आशीष नंदी उन समकालीन समाजशास्त्रियों में रहे हैं जिनके यहां भारतीय समाज की विविधताओं और विडंबनाओं की अचूक समझ मिलती है. उन्हें पढ़ते-सुनते हुए जितने जवाब मिलते हैं, उससे ज्यादा सवाल मिलते हैं. नंदी कोई ऐसा सपाट वक्तव्य दे सकते हैं जो अपने आशयों में दलित विरोधी हो, यह मानना बहुत सारे लोगों के लिए मुश्किल है. जयपुर के साहित्यिक समारोह में दिए गए उनके जिस वक्तव्य पर विवाद हुआ है, निस्संदेह उसमें कुछ बातें दलित और पिछड़ा विरोधी लगती हैं, लेकिन सिर्फ इसी आधार पर हम आशीष नंदी को दलितों और पिछड़ों का विरोधी साबित करने पर तुल जाएंगे तो यह समझ नहीं पाएंगे कि दरअसल उनकी कुल मुराद क्या थी और कहां-कहां उनके वक्तव्य से असहमति होनी चाहिए.
नंदी का बयान और उनकी सफाई पढ़ते हुए साफ होता है कि हमेशा की तरह उन्होंने एक विडंबनामूलक सच्चाई पर ही उंगली रखी है. वे भारतीय समाज में भ्रष्टाचार को एक तरह की संतुलनकारी शक्ति मानते हैं. यानी उनके मुताबिक हमारी राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था सबको बराबरी के अवसर नहीं देती. जो कमजोर और छूटे हुए हैं, वे कमजोर और छूटे रहने को अभिशप्त हैं, बशर्ते वे इस व्यवस्था के बाहर जाकर अपने लिए अवसर और साधन न जुटाएं. यहां भ्रष्टाचार पिछड़ों और दलितों को अगड़ों के मुकाबले खड़े होने का अवसर देता है. नंदी यह नहीं कहते कि सवर्ण या साधनसंपन्न लोग भ्रष्ट नहीं हैं. वे बस यह जोड़ते हैं कि उनके भ्रष्टाचार में कई बारीक आयाम जुड़ गए हैं. वे गलत तरीकों से एक-दूसरे की मदद करते हैं, लेकिन इसे भ्रष्टाचार में शामिल करने को तैयार नहीं होते. नंदी यहां तक कहते हैं कि एक भ्रष्टाचारविहीन समाज भारत में किसी तानाशाही व्यवस्था में ही संभव है, लेकिन यह व्यवस्था फिर बराबरी के मौके नहीं देगी.
इस मामले में बीजेपी-बीएसपी-कांग्रेस एक हैं. क्या इसलिए कि बिना किसी वैचारिक बहस के, तुष्टीकरण की आम सहमति सबको रास आती है?
इस कोण से देखें तो सतह पर जो बयान पहली नजर में दलित या पिछड़ा विरोधी लगता है, वह कुछ गहराई में उनके पक्ष में दिया गया बयान नजर आता है- या कम से कम इसमें यह वास्तविक चिंता शामिल दिखती है कि हमारे समाज में बराबरी का जो सबसे जरूरी और बड़ा एजेंडा है वह कैसे पूरा हो. हालांकि उनके इस पूरे वक्तव्य में कम से कम दो बातें ऐसी हैं जो किसी संवेदनशील बुद्धिजीवी को उनकी सख्त आलोचना के लिए मजबूर करती हैं. जब वे कहते हैं कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के यहां दिखता है तो यह न तथ्यसंगत लगता है न तर्कसंगत. उल्टे सच्चाई इसके खिलाफ दिखती है. सरकारी-गैरसरकारी और काॅरपोरेट दुनिया में भ्रष्टाचार का जो विराट उद्योग चल रहा है और जिसकी कमाई स्विस बैंकों के नामी-बेनामी खातों से लेकर तमाम शहरों में बन रही नई रिहाइशों की अट्टालिकाओं में निवेश के नाम पर जमा हो रही है, उसमें बड़ा हिस्सा अगड़ों का भी है. इसी तरह जब वे बंगाल के भ्रष्टाचार मुक्त होने का दावा करते हुए यह याद दिलाते हैं कि वहां पिछले 100 साल में पिछड़े और दलित सत्ता में नहीं रहे तो लगता है कि वे भ्रष्टाचार के उन रूपों को भूले जा रहे हैं जिनकी चर्चा खुद अपने वक्तव्य में उन्होंने की है.
लेकिन ये बातें एतराज के लायक हो सकती हैं, निंदा या भर्त्सना के लायक भी किसी को लग सकती हैं. मगर क्या इसके लिए एससी-एसटी ऐक्ट लगाकर आशीष नंदी को जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए? घनघोर बौद्धिक दारिद्रय की शिकार मुख्यधारा की भारतीय राजनीति से जुड़े नेता मोटे तौर पर यही मांग कर रहे हैं. इस मामले में बीजेपी-बीएसपी-कांग्रेस एक हैं. क्या इसलिए कि वे पिछड़ों और दलितों से इतनी हमदर्दी रखती हैं कि उनके बारे में एक अनर्गल शब्द भी नहीं सुन सकतीं? या इसलिए कि बिना किसी वैचारिक बहस के, तुष्टीकरण की आम सहमति सबको रास आती है और इसीलिए दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों, हिंदुत्ववादियों- किसी के विरुद्ध दिया गया कोई भी वक्तव्य किसी की गिरफ्तारी का सबब बन सकता है? यह इत्तिफाक नहीं है कि जयपुर के साहित्यिक समारोह पर विवाद की यह तीसरी छाया है- पहली छाया मुस्लिम कट्टरपंथियों की थी जिन्हें यह गवारा नहीं था कि सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़ने वाले लेखक कार्यक्रम में आएं, दूसरी छाया उन भगवा कट्टरपंथियों की थी जिन्हें पाकिस्तान के साथ ताजा तनाव के दौर में पाकिस्तान से लेखकों का भारत आना मंजूर नहीं था.
दरअसल बड़ा संकट यही है. आप बाल ठाकरे के शोक में डूबे शिवसैनिकों के उत्पात पर बोलें तो जेल में डाल दिए जाएंगे, आप ममता बनर्जी का मज़ाक बनाएं तो आपको पुलिस उठाकर ले जाएगी, आप मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ बोलें तो सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन हो जाएंगे, आप सरकारी दमन तंत्र के खिलाफ बोलें तो आप विनायक सेन बना दिए जाएंगे और आप दलितों और पिछड़ों के खिलाफ बोल गए तो आशीष नंदी जैसा सलूक झेलेंगे. इससे पहले अपने एक और लेख की वजह से नंदी नरेंद्र मोदी के समर्थकों का गुस्सा और उनके मुकदमे झेल चुके हैं.
ये सारे उदाहरण बताते हैं कि हमारे सार्वजनिक जीवन में ऐसे सूक्ष्म या तहदार विमर्श की गुंजाइश ही जैसे नहीं बची है जिसमें किसी मुद्दे पर बहस हो, असहमति हो और अपनी असहमति को कायम और स्थापित करने का राजनीतिक साहस हो. जो है सो खानों में बंटा है- इस पार या उस पार खड़ा किए जाने को अभिशप्त.
यह एक खतरनाक स्थिति है जो वैचारिक गतिशीलता को तोड़ती है और जड़ विचारों को स्थापित करती है. हम नंदी से सहमत हों या नहीं, उन्हें अपनी बात कहने का हक है. इसके लिए उन्हें किसी के दबाव में आने की जरूरत नहीं है. और यह सिर्फ उनके हक के लिए नहीं, हमारी विचारशीलता के लिए भी जरूरी है.