कार्ल मार्क्स का एक चर्चित कथन है कि इतिहास खुद को दुहराता है, पहले यह त्रासदी के रूप में घटित होता है और बाद में तमाशे में तब्दील हो जाता है. यह कथन राजनीतिक आकलनों में न जाने कितनी बार इस्तेमाल हो चुका है. फिर भी पिछले हफ्ते भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने जो छोटा-सा विद्रोह किया उसका आकलन करते हुए इस कथन के इस्तेमाल से खुद को रोक पाना मुश्किल है. विद्रोह की इस कहानी का पटाक्षेप नायक की हार के रूप में हुआ. नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव अभियान का चेहरा घोषित किए जाने के विरोध में आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था. लेकिन पार्टी की तीखी प्रतिक्रिया के बाद 24 घंटे के भीतर उन्होंने चुपचाप अपना इस्तीफा वापस ले लिया. आडवाणी की इस आखिरी कोशिश ने सिर्फ एक बात स्थापित की कि वे भाजपा के लिए कितने महत्वहीन हो चुके हैं.
आडवाणी की हैसियत में आई इस गिरावट और इस सदी की शुरुआत तक संघ में रहे उनके प्रभाव का इतना क्षरण समझने के लिए जरूरी है कि हम उस घटना की तरफ लौटें जब उन्होंने पहली बार पार्टी से अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जाहिर की थी. यह 2005 के जिन्ना प्रकरण की बात है. जो 2005 में हुआ और जो 2013 में हुआ, उसका अंतर इन सालों के दौरान भाजपा की अंदरूनी राजनीति और सत्ता समीकरण में आए बदलाव की कहानी खुद-ब-खुद बयान करता है.
2005 में आडवाणी पाकिस्तान की यात्रा पर गए थे. वहां उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को धर्म निरपेक्षता का प्रमाणपत्र दे दिया. जिन्ना की प्रशंसा के जरिए वे एक राजनेता के रूप में अपनी छवि बदलना चाह रहे थे. उनकी कोशिश थी कि कट्टरवादी के बजाय वे एक उदारवादी नेता के रूप में दिखें जिससे मुसलमान वोटर भी उनके करीब आएं.
लेकिन यह उनके लिए बड़ी गलती साबित हुई. भाजपा के भीतर इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. आडवाणी के एक सहयोगी ने पाकिस्तान से उनका जिन्ना वाला बयान पार्टी की मीडिया सेल को फैक्स करके उसे जारी करने को कहा था. उस समय पार्टी कार्यालय में मौजूद प्रवक्ता ने फैक्स की प्रतियां सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और प्रमोद महाजन को भेज दीं. तीनों आडवाणी के शिष्य थे. तीनों ने इस बयान को यह कहकर खारिज कर दिया कि इसे पार्टी के आधिकारिक बयान के रूप में जारी नहीं किया जा सकता. इसके बाद तूफान खड़ा हो गया. पार्टी, कैडर, कार्यकर्ता से लेकर संघ तक कोई भी आडवाणी के साथ नहीं था.
ताव खाए आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें अपने उस गुरु के साथ असहमत होने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था जिसने उन्हें राजनीति का ककहरा सिखाया था. फिर भी उन्होंने कई तरीकों से गुरु का बचाव करने की कोशिश की. इसकी कई वजहें थीं और इनमें सबसे बड़ी थी आडवाणी के प्रति उनका आदर भाव. वे चाहते थे कि बात संभल जाए और आडवाणी के खिलाफ कोई निर्णायक कदम न उठाया जाए . कुछ समय तक उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद पर बने रहने के लिए संघ को मना लिया गया. जिन्ना प्रकरण पर आडवाणी की हर आलोचना को उनकी व्यापक भूमिका की दुहाई देकर और एक अपवाद बताकर दबा दिया गया.
आडवाणी इस मामले में भी भाग्यशाली रहे कि उन्हें मीडिया के एक हिस्से का साथ मिल गया. उसने यह मान लिया कि जिन्ना की तारीफ आडवाणी की एक ईमानदार कोशिश है और वे संघ के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. भारत में दक्षिणपंथ को एक नई दिशा देने के लिए उनकी जमकर तारीफ हुई. इंडिया टुडे पत्रिका ने उन्हें ‘न्यूजमेकर ऑफ द ईयर’ का खिताब दिया और इन शब्दों में उनकी प्रशंसा की, ‘एक हिंदू राष्ट्रवादी जिसने शत्रु की प्रशंसा की हिम्मत की.’
लेकिन इस विवाद ने अंतत: आडवाणी के प्रभाव और उनकी राजनीतिक हैसियत दोनों को खत्म कर दिया था. फिर भी चूंकि पार्टी की दूसरी पांत के नेता उनके साथ कोई निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ना चाहते थे इसलिए आडवाणी का इतना रसूख बना रहा कि इसके बूते वे वापसी कर सकें. ऐसा हुआ भी. धीरे-धीरे उन्होंने पार्टी में पुरानी धमक हासिल कर ली, यहां तक कि उन्होंने संघ को भी फिर साध लिया. इस प्रक्रिया में उन्होंने दूसरी पांत के नेताओं के मन में अपने प्रति आदर भाव को जितना हो सकता था, भुनाया. पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी जानते थे कि आडवाणी सबसे अच्छे विकल्प नहीं हैं क्योंकि उनका सर्वश्रेष्ठ दौर बीत चुका है. लेकिन 2009 में उन्हें कमान देकर उन्होंने अपनी गुरुदक्षिणा चुकाई.
बीते पखवाड़े भी आडवाणी ने 2009 की यही रणनीति दोहराने की कोशिश की. मोदी के मनोनयन पर अपने विरोध को उन्होंने भाजपा में संघ की दखलअंदाजी से अपनी सैद्धांतिक असहमति के चोले में ढकने की कोशिश की. मीडिया का एक हिस्सा इस काम में उनका हथियार बन गया. आडवाणी और उनके सलाहकारों ने चुनिंदा पत्रकारों और मीडिया हाउसों को यह खबर दी. आडवाणी परिवार के सबसे पुराने अंग्रेजीभाषी स्वयंसेवक हैं और दिल्ली में मीडिया से उनका बेहद पुराना और गहरा रिश्ता हैं. वे मानकर चल रहे थे कि उनके इस्तीफे पर मीडिया तूफान खड़ा कर देगा जिससे भाजपा और संघ बचाव की मुद्रा में आ जाएंगे. उनको विश्वास था कि एक बार फिर से अपनी चिर-परिचित इमोशनल अत्याचार वाली रणनीति के जरिए दूसरी पांत के अपने शिष्यों को वैसे ही मजबूर कर देंगे. यहीं वे चूक गए. मीडिया का शोर तो हुआ लेकिन यह खाली शोर ही था. इस बात से शायद ही किसी को इनकार होगा कि भाजपा के लिए मोदी एक दमदार चुनावी उम्मीदवार और तर्कसंगत विकल्प हैं.
इसके अलावा दूसरी पीढ़ी भी अब आडवाणी की नौटंकी वाली राजनीति से ऊब चुकी थी. उनके इस्तीफे के अगले दिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह राजस्थान में पार्टी के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए निकल गए. नरेंद्र मोदी भी तुरंत दिल्ली नहीं दौड़े बल्कि ट्वीट करके काम चला लिया. अरुण जेटली परिवार से मिलने के लिए विदेश रवाना हो गए. 2005 में जिन्ना विवाद के दौरान वे विदेश यात्रा बीच में रद्द करके वापस दौड़े थे. असल में जिस तरह से आडवाणी और उनके कुछ खास लोगों ने गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का बहिष्कार किया था उससे पार्टी के सब्र का बांध टूट चुका था. दूसरी पांत पर अपने अहसानों की कीमत वे 2005 वाले प्रकरण के बाद ही वसूल चुके थे.
उनके एक प्रबंधक तो कुछ ज्यादा ही आगे चले गए जिससे हालात और खराब हुए. आडवाणी को मनाने में राजनाथ सिंह ने बेहद विनम्रता दिखाई थी लेकिन आडवाणी के एक करीबी किसी पत्रकार से कथित तौर पर यह कहते पाए गए कि ‘भाजपा अध्यक्ष उत्तर प्रदेश की ठाकुर राजनीति को भाजपा में घुसा रहे हैं’. इससे राजनाथ सिंह बेहद नाराज हो गए. इस नाराजगी ने राजनाथ और दूसरे नेताओं को गोवा में किए गए निर्णय पर दृढ़ रहने के लिए उकसाया और साथ ही इसके लिए भी कि कोई दूसरी चुनाव समिति नहीं बनेगी. इसके बाद आडवाणी समर्थक नेताओं का समूह, जो उनके अलगाव से अपना भविष्य खतरे में पा रहा था, भूल सुधार की कोशिश में लग गया. आडवाणी के घर से संघ प्रमुख मोहन भागवत को फोन किया गया और उनकी संघ प्रमुख से बात करवाई गई. इसने आडवाणी को शांति बहाली की घोषणा करने का बहाना दिया.
इस बीच भी मीडिया प्रबंधन जारी रहा. पहले खबर लीक हुई कि भागवत ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय करने का आश्वासन दिया है. जब इसका खंडन हुआ तब नई चर्चा छिड़ गई कि आडवाणी जदयू को एनडीए में बनाए रखने के लिए अहम हैं और उन्होंने एनडीए से अलग न होने के लिए नीतीश से अपील की है. जबकि देखा जाए तो हाल के सालों में आडवाणी बमुश्किल ही गठबंधन प्रबंधन का हिस्सा रहे हैं. बल्कि अगर उनकी चलती तो नीतीश कभी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बनते. 2005 में मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी पहली पसंद शत्रुघ्न सिन्हा थे. मान-मनौव्वल के बाद आधे मन से वे नीतीश के नाम पर सहमत हुए थे.
भागवत से बातचीत के बाद आडवाणी के झंडा झुकाने से एक सवाल पैदा हुआ है- क्या यह भाजपा के रोजमर्रा के कामकाज में उसके नियंत्रण का सबूत है? यह सवाल बेहद जटिल है, इसका जवाब सीधे ‘हां’ या ‘ना’ में नहीं दिया जा सकता. संघ और भाजपा का रिश्ता बेहद घुमावदार और बहुपरतीय है. इसे आसानी से समझा नहीं जा सकता. कई मौकों पर संघ के पदाधिकारी राजनीतिक मसलों पर पार्टी में हद से ज्यादा हस्तक्षेप करते हैं तो कई मामलों में भाजपा के नेताओं को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त है.
यह सच है कि आडवाणी साल 2000 (जिन्ना प्रकरण से काफी पहले) से ही कह रहे थे कि व्यापक पहुंच वाली पार्टी के रूप में भाजपा संघ द्वारा बनाए गए अपने घोंसले के आकार से कहीं ज्यादा बड़ी हो चुकी है, उसे अब अपना सारा ध्यान सुशासन और नए लोगों को अपने साथ जोड़ने पर लगाना चाहिए. ज्यादातर लोग उनसे सहमत भी थे. पर आडवाणी के साथ समस्या यह थी कि वे इस दूरगामी विचार का अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के साथ घालमेल कर रहे थे.
यहां यह याद कर लेना भी महत्वपूर्ण है कि 2005 में आडवाणी को तत्काल पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने का नरेंद्र मोदी ने विरोध किया था. उनकी चिंता थी कि इस तरह की प्रतिक्रिया से पार्टी में एक बड़ा खालीपन आ जाएगा जिसका फायदा संघ को होगा जो भाजपा नेताओं के लिए अच्छी स्थिति नहीं होगी. हालांकि आखिर में ऐसा ही हुआ. अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह का पहला कार्यकाल (2006-09) और उसके बाद नितिन गडकरी का दौर पूरी तरह से संघ की पकड़ को ही मजबूत करता रहा. हालांकि पिछले कुछ महीनों के दौरान हवा का रुख दूसरी तरफ पलटा है. दिसंबर, 2012 में मोदी की गुजरात में जीत और गडकरी को पार्टी अध्यक्ष का दूसरा कार्यकाल दिला पाने में भागवत की असफलता यह बताती है. फिर भी राजनाथ संघ की ही पसंद हैं और यह बताता है कि इसके भाजपा के मामलों में वीटो पावर होने की बजाय पार्टी के लिए सिर्फ एक महत्वपूर्ण हिस्सेदार के रूप में सीमित होने की ऐतिहासिक प्रक्रिया को अभी लंबा वक्त लगना है.
आडवाणी से गलती यह हुई कि उन्होंने भाजपा पर नियंत्रण रखने की संघ की कोशिशों को मोदी के उभार से जोड़ने की कोशिश की. उनके खेमे ने यह दिखाने की कोशिश की कि मोदी को भाजपा पर थोपा जा रहा है. यह हकीकत के उलट और मूर्खतापूर्ण बात थी. हकीकत यह है कि मोदी साफ तौर पर भाजपा कार्यकर्ताओं और पार्टी की राज्य इकाइयों के लिए सबसे पसंदीदा नेता और उम्मीदवार बन चुके थे. इस तरह से वे लोकप्रिय राजनीतिक पसंद हैं और इस फैसले में संघ की राय का महत्व न के बराबर है. आडवाणी ने इस यथार्थ को उलझाने और मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देने की कोशिश की. इसके नतीजे में लोगों ने उनकी त्रासदी देखी और उनकी पार्टी का तमाशा.