यह 14 दिसंबर, 2020 की बात है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के दफ्तर में एक पत्र पहुँचा। यह पत्र अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन भूपेंद्र सिंह मान ने लिखा था। मान ने इस पत्र में सरकार के तीनों कृषि कानूनों का खुलकर समर्थन किया था। यही मान इस चार सदस्यीय समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत किये गये, हालाँकि समिति पर कृषि कानूनों का पक्षधर होने के आरोपों के बाद बने दबाव का ही असर था कि 48 घंटे के भीतर मान ने खुद को समिति से अलग कर लिया। चर्चा यह भी रही कि मान को भारतीय किसान यूनियन (मान) ने संगठन से बाहर कर दिया है। बता दें कि समिति को किसानों की माँग पर चर्चा करने और उसकी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) को देने का ज़िम्मा मिला है। इस समिति के अन्य तीन सदस्य भी पिछले हफ्तों में कृषि कानूनों के हक में बोलते रहे हैं। जब यह लग रहा था कि सर्वोच्च न्यायालय किसानों के लिए न्याय का बड़ा दरवाज़ा खोलने वाला है और उसने तीनों कृषि कानूनों पर अस्थायी रोक का आदेश भी दे दिया, तभी मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों पर चर्चा के लिए जो समिति सामने आयी, उसने उम्मीदों पर पल भर में बर्फ डाल दी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की कड़ी फटकार लगायी है। किसान संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय का आभार तो जताया, लेकिन इस समिति के चेहरों पर यह कहकर सवाल उठा दिया कि यह सभी कृषि कानूनों के समर्थक रहे हैं, लिहाज़ा हम उससे कोई बात नहीं करेंगे, न ही आन्दोलन खत्म होगा। न सरकार हारी, न किसान जीते। सच तो यह है कि इस सारी कवायद के बाद किसानों और सरकार के बीच खाई और चौड़ी हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद किसानों के हक में सबसे ज़्यादा मुखर कांग्रेस ने भी कहा कि तीनों कानून रद्द किये जाने चाहिए; क्योंकि यह कानून किसान-विरोधी हैं।
‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इन दो महीनों के बीच समिति किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता की कोशिश भी करेगी। यह देखना होगा कि किसानों का इस पर क्या रुख रहेगा; क्योंकि वे समिति के सदस्यों के हाल के हफ्तों में कानूनों के पक्ष में बोलने को लेकर समिति पर भरोसा नहीं होने की बात कह चुके हैं। किसान शुरू से ही तीनों कृषि कानूनों को खत्म करने की माँग कर रहे हैं। वे सरकार के साथ नौ दौर चली बैठकों में यही कहते रहे हैं कि पहले कृषि कानून रद्द हों तभी वे आन्दोलन रोकेंगे। किसान एमएसपी को भी कानून के दायरे में लाने की मज़बूत माँग कर रहे हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की पहल भले ही सार्थक दिखती हो, बहुत कम सम्भावना है कि दो महीने बाद जब चार सदस्यों की समिति अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च अदालत में पेश करेगी, तो इससे कोई मज़बूत हल निकलेगा। समिति की क्या सिफारिशें होंगी? अभी इसे लेकर कुछ नहीं कहा जा सकता है। हो सकता है कि समिति कानून के कुछ बिन्दुओं में संशोधन को कहे, जिसे किसान पहले ही मानने से मना कर चुके हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि यह सब कुछ उनके आन्दोलन को कमज़ोर करने के प्रयास मात्र हैं।
पहला बड़ा कानूनी पेच यह है कि सर्वोच्च न्यायालय कानून को रद्द नहीं कर सकता। क्योंकि यह संसद में पास हुए हैं। इसलिए संसद में ही इन्हें लेकर कोई फैसला हो सकता है। हाँ, यदि सरकार चाहे, तो इन्हें ठंडे बस्ते में ज़रूर डाल सकती है; जैसा कि अतीत में भी कुछ बार हुआ है। दूसरे, यह बहुत कम सम्भावना है कि समिति कानूनों को रद्द करने की सिफारिश करेगी। क्योंकि समिति के सभी सदस्य समय-समय पर कानूनों के हक में बोल चुके हैं। ऐसे में किसान आन्दोलन के खत्म होने की गुंजाइश सिकुड़ती दिख रही है। सर्वोच्च न्यायालय के 12 जनवरी के अंतरिम फैसले के बाद किसान साफ कह चुके हैं कि न तो वह आन्दोलन स्थगित करेंगे, न समिति के सामने जाएँगे। ऐसे में सरकार और किसानों के बीच तनाव और बढ़ सकता है; क्योंकि सरकार यह कहने की कोशिश करेगी कि किसान सर्वोच्च न्यायालय की बात भी नहीं मान रहे, जबकि सच यह है कि इस सारी कवायद में किसानों की मुख्य माँग ही अनसुनी कर दी गयी है।
सर्वोच्च न्यायालय में क्या हुआ
सर्वोच्च न्यायालय ने किसान आन्दोलन को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान 11 जनवरी को किसान आन्दोलन से निबटने के सरकार के तरीकों को लेकर उसे तगड़ी फटकार लगायी। सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, जस्टिस ए.एस. बोपन्ना और जस्टिस वी. रामासुब्रमण्यम की पीठ ने किसान आन्दोलन और कृषि कानूनों से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 12 जनवरी को मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। साथ ही चार सदस्यों की एक समिति भी बनायी, जिसे पूरे मसले को सुलझाने का ज़िम्मा सौंपा गया है। वैसे यह समिति न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा होगी, जो सीधे सर्वोच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इस रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद ही सर्वोच्च न्यायालय किसान आन्दोलन को लेकर अपना अन्तिम फैसला सुनायेगा। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि किसानों की सबसे बड़ी माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है।
दो दिन की सुनवाई में घटनाक्रम काफी तेज़ रहा। केंद्र के रवैये पर सर्वोच्च न्यायालय ने निराशा जतायी। प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा- ‘आप कानून होल्ड करेंगे या हम करें? सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या यह नया कृषि कानून कुछ दिन के लिए होल्ड नहीं किया जा सकता? क्योंकि हमें नहीं पता है कि किसानों और सरकार के बीच क्या बातचीत चल रही है।’ प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने सुनवाई के दौरान कहा- ‘आप हल नहीं निकाल पा रहे हैं। लोग मर रहे हैं। आत्महत्या कर रहे हैं। महिलाओं और वृद्धों को भी बैठा रखा है। हम समिति बनाने जा रहे हैं। चाहे आपको हम पर भरोसा हो या नहीं। हम देश का सर्वोच्च न्यायालय हैं। अपना काम करेंगे।’ उन्होंने सरकार से कहा- ‘आन्दोलन सँभालने के आपके तरीके से हम बहुत निराश हैं।’ वहीं किसानों के वकील से जस्टिस बोबडे ने कहा- ‘बुजुर्गों, महिलाओं से कहें कि प्रधान न्यायाधीश चाहते हैं कि आप घर चले जाएँ।’
सर्वोच्च अदालत ने किसान आन्दोलन के दौरान किसानों की मौत पर भी गहरी चिन्ता जतायी और सरकार से पूछा कि वह बताए कि किसानों से क्या बात कर रही है? सर्वोच्च अदालत ने एक मौके पर पूछा कि आप (कृषि) कानून होल्ड कर रहे हैं या नहीं? आप नहीं करते, तो हम कर देंगे। अदालत ने कहा कि वह किसी भी संगठन के आन्दोलन के खिलाफ नहीं है। अदालत ने कहा कि कानूनों की जाँच के लिए समिति बनाएँगे।
अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा कि वह बताए कि किस तरह का समझौता कर रहे हैं। हर दिन हालात खराब हो रहे हैं। अदालत ने सरकार से कहा कि हम कृषि मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं। हमारा मकसद समस्या का हल निकलना है।
किसानों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की सुनवाई में सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने सफाई देते हुए कहा कि बहुत बड़ी संख्या में किसान संगठन कानून को फायदेमंद मानते हैं। इस पर प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि हमारे सामने अब तक कोई नहीं आया है, जो ऐसा कहे। अगर एक बड़ी संख्या में लोगों को लगता है कि कानून फायदेमंद है, तो समिति को बताएँ। आप बताइए कि कानून पर रोक लगाएँगे या नहीं? नहीं तो हम लगा देंगे।
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि कानून से पहले एक्सपर्ट समिति बनी। कई लोगों से चर्चा की। पहले की सरकारें भी इस दिशा में कोशिश कर रही हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह दलील काम नहीं आयेगी कि पहले की सरकार ने इसे शुरू किया था। उन्होंने कहा कि आपने कोर्ट को बहुत अजीब स्थिति में डाल दिया है। लोग कह रहे हैं कि हमें क्या सुनना चाहिए, क्या नहीं? लेकिन हम अपना इरादा साफ कर देना चाहते हैं; इस मसले का हल निकले। अगर आपमें समझ है, तो कानून के अमल पर ज़ोर मत दीजिए। फिर बात शुरू कीजिए। हमने भी रिसर्च किया है। एक समिति बनाना चाहते हैं।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हम यह नहीं कह रहे हैं कि आप कानून को रद्द करें। हम बहुत बकवास सुन रहे हैं कि न्यायालय को दखल देना चाहिए या नहीं। हमारा उद्देश्य सीधा है कि समस्या का समाधान निकले। हमने आपसे पूछा था कि आप कानून को होल्ड पर क्यों नहीं रख देते? उन्होंने कहा कि यह दलील सरकार को मदद नहीं करने वाली कि इसे किसी दूसरे सरकार ने शुरू किया था। किस तरह का समझौता आप कर रहे हैं? यह बताइए।
अटॉर्नी जनरल को रोकते हुए प्रधान न्यायाधीश कहा कि जब हम आपसे कानून की संवैधानिकता के बारे में पूछ रहे हैं, तो आप हमको उसके बारे बताइए; कानून के फायदे के बारे में मत बताइए। केंद्र सरकार को फटकार लागते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि आपने कहा कि हम बात कर रहे हैं। क्या बात कर रहे हैं? किस तरह का सन्धि-वार्ता कर रहे हैं?
सर्वोच्च न्यायालय ने 12 जनवरी को किसान आन्दोलन पर एक बड़े अंतरिम फैसले में मोदी सरकार के तीनों कृषि कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक रोक लगा दी। साथ ही इस मसले पर चर्चा के लिए सर्वोच्च अदालत ने चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसमें भूपेंद्र सिंह मान, प्रमोद जोशी, अशोक गुलाटी और अनिल धनवंत को शामिल किया गया है। अदालत ने कहा कि किन प्रावधानों को हटाया जाए? इस पर समिति काम करेगी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि समिति अपने लिए बना रहे हैं।
यह समिति तय करेगी कि कानूनों में से कौन-से बिन्दु हटाये जाने चाहिए। समिति की रिपोर्ट के बाद न्यायालय इस पर आदेश देंगे। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि समिति के समक्ष कोई भी जा सकता है। समस्या को बेहतर तरीके से हल करने की हम कोशिश कर रहे हैं। प्रधान न्यायधीश ने कहा कि हम आन्दोलन से प्रभावित लोगों के जीवन, सम्पत्ति से चिन्तित हैं। हम चाहते हैं कि ज़मीनी हकीकत जानने के लिए समिति बने। अदालत ने कहा समिति बनाने से हमें कोई नहीं रोक सकता।
याचिकाकर्ता एम.एल. शर्मा ने कहा कि किसानों को ये डर है कि उनकी ज़मीनें बेच दी जाएगी। किसान अभी भी तीनों कानूनों को रद्द करने की माँग पर अड़े हैं। इस पर प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि कौन कह रहा है कि ज़मीनें बेच दी जाएँगी। इसके जवाब में एम.एल. शर्मा ने कहा कि अगर एक बार किसान कॉरपोरेट हाउस से समझौता करता है, तो उसे शर्तों के मुताबिक ही उत्पाद पैदा करना होगा, नहीं तो उसे हर्ज़ाना देना होगा। एम.एल. शर्मा ने कहा कि किसान समिति के सामने पेश नहीं होना चाहते हैं।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि ये किसने कहा कि ज़मीन बिक जाएगी, किसी भी किसान की ज़मीन नहीं बिकेगी। हम समस्या का समाधान चाहते हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हमारे पास निहित अधिकारों के तहत हम कानून को निरस्त भी कर सकते हैं। प्रधान न्यायाधीश ने कहा समिति हम अपने लिए बना रहे हैं। किसी को खुश करने के लिए नहीं। समिति हमें रिपोर्ट देगी और इसके समक्ष कोई भी जा सकता है।
वकील एमएल शर्मा ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी अब तक किसानों से बात करने आगे नहीं आये हैं। इस पर सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि कृषि मंत्री और सरकार के अन्य सीनियर मंत्री किसानों से आठ दौर की बातचीत में शामिल हो चुके हैं। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद भी 15 जनवरी को भी सरकार और किसानों के बीच नौवें दौर की फिर बातचीत हुई, जो कि बेनतीजा रही; क्योंकि सरकार और किसान दोनो ही अपने-अपने मुद्दों पर अड़े रहे। हालाँकि अभी दोनों के बीच चर्चा के रास्ते बन्द नहीं हुए हैं और आगे भी रास्ता निकालने के विए बातचीत जारी रहने की उम्मीद है।
इस दौरान केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा भी दायर किया। सरकार ने इसमें कहा है कि कृषि कानूनों को जल्दी में पास नहीं किया गया। सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान यह ज़ाहिर करने की कोशिश की गयी कि कानून जल्दी में पास किया गया है; जबकि ऐसा नहीं है। सरकार ने कहा कि इन कानूनों के लिए दो दशक से बात चल रही थी। ये किसान मित्र कानून हैं। केंद्र ने कहा कि देश भर के किसान इस कानून से खुश हैं; क्योंकि उन्हें ज़्यादा विकल्प दिये गये हैं और उनका कोई अधिकार नहीं लिया गया है। किसानों के साथ लगातार गतिरोध खत्म करने की कोशिश की गयी है।
सर्वोच्च न्यायालय का आदेश आते ही अपनी प्रतिक्रिया में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने साफ किया है कि किसानों की माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है और वे इससे कम में कुछ नहीं मानेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा आन्दोलन जारी रहेगा। टिकैत ने कहा कि हमारी माँग समिति बनाने की नहीं थी। टिकैत ने कहा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों के प्रति जो सकारात्मक रुख दिखाया है, उसके लिए हम सर्वोच्च अदालत का आभार व्यक्त करते हैं। उन्होंने कहा कि किसानों की माँग कानून को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की है। जब तक यह माँग पूरी नही होती, तब तक आन्दोलन जारी रहेगा।
राजनीति भी तेज़
किसान आन्दोलन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के केंद्र सरकार को फटकार लगाने के तुरन्त बाद कांग्रेस सक्रिय हो गयी और उसने विपक्ष के प्रमुख नेताओं से सम्पर्क साधा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने शरद पवार सहित कुछ विपक्षी नेताओं को फोन किया और उनकी इस मसले पर राय ली। मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस बजट सत्र में किसानों के हक में आवाज़ बुलन्द करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए विपक्ष के अन्य दलों के साथ वह रणनीति बनाने की तैयारी करने वाली है।
सोनिया गाँधी ने पार्टी प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला को भी आदेश दिया है कि वह किसानों की माँग पर ज़ोर देते हुए पत्रकार वार्ता करके पार्टी का रुख साफ करें। संसद के बजट सत्र से पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया विपक्ष के कई ऐसे नेताओं के सम्पर्क में हैं, जो कृषि कानूनों को लेकर सरकार को घेरने की साझा रणनीति तैयार करने के लिए जल्द ही बैठक करेंगे। संसद सत्र से पहले विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाने के मकसद से सोनिया ने उनसे बातचीत करनी आरम्भ भी कर दिया है। सोनिया गाँधी कृषि कानूनों और अर्थ-व्यवस्था की स्थिति पर सरकार को घेरने के लिए साझा रणनीति बनाने के पक्ष में हैं। कांग्रेस पहले से ही तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रही है।
सोनिया से सलाह के बाद एनसीपी नेता शरद पवार के वामपंथी नेताओं सीताराम येचुरी और डी. राजा से मुलाकात कर चुके हैं। पवार ने येचुरी और राजा से किसान आन्दोलन के मुद्दे पर बात की थी। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि हम सर्वोच्च न्यायालय और उसकी चिन्ताओं का सम्मान करते हैं। लेकिन इस कानून को रद्द करने के अलावा कोई दूसरा समाधान नहीं है।
आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश
नए कृषि कानूनों के खिलाफ खड़े किसान आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश भी बहुत हुई है, जिससे किसान और खफा हुए हैं। उन्हें खालिस्तानी, पाकिस्तानी, पैसे से खीरदे हुए लोग, विरोधी ताकतों के एजेंट और देश विरोधी तक कहा गया है। सोशल मीडिया के ज़रिये यह भी कहा गया कि किसान आन्दोलन से जनता को दिक्कत हो रही है; जबकि सच यह है कि करीब दो महीने बीत जाने के बाद भी किसान आन्दोलन बहुत शान्तिपूर्ण रहा है और एक भी ऐसी घटना नहीं हुई, जिससे कानून व्यवस्था का मसला बने।
याद कीजिए यूपीए सरकार के शासनकाल में अप्रैल, 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा हज़ारे के आन्दोलन में हज़ारों-लाखों लोग ज़रूर जुटे थे। लेकिन वह लोकपाल विधेयक को लाने के लिए किया गया आन्दोलन था। वहीं दिसंबर, 2012 में निर्भया से बलात्कार और उसकी निर्मम हत्या के बाद लोगों ने सड़कों पर ज़बरदस्त प्रदर्शन किये थे। सोशल मीडिया पर जनता, खासकर युवाओं ने इस कृत्य की जमकर निंदा की थी। लेकिन उस समय किसी ने आन्दोलनकारियों को देशद्रोही या गद्दार का टैग नहीं दिया था। न मनमोहन सिंह सरकार ने आन्दोलन को दबाने या रोकने की कोशिश की थी। सरकार ने तो बलात्कार पीडि़ता को उपचार के लिए सिंगापुर भी भेजा। निर्भया के निधन के बाद सरकार ने दबाव बढऩे पर बलात्कार कानून में समुचित बदलाव किये और स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एक नया पोस्को अधिनियम-2012 बनाया।
अन्ना आन्दोलन में सरकार के एक भी प्रतिनिधि ने आन्दोलनकारियों को आतंकवादी या टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे घृणित शब्दों से सम्बोधित नहीं किया। न ही एनडीए की अटल बिहारी के नेतृत्व वाली सरकार में किसी विरोधी या आन्दोलनकर्ता को ऐसे अशोभनीय शब्दों से अपमानित किया गया। बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के मूर्धन्य नेता अटल बिहारी ने विपक्ष और विरोधी ताकतों का सम्मान करते थे। लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों में, जबसे एनडीए की केंद्र में सरकार बनी है, तबसे आन्दोलन करने वालों को देशद्रोही, पाकिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग बताना शुरू कर दिया गया है। इस तरह से जन सामान्य की बात को दबाने को ही लोकतंत्र के लिए खतरा माना जाता है। क्योंकि अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करना उचित है। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार ही नहीं, मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी आज सरकार की ही बोली बोल रहा है।
बता दें कि पहले भी देश में इस तरह के प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, लेकिन तबकी सरकारों ने, अंग्रेजी हुकूमत को छोड़कर; किसानों के आन्दोलन को इस तरह से कुचलने की हिम्मत नहीं की। न यह देखा गया है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर किसान आन्दोलन को जनता का इतना समर्थन मिला हो।
पूर्व सैनिक किसानों के साथ
यह भी दिलचस्प है कि 80 फीसदी किसानों के बेटे फौज में हैं। यही कारण है कि पूर्व सैनिकों के कुछ संगठन किसान आन्दोलन का समर्थन कर चुके हैं। कई के पदाधिकारी तो किसान आन्दोलन में सीधे हिस्सा ले रहे हैं। वेटरन्स इंडिया पूर्व सैनिकों का संगठन है। इसके राष्ट्रीय संयुक्त सचिव अनुराग लठवाल कहते हैं कि मोदी सरकार को किसानों की सभी माँगें मान लेनी चाहिए थीं। उनका कहना है कि तीनों काले कानूनों को रद्द करना चाहिए। लठवाल कहते हैं कि यदि कानून रद्द नहीं होते हैं, तो देश के पूर्व सैनिक संसद का घेराव करेंगे।
आन्दोलन के बीच किसानों को सेवानिवृत्त जवानों का भी साथ मिल गया है। पंजाब के पूर्व सैनिकों का कहना है कि सरकार ने अगर कानून वापस नहीं लिये और किसानों की माँग नहीं मानी, तो देश भर के सैनिक 26 जनवरी को राष्ट्रपति को तमगे (मेडल) लौटाएँगे। पंजाब में करीब साढ़े तीन लाख सेवानिवृत्त पूर्व सैनिक किसान आन्दोलन के समर्थन में हैं। मोगा से सिंघु बॉर्डर पर आये सेवानिवृत्त सूबेदार जोगेंद्र सिंह ने बताया कि सन् 1965 और सन् 1971 में उन्होंने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की जंग में हिस्सा लिया था और पाकिस्तानियों के दाँत खट्टे किये थे। अब इस बॉर्डर पर अपनी ही सरकार के किसान विरोधी कानून के खिलाफ सड़क पर आना पड़ा है। जोगेंद्र सिंह ने कहा- ‘यहाँ मैं किसानों की लड़ाई लडऩे आया हूँ। यह हक की आवाज़ है, जो कि खूब ज़ोर से उठेगी।’
गौरतलब है कि सोशल मीडिया में सैनिकों की तरफ से कुछ वीडियो भी सामने आये हैं, जिनमें वे किसानों के हक में बोल रहे हैं। हाल ही में सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे वीडियो और भी देखने को मिले में हैं, जिनमें कुछ लोग किसानों के पक्ष में खुलकर बोल रहे हैं भी किया गया था। इनमें कुछ अपने को सैनिक बता चुके हैं। वैसे यह सभी जानते हैं कि किसानों और सैनिकों का सीधा नाता भी रहा है; क्योंकि सेना में अधिकतर जवान किसान परिवारों से हैं। ऐसे में अगर जवान और किसान एक साथ आ गये, तो सरकार के लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन सकता है। भले ही सैनिक अनुशासन के कारण खुले रूप से कुछ न कहें; लेकिन जब वे छुट्टी पर घर आ रहे हैं, तो यह देखने में आया है कि वे किसान आन्दोलन के समर्थन के लिए पहुँच रहे हैं।
भाजपा शासित राज्यों को मुश्किल
किसान आन्दोलन का असर भाजपा शासित राज्यों पर पड़ता दिख रहा है। किसान भाजपा सांसदों, विधायकों, नेताओं के घेराव की चेतावनी पहले ही दे चुके हैं। इसका एक उदहारण हाल में हरियाणा में देखने को मिला, जहाँ करनाल के कैमला गाँव में किसानों की महापंचायत में केन्द्रीय कृषि कानून के फायदे बताने के लिए की गयी सरकार की व्यवस्था धरी-की-धरी रह गयी। किसानों के विरोध के चलते मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को अपना दौरा रद्द करना पड़ा।
कैमला गाँव में किसान-संवाद कार्यक्रम में हुए हंगामे की ज़िम्मेदारी बीकेयू नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने ली। चढ़ूनी ने एक बयान में कहा कि कैमला गाँव में जो घटना हुई है, वो हमने करवायी है। मुख्यमंत्री जहाँ भी रैली करेंगे, हम वहाँ भी ऐसे ही विरोध करेंगे। उन्होंने कहा कि वे हमारे आन्दोलन को तोडऩे के लिए 700 रैलियाँ करेंगे और हम ऐसी भाजपा रैलियों का विरोध करेंगे। बता दें कि कैमला गाँव में प्रदर्शनकारी किसानों ने खट्टर के कार्यक्रम स्थल पर तोडफ़ोड़ कर दी। पुलिस ने कैमला गाँव की ओर किसानों के मार्च को रोकने के लिए उन पर पानी की बौछारें कीं और आँसू गैस के गोले छोड़े; लेकिन प्रदर्शनकारी नहीं रुके।
किसानों ने मंच, कुर्सियाँ, मेजें और गमले तोड़ दिये और अस्थायी हेलीपेड का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया; जहाँ मुख्यमंत्री का हेलीकॉप्टर उतरना था। मुख्यमंत्री वहाँ उतर ही नहीं पाये। बाद में पुलिस ने 71 लोगों को नामजद करते हुए कुल 800 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया। ऐसा माना जा रहा है कि किसान भाजपा शासित प्रदेशों में भविष्य में अपना विरोध नेताओं के घेराव तक ले जा सकते हैं।
आगे क्या करेंगे किसान
किसानों ने 13 जनवरी को लोहड़ी के दिन ‘किसान संकल्प दिवस’ मनाया और तीनों कानूनों की प्रतियाँ जलायीं। अब 18 जनवरी को महिला किसान दिवस मनाया जाएगा। हर गाँव से 10-10 महिलाओं को दिल्ली लाने का कार्यक्रम। इसके बाद 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस की याद में ‘आज़ाद हिन्द किसान दिवस’ मनाया जाएगा। इस दिन राज्यों में राज्यपालों का घेराव करने का उनका कार्यक्रम है। किसानों की पूरी ताकत 26 जनवरी के आयोजन देखने को मिल सकती है, जब वे राजपथ पर ट्रैक्टर परेड निकालेंगे। इसके लिए एक लाख ट्रैक्टर वहाँ ले जाने की किसानों की योजना है। कई राज्यों से ट्रैक्टर गंतव्य के लिए रवाना हो चुके हैं।
समिति के सदस्य
डॉ. प्रमोद कुमार जोशी : इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक जोशी किसानों और खेती को लेकर कई पुस्तकें लिख चुके हैं। जोशी अनुबन्ध पर खेती (कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग) के प्रबल समर्थक रहे हैं और इस पर खुलकर बोलते रहे हैं। उन्होंने नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च मैनेजमेंट हैदराबाद और नई दिल्ली स्थित नेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकनॉमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च में बतौर डायरेक्टर काम किया है। इसके अलावा वह इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट और इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट के लिए भी सेवाएँ दे चुके हैं।
अशोक गुलाटी : कृषि अर्थशास्त्री गुलाटी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने वाले कमीशन फॉर एग्रीकृचर कॉस्ट एंड प्राइजेज के अध्यक्ष रहे हैं। उन्हें खेती के नये कानूनों का मज़बूत समर्थक माना जाता है। नये कृषि कानूनों के बनने के बाद गुलाटी ने कई बार अपने बयानों में कहा है कि कानूनों को रद्द नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, उन्होंने किसान आन्दोलन के मसले पर कहा था कि कानूनों को छ: माह तह होल्ड पर रखकर किसानों की शंका का समाधान किया जाना चाहिए। लेकिन उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद भी यही कहा कि किसानों की कानूनों को रद्द करने की माँग उचित नहीं है।
अनिल घनवट : अनिल घनवट महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन के अध्यक्ष हैं, जो किसानों का एक संगठन है। घनवट भी नये कृषि कानूनों के समर्थन में बोल चुके हैं। उनका साफ कहना है कि खुली मार्केट व्यवस्था (ओएमएस) किसानों के हक के लिए है; क्योंकि इसके ज़रिये उनके पास अपना उत्पाद बेचने के अधिक विकल्प होंगे। यह उन्हें बेहतर दाम दिलायेगा।
भूपेंद्र सिंह मान : मान भारतीय किसान यूनियन (मान) से जुड़े हैं और अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के चेयरमैन हैं। खुद किसान हैं। वह सन् 1990 से सन् 1996 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे हैं। मान और उनकी समिति तीनों कानूनों का समर्थन करते हैं। हालाँकि किसानों के चार सदस्यीय समिति के जबरदस्त विरोध के बीच मान ने खुद को इससे अलग कर लिया। (खबर लिखे जाने तक किसी नये सदस्य के नाम की घोषणा नहीं हुई।)
किसान आन्दोलन जारी
केंद्र सरकार के नये कृषि कानून को लेकर किसानों का दिल्ली से सटी सिंघु और अन्य सीमाओं पर शान्तिपूर्ण आन्दोलन तकरीबन दो महीने से जारी है। पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर पूरी ताकत से जमे हुए हैं। उधर अब अन्य जगह से भी किसान ट्रैक्टरों में दिल्ली की तरफ आते जा रहे हैं। किसान लगातार राष्ट्रीय राजधानी को सभी सीमाओं से घेर रहे हैं। इधर सरकार विराट किसान आन्दोलन को देखते हुए सुरक्षा के नाम पर सीमाओं को सील किये हुए है। इन सीमाओं स्थानीय पुलिस के साथ-साथ अतिरिक्त पुलिस बलों की तैनाती की गयी है। सरकार और किसानों के बीच अब तक आठ दौर की बातचीत बेनतीज़ा ही रही है और आखिर में सर्वोच्च न्यायालय को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है। हालाँकि नतीजा कब तक निकलेगा? नहीं कहा जा सकता।
किसान तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने के बाद ही बातचीत को तैयार हैं, तो वहीं सरकार इन कानूनों को लेकर पीछे हटने को तैयार नहीं। इन सबके बीच एमएसपी और कोर्ट जाने को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है। कृषि कानून में एक ऐसी धारा जुड़ी है, जो किसी भी परिस्थिति में किसानों के कोर्ट जाने के अधिकार को खत्म कर रही है। यह धारा है- कृषक उपज ट्रेड और कॉमर्स कानून। बहुत-से कृषि जानकारों की मानें, तो वह भी इस बात का दावा कर रहे हैं कि इस धारा के तहत जो प्रावधान किये गये हैं, वो संविधान के तहत मान्य नहीं हैं। उनका दावा है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ेगी और नौकरशाही के सामने उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकेगा।
इस कानून की धारा-13 और धारा-15 को लेकर किसानों के मन में संशय है। धारा-13 यह कहती है कि केंद्र सरकार या उसके अधिकारी, राज्य सरकार या उसके अधिकारी या किसी अन्य अधिकारी के खिलाफ कोई भी मुकदमा या कानूनी कार्यवाही नहीं हो पायेगी। धारा-15 के तहत किसी भी सिविल कोर्ट का इस कानून में कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होगा। यह मामला तहत जिस अथॉरिटी (डीएम, एसडीएम) को अधिकृत किया गया है, सुनवाई हर हाल में वहीं होगी। किसान इन्हीं धाराओं के चलते सरकार से टकराव की मुद्रा में हैं और कानूनों को रद्द करने की माँग कर रहे हैं। किसानों का आरोप है कि इससे उनके कानूनी हक को छीना जा रहा है, जिससे वे धीरे-धीरे अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर हो जाएँगे। हालाँकि एसडीएम और अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट के यहाँ अर्जी दाखिल की जा सकेगी। सरकार का दावा है कि इस व्यवस्था के तहत किसानों को त्वरित, सुलभ और कम लागत पर न्याय मिल सकेगा। इन कानूनों में यह भी कहा गया है कि किसी भी विवाद की स्थिति में उसका समाधान स्थानीय स्तर पर 30 दिनों के भीतर हो सकेगा।
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिवाकर सिंह चौधरी का कहना है कि हमें सर्वोच्च न्यायालय पर पूरा भरोसा है; लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से किसानों को इसका ज़्यादा फायदा नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने आन्दोलन खत्म करने का आदेश भी नहीं दिया है और हमारी माँग तीनों कानूनों को रद्द करने की है। जब तक कानून रद्द नहीं होंगे, तब तक आन्दोलन भी खत्म नहीं होगा।