टीम अण्णा के अब तक के आंदोलन में क्या वे वैचारिक तंतु दिखाई पड़ते हैं जिनसे हम उनकी राजनीति का कुछ अनुमान लगा सकें?
जन लोकपाल के लिए शुरू हुआ टीम अण्णा का आंदोलन अब इस देश को एक राजनीतिक विकल्प मुहैया कराने की बात कर रहा है. जंतर-मंतर के नासमझी भरे अनशन की नाकामी के बाद टीम का एलान है कि वह राजनीति में आएगी. हालांकि इस एलान के तत्काल बाद जिस तरह अण्णा हजारे या दूसरे लोगों के बयान आए हैं, उससे अपने राजनीतिक विकल्पों को लेकर उनकी दुविधा और कशमकश छुपी हुई नहीं है, लेकिन फिर भी अगर टीम अण्णा जैसा कोई समूह राजनीति में आना चाहता है तो उसका स्वागत होना चाहिए, क्योंकि कम से कम मेरी तरह बहुत सारे लोग मानते हैं कि यह टीम व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है और उसमें अपने देश और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव कम से कम हमारे मौजूदा राजनीतिक प्रतिष्ठान से कहीं ज्यादा गहरा है.
लेकिन व्यक्तिगत ईमानदारी और जिम्मेदारी का एहसास अपनी जगह है, भारत जैसे जटिल लोकतांत्रिक समाज में राजनीति की चुनौतियां अपनी जगह. इन चुनौतियों का वास्ता सिर्फ हमारी चुनावी राजनीति की उन बुराइयों से नहीं है जो सतह पर बड़ी आसानी से दिखती हैं, मसलन राजनीति में पैसे और अपराध का बढ़ता दबदबा या जातिवाद और सांप्रदायिकता का बढ़ता असर. मगर मामला इतना सरल नहीं है.
यह एक बड़ा सवाल है कि भारत के संसदीय लोकतंत्र को ऐसा घुन क्यों लग रही है. टीम अण्णा इस सवाल का जवाब नहीं खोजती, वह बस इन बुराइयों को दूर कर देना चाहती है. दरअसल यह एक सजावटी किस्म का इलाज है जिससे कुछ दिन के लिए सूरत भले बदलती दिखे, लेकिन लोकतंत्र की सेहत तब तक दुरुस्त नहीं हो सकती, जब तक उसकी मूल व्याधियों का उपचार न किया जाए.
बहरहाल, टीम अण्णा के अब तक के आंदोलन में क्या वे वैचारिक तंतु दिखाई पड़ते हैं जिनसे हम उनकी राजनीति का कुछ अनुमान लगा सकें? अनशन के आखिरी दिन अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में आने की घोषणा करते हुए जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि उनके उम्मीदवार जनता के बीच से चुने जाएंगे, उनका कोई आलाकमान नहीं होगा. यह दरअसल एक तरह का शब्दाडंबर भर है, जिससे राजनीति का कोई सूत्र खोजना मुश्किल है. हालांकि इसके पहले अरविंद केजरीवाल ‘स्वराज’ नाम की एक छोटी-सी पुस्तिका लिख चुके हैं जिसमें उनकी राजनीतिक परिकल्पना का कुछ सुराग मिलता है.
अरविंद केजरीवाल मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता सरकार के हाथ में इस तरह सिमट गई है कि जनता का उस पर नियंत्रण नहीं रह गया है. यह नियंत्रण रहे, इसके लिए वे ग्राम सभा को सर्वोच्च बनाने की वकालत करते हैं. एक तरह से यह सत्ता के विकेंद्रीकरण का वही सूत्र है जो अण्णा हजारे के भाषणों में बार-बार दिखता रहा है. स्वराज जैसे नाम या ग्राम सभा जैसी बात के साथ अरविंद केजरीवाल अचानक गांधी की याद दिलाते हैं जिनके राजनीतिक सूत्र भी मूलतः ग्राम स्वराज की अवधारणा पर ही केंद्रित थे.
व्यक्तिगत ईमानदारी अपनी जगह है, भारत जैसे जटिल समाज में राजनीति की चुनौतियां अपनी जगह
इन वैचारिक आग्रहों या अनशन जैसे मूलतः राजनीतिक कार्यक्रमों से लगता है कि टीम अण्णा गांधीवादी राजनीति करना चाहती है- शुद्धता और सदाचार पर अतिरिक्त जोर शायद राजनीतिक आग्रह का विस्तार है. लेकिन अण्णा हों या उनकी टीम- दोनों को देखकर बार-बार यही लगता है कि वे बस स्थूल गांधी को समझ पाते हैं, उस सूक्ष्म गांधी तक नहीं पहुंचते जिसके लिए स्वराज एक पूरी सभ्यता दृष्टि था.
गांधी जब ग्राम स्वराज की बात करते थे तो वे नितांत स्थानीय अर्थव्यवस्था की बात भी करते थे जो अपनी जरूरतें खुद पूरी कर ले और बाहर की कम से कम चीजें ले. गांधी का ग्राम स्वराज मूलतः सबकी सामाजिक बराबरी के सपने में भी निहित था जिसमें अस्पृश्यता या किसी भी अन्य तरह के भेदभाव की जगह नहीं थी. वे देशज प्रतिभा पर भरोसा करते थे और पश्चिम की वैचारिकता से अनाक्रांत एक स्वाभिमानी भारत बनाना चाहते थे.
अण्णा और केजरीवाल अगर गांधी का ग्राम स्वराज लाना चाहेंगे तो पहले उन्हें अपनी राजनीति में उस मौजूदा उदारीकरण के खिलाफ ठोस रुख अख्तियार करना होगा जिसकी वजह से भारत की निजी उद्यमिता बिल्कुल ढह-सी गई है, उस भूमंडलीकरण से लड़ना होगा जिसने इस देश की मौलिकता खत्म कर दी है- इस सिलसिले को अंग्रेजी के विशेषाधिकार के खात्मे से भी जोड़ना होगा जो भारत में सामाजिक गैरबराबरी की एक बड़ी वजह है. मामला यहीं खत्म नहीं होगा- टीम अण्णा को आरक्षण के सवाल पर भी अपनी राय साफ करनी होगी और आदिवासियों-दलितों और अल्पसंख्यकों की बराबरी का मसला भी उठाना होगा, क्योंकि आर्थिक खुशहाली की लड़ाई सामाजिक न्याय की लड़ाई से अलग नहीं लड़ी जा सकती.
इन सैद्धांतिक सवालों की अपनी व्यावहारिक मुश्किलें भी हैं. फिलहाल टीम अण्णा का समर्थन आधार मूलतः उस शहरी मध्यवर्ग से बनता है जो उदारीकरण की धूप में नहा रहा है और आरक्षण के किसी भी रूप से नाक-भौं सिकोड़ रहा है. यह वही मध्यवर्ग है जिसे एक नकली राष्ट्रवाद की अवधारणा बहुत लुभाती है और जो प्रशांत भूषण की इसलिए पिटाई कर डालता है कि वे कश्मीर को लेकर एक जायज और निजी राय रखते हैं.
टीम अण्णा जब तक लोकपाल, भ्रष्टाचार और काले पैसे जैसी मोटी-मोटी बातें कर रही है, तब तक किसी को गुरेज नहीं है, लेकिन जैसे ही वह देश के संसाधनों में बराबरी का सवाल उठाएगी, उसके अपने ही लोग उसके विरुद्ध हो जाएंगे. कह सकते हैं, टीम अण्णा से जो अपेक्षाएं हम रख रहे हैं, उस पर देश का कोई भी राजनीतिक दल खरा नहीं उतरता. बात सही है और इसीलिए लोग विकल्प की तलाश भी कर रहे हैं. टीम अण्णा को विकल्प देना है. अगर गांधी और जेपी का वारिस बनना है, अगर ग्राम स्वराज और संपूर्ण क्रांति के सपने को वास्तविकता की धरती पर उतारना है तो उसे ये अपेक्षाएं पूरी करनी होंगी.