उत्तरप्रदेश पुलिस हमेशा कीर्तिमान बनाती है। कीर्तिमान बनाने के चक्कर में कुछ अपवाद भी संभव हैं। प्रदेश की भाजपा की नई सरकार और पुलिस अफसरों में तालमेेल जबर्दस्त है। जिसके कारण पुलिस की साख जनता में खासी है। इसी बहाने पुलिस के जूनियर सिपाहियों से लखनऊ मेें एक निजी कंपनी के अधिकारी की हत्या के आरोपी सिपाही के पक्ष में काला दिन मनाया। शासन के पांच कांस्टेबल और तीन एसएचओ के खिलाफ कार्रवाई के आदेश जारी किए हैं।
उत्तरप्रदेश में ही छठे-सातवें दशक में पुलिस विद्रोह भी हुआ था। वह विद्रोह दबा तो दिया गया लेकिन लगता है कि पुलिस में आज भी उस दौर के बीज हैं जो अपने हुनर, नाम पद और प्रतिष्ठा के लिए बेताब हो जाते हैं। इसमें सहायक होते हैं अधिकारी और नेता। लखनऊ में एपल के एक वरिष्ठ अधिकारी देर रात अपनी एक सहकर्मी के साथ घर लौट रहे थे। तब प्रदेश के दो सिपाहियों ने प्वाईंट ब्लैंक रेंज से अधिकारी को गोली मार दी।
प्राय: पकड़े गए अपराधियों के साथ थाने में पुलिस टीम की फोटो मीडिया और प्रिंट में ऐसे आती है जैसे बाघ मारने के बाद पूरी टीम। उसी अंदाज में हमलावर सिपाही ने बाकायदा थाने में बड़े जोर शोर से प्रेस में अपने तरीके से उस घटना को बयान किया। स्थानिक मीडिया ने हमेशा की तरह वही सब लिखा। बाद में पता चला कि पूरी घटना पर कैसे एफआईआर बनी। जानकारी तब हुई जब पूरी घटना के एक मात्र चश्मदीद गवाह ने पूरी कहानी बताई। फिर दुबारा एफआईआर बनाई गई। प्रशासन और मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री भी सक्रिय हुए। पूरी घटना को पुलिस ने एक टीम की रीकंस्ट्रक्र किया। कथित तौर पर अपराधी सिपाही को हवालात भेजा गया।
मीडिया, प्रशासन के इस बदले रुख के खिलाफ जूनियर पुलिस कर्मियों में अपना विरोध जताने की बेसब्री बढ़ी। आगरा, मेरठ, बरेली में यह आक्रोश महसूस किया गया। खाकी वर्दी पहने पुलिसकर्मियों ने पांच अक्तूबर का काला दिवस मनाया। ये संकेत न तो पुलिस के लिए अच्छे हैं और न उत्तरप्रदेश प्रशासन के लिए।
पुलिस प्रमुख ने भले ही सस्पेंशन और तबादले किए हों लेकिन पूरा मामला बहुत ही खतरनाक रूप लेता दिख रहा है। पुलिस के सिपाहियों की मांग है कि पुलिस रेगुलेशन एक्ट को बदला जाए। वरिष्ठ अधिकारियों को मातहतों की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिए। जो हमेशा दबाव में रहते है।