दोस्तो!
यह सेल्फी टाइम है। डिजिटल माया ने रंग और रोशनी को फोटोशॉप में इतना उलझा दिया है कि हमारा अन्त:करण उन्मादी,स्वग्रस्त और क्षुद्र होता गया है। यह यूं नहीं है कि अब फ्रंट कैम से बैक कैम दुगुना मेगापिक्सल का हो गया है। इसलिए यह रेडीमेड सेल्फ़ीमेन का बूम टाइम है। ठेके पर किलर ही नहीं, सेल्फी शूटर भी उठाए जा रहे हैं। तब यह स्वाभाविक है कि रंग और कूची की साधना से सृजित चित्रकला जैसी विधा सेल्फी पीढ़ी को फालतू की चीज लगे।
हरिपाल त्यागी का निधन एक कठिन समय में हुआ है। त्यागी आजीवन जिस लेखन के लिए कूची साधना करते रहे हैं वह समय किसी और दिशा में कूच कर गया है। समय सलीब पर लटका दिया गया है। हर लम्हा खेत हो रहा है। मुक्तिबोध की बीड़ी वाली तस्वीर डोमाजी उस्ताद की डाइनिंग की ब्यूटी एक्सटेंशन है।
कुछ पेंटिंग भीतरी दीवार पर अटक जाती है। त्यागीजी की पेंटिंग पर यह बात मेरे लिए जितनी सच है, उससे ज्यादा उनके व्यक्तित्व पर फिट है। उनसे दर्जन से अधिक बार छोटी और बड़ी, दिल्ली और बनारस में, मुलाकातें हुई हैं। हर बार उन्हें देखते ही लगता -एक जीवित, गतिशील पेंटिंग सामने खड़ी है। गोरा चेहरा, खिचड़ी दाढ़ी पर तीखी उभरी हुई नाक और रस रहस्य से भरी आंखों में हर पीढ़ी के लिए दिलखोल आत्मीयता। सादतपुर उनके लिए एक जीवंत गांव की तरह था। मंडी हाउस कला वीथिका। दिलशाद गार्डन घुमक्कड़ी पार्क। बनारस में कई बार मुलाकात हुई। सामने घाट और बीएचयू मेरे घर आते। अस्सी पर कामरेड पोई की चाय अड़ी पर वे बनारस के जन को निहारते हुए देहाती हिंदुस्तान खोजते। हमारी चाय लड़ती रहती। वाचस्पति,दीनबन्धु तिवारी, लोलार्क द्विवेदी, हर्षवर्धन राय, गया सिंह-हर किसी से तन्मय और तर्कशील मिलन।
बनारस में वाचस्पति का घर एक दौर में लेखकों का खुला ठिकाना था। मुझे याद है वाचस्पति ने अपने बेटों की शादियों में त्यागी को बुलाया और उम्र के असर को धता बताते हुए वे सम्बन्ध निभाने आए। अब तो न पुराने दौर के लेखक बचे हैं, न वाचस्पतिजी में वह ऊर्जा है और न ही वाचस्पति की वह क्लासिक घर गृहस्थी रही। नए लेखक हाइ टी और हाइ टेक मार्गी हैं। तब हरिपाल त्यागी जैसे चित्रकार-लेखक की सहज घुमक्कड़ी का महत्व और भावुक कर जाता है।
नई पीढ़ी हरिपाल त्यागी की पेंटिंग से परिचित है। हिंदी साहित्य की किताबों से गुजरने वाले पाठक के लिए अनायास ही किताब के कवर पर श्वेत श्याम और रंगीन चित्र के साथ एक परिचय टिपण्णी मिलती है-यह चित्र हरपाल त्यागी की कूची से। कविता, कहानी, उपन्यास की सैकड़ों किताबों के शब्दों का जीवन हरिपाल त्यागी के रंग और रेखाओं के बिना उदास और अधूरा रह जाता। त्यागी एक संवेदनशील कथाकार और कवि रहे। आत्मकथा के साथ बाल साहित्य भी लिखा। बच्चों की दुनिया उनके रंग और संवेदना को ताजा रखती थी।
85 साल की लंबी उम्र की हर सांस रंग और शब्द, बाहर और भीतर, व्यक्ति और समाज, भारतीयता और विश्व मानवता, सम्बन्ध और संगठन, बदलाव और क्रांति, परम्परा और आधुनिकता, सादतपुर और घुमक्कड़ी के बीच आवाजाही करती रही।
मैं जब भी मिला, उनसे यह जानने की कोशिश की कि हफऱ् रंग रेखा में और रंग रेखा हफऱ् में कैसे ढलते हैं। वे रंग शिक्षक भी लाजवाब थे, कठिन से कठिन चीज को तेल और जल में घोल कर तरल व सरल कर देते थे। जब तक कला और जीवन की शिरोरेखा रहेगी, हरिपाल त्यागी की कूची सेल्फी टाइम को सेल्फ की तरफ और सेल्फ से बाहर जोडऩे की कोशिश करती रहेगी। एक बड़े भारतीय लेखक से उनकी बहस याद है जो उनके विश्वास और जिद की सीमा रेखा है। बाद में वह संस्मरण जोड़ूंगा। अभी तो उस राख को नमन करता हूँ जो एक चित्रकार के चित्र की परवर्ती कच्ची सामग्री है। जो चाहे अपने चित्त में एक नया चित्र उकेर ले। त्यागी की कविता में कलाकार का स्व देखिए-
अपनी उपलब्धि भी कम नहीं, दोस्तो!
बूढ़े एक बरगद की शीतल बड़ी छांव है
सोटा है, सोटी, डोरा-लोटा, लंगोटी है,
हमको तो प्यारा यही सादतपुर गांव है।