सरकारी कर्मचारी पीके डे कहते हैं, ‘शिक्षा का भी यही हाल है. उच्च शिक्षा के लिए भी सबको बाहर जाना पड़ता है. वाममोर्चा सरकार को इससे कोई मतलब नहीं.’ सुदीप बर्मन कहते हैं, ‘राज्य सरकार खुद ही कह रही है कि 1,167 स्कूलों में हेडमास्टर नहीं हैं. 1,047 स्कूलों में पेयजल की सुविधा नहीं है, 2,368 स्कूल बिजली से वंचित हैं. 2001 में मैट्रिक की परीक्षा में 26 स्कूल ऐसे थे जहां एक भी छात्र पास नहीं हुआ. ये सभी स्कूल ग्रामीण इलाकों में हैं. नौजवान बदलाव चाहते हैं.’
बेरोजगारी एक और बड़ा मुद्दा है. 36.71 लाख की जनसंख्या में करीब छह लाख बेरोजगार युवा हैं. सीपीएम के पूर्व सांसद और अब पार्टी छोड़ चुके अजय बिश्वास कहते हैं, ‘यहां निजी निवेश न के बराबर है और ऐसे में सरकारी नौकरी की पूछ बहुत बढ़ जाती है. पिछले दस साल से 35 फीसदी सरकारी पद खाली पड़े हैं. सरकार इन्हें हर चुनाव में लॉलीपॉप की तरह इस्तेमाल करती है, शोषण के विरोध का दावा करने वाला वाममोर्चा यहां खुद शोषक की तरह काम कर रहा है.’
तो क्या वाममोर्चा अपनी सरकार बचा पाएगा? क्या आदिवासी वोट इस बार भी उसके साथ जाएगा? कांग्रेसनीत गठबंधन को इस बार त्रिपुरा राजपरिवार के उत्तराधिकारी प्रद्योत देबबर्मन का भी साथ मिल रहा है. वे खुद तो चुनाव नहीं लड़ रहे मगर वाममोर्चे के विरोध की अगुवाई कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘वामपंथियों के विचारों में जड़ता है. नौजवान हो या आदिवासी समाज, वह अपनी जरूरतों के हिसाब से विकास चाहता है, न कि सीपीएम कैडर की सनक के हिसाब से.’ पर आखिरी फैसला तो वोटर को ही करना है.