जद(यू) अध्यक्ष ललन सिंह की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अभद्र टिप्पणी के बाद राजनीति गरमा गयी है। उनके द्वारा प्रधानमंत्री को डुप्लीकेट पिछड़ा एवं बहरूपिया कहने के पश्चात् भाजपा नेता भी हमलावर हो गये। यह कोई नयी बात नहीं है। भारतीय राजनीति में ऐसा नहीं है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी की समस्या है, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय राजनीति का विशेष दुर्गुण बन चुका है। कुछ उदाहरण देखिए, मध्य प्रदेश के भाजपा नेता प्रीतम लोधी ने ब्राह्मणों एवं कथावाचकों को बेईमान एवं महिलाओं पर गंदी नज़र रखने वाला बताया। सपा सांसद शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क़ ने भाजपा द्वारा मुस्लिमों को देश का नहीं मानने, तिरंगा देश के कार्यालयों पर फहराने की जबरदस्ती का आरोप लगाते हुए कहा था कि जिसकी मर्ज़ी हो वह झण्डा लगाए। उन्होंने कहा कि क्या झण्डा लगाने से ही देशभक्ति साबित होगी? संविधान में कहीं भी तिरंगा घरों पर फहराये जाने को अनिवार्य नहीं किया गया है। फिर इस प्रकार के अभियान की क्या ज़रूरत? बर्क़ ने इस तरह के आड़े-टेड़े तर्कों से हर घर तिरंगा अभियान का विरोध किया। केरल के संस्कृति मंत्री साजी चेरियन ने भी संविधान पर सवाल उठाते हुए उसे शोषकों एवं लुटेरों का पक्षधर बता दिया।
पार्टी विद् डिफरेंस वाली भाजपा के राजस्थान इकाई के वरिष्ठ नेता गुलाबचंद कटारिया का अहंकार $गज़ब का है। वह कहते हैं कि अगर भाजपा नहीं होती, तो भगवान राम आज समुद्र में होते। उन्हें सम्भवत: इतनी भी समझ नहीं है कि भगवान राम का अस्तित्व उनकी पार्टी से नहीं, बल्कि उनकी पार्टी का अस्तित्व ही भगवान राम की वजह से है। वही उत्तराखण्ड के भाजपा विधायक बंशीधर भगत ने विद्यार्थियों को सफलता के लिए ‘सरस्वती को पटाने’ जैसी अशोभनीय की सलाह दी। ये कुछ मामूली उदाहरण भर हैं, वर्ना ऐसे अशिष्ट नेताओं द्वारा इस तरह की ओछी और अमर्यादित राजनीतिक करना अब रोज़मर्रा की बात हो गयी है।
वर्तमान राजनीति के अपने तर्क हैं। अर्थात् जो आज के नेताओं के अनुकूल है, वो उचित है और जो प्रतिकूल है, वो अनुचित। लेकिन असभ्यता की हदें पार करते हुए अभद्र और गाली-गलौज की भाषा को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? हालाँकि यह स्वीकार करने से परहेज़ नहीं होना चाहिए कि इस तरह के बयानवीरों की अभद्र बयानबाज़ी को अप्रत्यक्ष रूप से उनकी पार्टी का समर्थन मिलता है। अन्यथा असभ्य, अभद्र होने की हिम्मत नेताओं की होती ही नहीं। लेकिन सवाल यह है कि आख़िर पार्टियों के मुखिया और संचालक अपने-अपने नेताओं को यह क्यों नहीं कहते कि मर्यादा में रहना आवश्यक है। ध्यान देने योग्य है कि अगर कभी विवाद बढ़ जाए, तो प्रतीकात्मक रूप से इन्हें कारण बताओ नोटिस जारी करके अथवा निलंबित करके पार्टी प्रमुखों द्वारा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। इन नेताओं की अभद्रता के लिए पार्टी द्वारा इनको कोरी हिदायत देने के अतिरिक्त राजनीतिक दल कुछ नहीं किया जाता, ये सर्वविदित है। लेकिन जब विवाद ठण्डा पड़ जाता है, तो पुन: इन्हें वापस दल में लेकर इनके योग्य कार्य अनर्गल बयानबाज़ी में लगा दिया जाता है।
भारतीय राजनीति में ऐसे तथाकथित नेताओं के जहालत की यह स्थिति है कि इन्होंने समाज में फूट डालकर उसको अस्थिर रखने एवं उनमें उन्माद पैदा करने की क़सम-सी उठा रखी है। हाल यह है कि एक ख़राब बयान को लोग भूल पाएँ, उससे पहले कोई दूसरा नेता नया अभद्र और अशोभनीय बयान दे देता है। आज सारी राजनीतिक पार्टियों की यही समस्या हो चुकी है कि उनके जनप्रतिनिधियों में अशिष्टों की कमी नहीं है। उनकी भाषा-शैली ऐसी है कि कई बार तो राजनीति से घृणा होने लगती है। अक्सर इनके कारण पैदा होने वाले विवाद कभी-कभी इतने बढ़ जाते हैं कि सार्वजनिक हिंसा का कारण बन जाते हैं। आज तो ऐसे अमर्यादित राजनीति करने वाले अशिष्ट नेताओं की जैसे बाढ़-सी आ गयी है। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि देश के लिए आवश्यक मूलभूत मुद्दों से जनता का ध्यान हट जाता है।
इस तरह के भडक़ाऊ और बेहूदा बयान देने वालों की ज़ुबान पर लगाम इसलिए भी नहीं कस पाती, क्योंकि इन्हें क़ानून से दण्डित होने का भय नहीं है। इसकी वजह न्याय व्यवस्था में में ख़ामी भी है। दरअसल ऐसे मुद्दों पर निर्णय में इतना विलम्ब होता है कि जनता की स्मृति से विस्मृत होने पर बयानों का विशेष औचित्य नहीं रहता। चुनाव के दौरान तो यह अनाचार विशेष रूप से होता है। कुछ महीने पहले ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। जल्द ही होने वाले गुज़रात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों की स्थिति देख लीजिए, जिनमें अशोभनीय बयानों की झड़ी लगी रही है। निर्वाचन आयोग भी मात्र चुनाव प्रचार से रोककर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे उम्मीदवारों का पर्चा ख़ारिज़ करके इन्हें चुनाव में प्रतिभाग करने से रोक देना चाहिए। साथ ही ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाने वाले दलों पर भी दण्ड आरोपित किया जाना चाहिए।
आजकल तो ऐसी बयानबाज़ियाँ कराने में मीडिया जगत, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुख्य रूप से आगे है। मीडिया जगत का एक बड़ा तबक़ा नेताओं की सुर्ख़ियों में बने रहने भावना का लाभ उठा रहा है, उसे लोगों की समस्याओं से जैसे कोई वास्ता नहीं है। मतलब पत्रकारिता की मूल आत्मा को मारकर ये टीवी चैनल अब मात्र पैसा कमाने के साधन बने हुए हैं। इसी तरह वर्तमान में राजनीतिज्ञ होने का अर्थ जनसेवा का ध्येय और जनलाभ के कार्यों में रुचि नहीं, बल्कि मीडिया की सुर्ख़ियों में बने रहना है। टीवी चैनलों की पत्रकारिता का अर्थ ही सार्थक एवं मूलभूत मुद्दों पर विमर्श एवं उन पर जनता व सरकार का ध्यान आकर्षित करना नहीं, बल्कि अनर्गल विवादों पर बहस करके उन्हें बढ़ाना हो गया है। अगर कोई विवाद न हो, तो किसी मूल्यहीन विषय पर ये टीवी चैनल विवाद पैदा कर देते हैं। यही वजह है कि इन टीवी चैनलों के ऐसे बयानवीर नेता बड़े मुफ़ीद साबित होते हैं। चूँकि पत्रकारिता के वास्तविक मूल्यों एवं उसकी नैतिकता से ऐसे समाचार चैनलों का वास्ता तो दूर-दूर तक नहीं है, इसलिए इन पर यथार्थ पत्रकारिता करने का दबाव भी नहीं है। अब तो ये चैनल कमोबेश भाँडगीरी के नमूने बन गये हैं, जहाँ भूत-प्रेत की कहानियाँ, यौनिकता से भरपूर अपराध कथाएँ, सनसनीख़ेज़ स्टिंग ऑपरेशन दिखाने का चलन हो गया है; क्योंकि इन्हें टीआरपी चाहिए। हैरानी होती है कि इसके लिए ये कुछ भी करेंगे, चाहें उसके लिए अनैतिकता के निम्नतम स्तर पर ही क्यों न उतरना पड़े।
प्रसिद्ध अमेरिकी विचारक बेंजामिन फ्रैंकलिन लिखते हैं- ‘वे लोग जो थोड़ी-सी अल्पकालिक सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अत्यावश्यक आज़ादी का त्याग करते हैं, वे न तो आज़ादी के और न ही सुरक्षा के लायक होते हैं।’ यह मूल अधिकारों के दुरुपयोग है। हो सकता ऐसे ऊल-जुलूल बयानों से इन नेताओं को अल्पकालिक राजनीतिक लाभ मिल जाता होगा, किन्तु यह संविधान प्रदत्त अधिकारों का स्पष्ट अपमान है। वास्तव में इस देश में मूल अधिकारों के नाम पर फैली अराजकता और अभद्रता का सबसे बड़ा दोषी देश का नेतृत्व वर्ग है। नूपुर शर्मा और मोहम्मद जुबैर के मामलों के पश्चात् देश में अभिव्यक्ति की मर्यादा स्थापित करने की लम्बी बहस चल पड़ी है। किन्तु इसकी शुरुआत राजनीतिक वर्ग से हो यही अधिक उचित होगा। समाज एवं राष्ट्र को अनुशासित करने से पूर्व नेतृत्व वर्ग का मर्यादित आचरण करना आवश्यक है।
असभ्यता को प्रश्रय देती भारतीय राजनीति अनर्गल और कटुतापूर्ण बयानों की एक बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुर्धर्ष (उग्र) सी परम्परा चल चुकी है। किन्तु तारीख़ गवाह है कि ऐसी राजनीति करने वाले तथाकथित नेता कभी भी राजनीति में अपनी जगह स्थिर कर पाये हैं और न ही सामाजिक दृष्टि से सम्मान अर्जित कर पाये हैं। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में लाल बहादुर शास्त्री से लेकर चंद्रशेखर, चौधरी चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेताओं की परम्परा में से कोई भी इस तरह के अनर्गल बयानबाज़ी से नहीं, बल्कि अपने व्यक्तित्व की श्रेष्ठता एवं सभ्यता से आदरणीय माना गया है। इन्होंने सदैव अपनी गरिमा की सुरक्षा सुनिश्चित रखी।
हालाँकि अब परिस्थितियाँ विकट हो चुकी हैं। देश की राजनीति व सामाजिक जीवन में मर्यादाओं का मूल्य इतना नीचे गिर चुका है कि सुधार की गुंजाइश अति न्यून प्रतीत होती है। राष्ट्र की दिशा-दशा तय करने वाली राजनीति व राजनेताओं, दोनों का स्तर गिरा है। किन्तु जिन्हें सामाजिक जीवन में सामान्य शिष्टाचार की भी समझ नहीं, ऐसे असभ्य और संस्कारहीन नेताओं से क्या उम्मीद की जाए। कैसे उम्मीद की जाए कि ये देश को सही मार्गदर्शन देंगे? क्या कोई सरकार ऐसी क़ानूनी आचार संहिता बनाएगी, जहाँ नेतृत्व वर्ग को भाषा की मर्यादा बनाये रखना अति आवश्यक हो, अन्यथा अभद्रता पर कठोर दण्ड हो। हालाँकि निकट भविष्य में तो ऐसा होता नहीं दिख रहा; परन्तु यह बहुत ज़रूरी है। नहीं तो सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं के विध्वंस का तमाशा देखने के लिए राष्ट्र व समाज अभिशप्त तो हैं ही।
(लेखक राजनीति और इतिहास के जानकार हैं।)