बांग्लादेशी नागरिकों को असम से बाहर निकालने के लिए किया गया समझौता जो कभी लागू नहीं हो पाया.
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में नीली दंगा अब तक की सबसे हिंसक घटनाओं में से है. 1983 के इस दंगे में 24 घंटों के दौरान ही लगभग 2,000 लोगों की हत्या कर दी गई थी. ये ज्यादातर बांग्लादेशी नागरिक थे. हालांकि असम में बांग्लादेशी नागरिकों के खिलाफ हिंसा की छिटपुट घटनाएं 80 के दशक से ही देखी जा रही थीं, लेकिन यह तब तक की सबसे भयावह घटना थी. इसको देखते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने असम में आईएमडीटी (इलीगल इमीग्रेंट डिटरमिनेशन बाई ट्रिब्यूनल एक्ट) लागू कर दिया. इस कानून का मकसद राज्य में विदेशी नागरिकों की पहचान करना और उन्हें राज्य से बाहर निकालना था. लेकिन अपने मूल प्रावधान में यह कानून काफी विवादास्पद हो गया. इसके तहत किसी व्यक्ति पर विदेशी होने का आरोप लगाने वाले व्यक्ति को ही यह साबित करना पड़ता था कि आरोपित विदेशी है. जबकि भारत के बाकी हिस्सों में लागू विदेशी नागरिक कानून के तहत आरोपित व्यक्ति के ऊपर यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी भारतीय नागरिकता साबित करे.
आईएमडीटी कानून पारित होने के बाद असम में आंदोलन तेजी से भड़क उठा. ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) की अगुवाई में चल रहे इस आंदोलन के नेताओं का कहना था कि केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकार इस कानून के जरिए बांग्लादेशियों को स्थायी नागरिक बना रही है ताकि उसका वोटबैंक मजबूत बना रहे. 1984-85 में यह आंदोलन इतना उग्र हो गया कि राज्य में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई. इन हालात में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच 15 अगस्त, 1985 को एक समझौता हुआ. इसे ही ‘असम समझौता’ कहते हैं. इसके तहत स्पष्ट प्रावधान किया गया था कि जनवरी, 1966 से पहले असम आए बांग्लादेशियों को स्थायी नागरिक का दर्जा मिलेगा लेकिन इसके बाद मार्च, 1971 तक यहां आए लोग राज्य में रह तो सकते हैं लेकिन वे दस साल तक वोट नहीं दे पाएंगे. समझौते में प्रावधान था कि 1971 के बाद आए लोगों की पहचान करके उन्हें वापस बांग्लादेश भेज दिया जाएगा. असम समझौते के बाद राज्य में आंदोलन तो समाप्त हो गया लेकिन आसू से बनी असम गढ़ परिषद सहित कांग्रेस पार्टी के सत्ता में आने के बावजूद यह समझौता कभी जमीनी हकीकत नहीं बन पाया.
-पवन वर्मा