भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। यहाँ ग्रामीण इलाक़ों में बसन वाले लोग शहरों का पेट ही नहीं भरते, बल्कि शहरों में आकर अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाते हैं। लेकिन इन दिनों जो युवा अपने गाँव में ही रहकर तरक़्क़ी करना चाहते हैं, उनके पास अवसरों का बेहद अभाव है। यही वजह है कि गाँवों से शहरों की ओर लगातार पलायन जारी है। अप्रैल में जारी सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडिया इकोनॉमी (सीएमआईई) बेरोज़गारी के आँकड़ों के मुताबिक, गाँवों बेरोज़गारी दर में 0.13 प्रतिशत की मामूली सी गिरावट आयी है। हालाँकि अगर ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो पता चलता है कि गाँवों में 10 में से तीन युवा बेरोज़गार हैं। इतना ही नहीं, गाँवों में 10 युवाओं में से चार खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। इन युवाओं के पास या तो कोई अच्छा काम नहीं है या बहुत कम काम है, जो गुज़ारे के लिए पर्याप्त नहीं है। जबकि प्रतिभा-संपन्न ग्रामीण युवाओं को अगर अवसर मिले, तो वे काफ़ी कुछ कर सकते हैं। गाँवों से शहरों की ओर युवाओं के पलायन का नतीजा यह निकला है कि शहरों में बेरोज़गारी दर बढक़र 9.81 प्रतिशत हो गयी है, जो कि मार्च में 8.51 प्रतिशत थी। यह भी इसी अप्रैल के आँकड़े हैं, जो यह संकेत देते हैं कि शहरों में रोज़गार के साधन कम हुए हैं या फिर शहरों की ओर बढ़ते पलायन के आगे शहरों में रोज़गार के अवसर कम पड़ गये हैं।
सीएमआईई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के शहरों और गाँवो में बीते महीने 2.21 करोड़ नयी नौकरियाँ बढ़ी थीं; लेकिन इससे कहीं ज़्यादा 2.5 करोड़ बेरोज़गारों की संख्या भी बढ़ी है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में अप्रैल महीने में क़रीब 46.7 करोड़ हाथों को रोज़गार की दरकार है, जिसमें से सिर्फ़ 81 प्रतिशत के हाथों में ही काम है। सीएमआईई के मुताबिक, अप्रैल महीने में लेबर पार्टिसिपेशन रेट यानी श्रम भागीदारी दर 41.98 प्रतिशत रही, जो कि तीन साल के उच्चतम स्तर पर है। सीएमआईई के मुताबिक, लेबर पार्टिसिपेशन रेट में बढ़ोतरी के चलते ही देश में बेरोज़गारी दर बढ़ी है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि गाँवों में 94.6 प्रतिशत हाथों को काम मिला है, जबकि शहरों में सिर्फ़ 54.8 प्रतिशत लोगों को ही काम मिला है। सीएमआईई ने यह भी कहा है कि मनरेगा के तहत रोज़गार की माँग घट रही है। ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो मनरेगा में रोज़गार की माँग नहीं घटी है, बल्कि काम घटा है। इसकी वजह वित्त वर्ष 2023-24 के लिए मनरेगा का बजट कम होना है, जो कि 90,000 करोड़ रुपये की प्रस्तावित माँग के बावजूद 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया, जबकि वित्त वर्ष 2022-23 में मनरेगा का बजट 73,000 करोड़ रुपये था। कोरोना-काल में बढ़ी बेरोज़गारी के बाद तो केंद्र सरकार को मनरेगा का बजट बढ़ाना चाहिए था; लेकिन उसने उलटा इसे कम कर दिया, जिसको लेकर पिछले दिनों संसद में भी सवाल उठाये गये थे।
महात्मा गाँधी ने ग्रामीण विकास के लिए खादी ग्रामोद्योग, ग्राम स्वराज्य, पंचायती राज, ग्रामोद्योग, महिला शिक्षा, गाँवों में साफ़-सफ़ाई और ग्रामीण प्रशिक्षण को महत्त्व दिया था। उन्होंने इसके लिए ही स्वदेशी अपनाओ, विदेशी भगाओ का नारा दिया था। महात्मा गाँधी चाहते थे कि गाँवों में ऊँच-नीच और महिला-पुरुष का भेदभाव ख़त्म हो, लोगों को रोज़गार, स्वरोज़गार मिले, ताकि गाँवों का संपूर्ण विकास हो सके। महात्मा गाँधी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा है कि ‘भारत की स्वतंत्रता का अर्थ पूरे भारत की स्वतंत्रता होनी चाहिए और इस स्वतंत्रता की शुरुआत नीचे से होनी चाहिए। तभी प्रत्येक गाँव एक गणतंत्र बनेगा। अत: इसके अनुसार प्रत्येक गाँव को आत्मनिर्भर और सक्षम होना चाहिए। समाज एक ऐसा पैरामीटर होगा, जिसका शीर्ष आधार पर निर्भर होगा।’
ग्रामीण विकास के पक्षधर बाबा मुरलीधर देवीदास आमटे ने भी कहा था कि ‘हमारे गाँवों के निर्धन और अशिक्षितों को दान नहीं चाहिए। उन्हें तो बस उचित अवसर चाहिए। जहाँ युवावस्था में ही मुरझा रही प्रतिभाओं को खिलने का भरपूर अवसर मिल सके।’ देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी गाँवों के सम्पूर्ण विकास के पक्षधर थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू कहते थे कि ‘ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी का सम्बन्ध मूलत: अर्थव्यवस्था की संरचना या ढाँचे से है। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से अनेक नवयुवकों का जीवन नष्ट हो जाता है और यह हमारी एक प्रमुख समस्या है।’
भारत की खासियत यह है कि यहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में न कच्चे माल की कमी है और न प्रतिभाओं की। भारत से कच्चा माल दुनिया के कई देशों को निर्यात होता है। अगर ग्रामीण क्षेत्र में पैदा हो रहे इस कच्चे माल को सीधे विदेशों में निर्यात करने की अपेक्षा केंद्र सरकार और राज्य सरकारें मिलकर ग्रामीण प्रतिभाओं को उस कच्चे माल से कुछ निर्मित करने का अवसर प्रदान करें, तो इससे बेरोज़गारी भी कम होगी और देश में देशी-विदेशी धन बढऩे के साथ-साथ ग्रामीण लोगों में ख़ुशहाली भी आएगी। इसके साथ-साथ ग्रामीण रोज़गार के सहारे शहरों में भी रोज़गार के अवसर पैदा होंगे। अक्सर देखा जाता है कि भारतीय सामानों की विदेशों में बहुत माँग रहती है। इसकी आपूर्ति के लिए कई ऐसे रोज़गारों, स्वरोज़गारों को दोबारा जीवित किया जा सकता है, जो ठप हो चुके हैं या ठप होने के कगार पर हैं। इससे खेती को भी बढ़ावा मिलेगा। जैसे पटसन, केला और लकड़ी का उत्पादन कम होने से इनसे जुड़े रोज़गार लगातार घट रहे हैं। इसके साथ ही पहले ग्रामीण महिलाएँ सूत काता करती थीं; लेकिन अब उनके हाथों में यह काम नहीं है। इसके साथ ही सिलाई, कड़ाई, खिलौने बनाना, घास के खिलौने और बर्तन (डलिया, टोकरी, पल्ले, चटाई, रस्सी, मिट्टी के बर्तन आदि बनाने के कामों में भी कमी आयी है, जिन्हें अभी बढ़ावा दिया जा सकता है। गाँवों में हर्बल ब्यूटी उत्पादों के अलावा जैविक खाद्य सामग्री बनायी जा सकती है। इससे मिलावटी चीज़ों का बाज़ार घटेगा और गाँव संपन्न होंगे।
आजकल पूरी दुनिया मिलावट और ज़हरीले खाद्य पदार्थों से जूझ रही है, जिसके चलते जैविक और शुद्ध खाद्य पदार्थों, सूती वस्त्रों की बहुत माँग है। इसके लिए भारत से अच्छा बाज़ार और कहीं नहीं हो सकता है। चीन ने इस दिशा में काफ़ी काम किया है और शहरों से लेकर गाँवों तक हर हाथ को काम देने में वह भारत से आगे निकल चुका है। भारत, जो कभी ग्रामीण उद्योग के लिए दुनिया में ख्यात था, आज अपनी ही ग्रामीण प्रणाली से पंगु हो चुका है। उन सभी पुराने रोज़गार के संसाधनों की पुनस्र्थापना करके केंद्र सरकार गाँवों में फिर से ख़ुशहाली ला सकती है। आजकल तो गाँवों तक सडक़ें हैं, बिजली भी है, ऐसे में गाँवों में शूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को स्थापित किया जा सकता है। आज ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसकी माँग राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कम हो।
ग्रामीण प्रतिभाओं को अवसर देने के लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को सबसे पहले उन प्रशिक्षण केंद्रों को जीवित करना होगा, जो कभी ग्रामीण प्रतिभाओं को प्रशिक्षण प्रदान करती थीं। इसके साथ ही कुछ ऐसे प्रशिक्षण केंद्र भी खोले जाएँ, जो आज के दौर के हिसाब से आधुनिक और तकनीकी प्रशिक्षण उन्हें दे सकें। इसके साथ ही सभी प्रकार के उद्योगों को स्थापित करके उनमें रोज़गार के अवसर गाँवों के युवाओं को देना चाहिए। इन उद्योगों में जब कच्चे माल की आवश्यकता होगी, तो किसान उसकी आपूर्ति के लिए आगे आएँगे। यह कच्चा माल तैयार होकर शहरों में आएगा, जहाँ उससे रोज़गार के अवसर बढ़ेगे। इस तरह एक चेन की तरह गाँवों से लेकर शहरों तक रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे और बाज़ार में नक़दी बढ़ेगी, जिससे देश का आर्थिक विकास तेज़ी से होगा।
ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षण देने के लिए गाँवों में चल रहे आँगनबाडी केंद्रों का विस्तार किया जा सकता है, जिनमें एक साथ कई तरह के प्रशिक्षण महिलाओं के लिए दिये जा सकते हैं। युवाओं के लिए आईआईटी, जीटीआई और अन्य सरकारी प्रशिक्षण केंद्र खोले जा सकते हैं, जहाँ युवक-युवतियाँ दोनों ही प्रशिक्षण ले सकें।
इसके साथ-साथ अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे युवक-युवतियों के लिए ऐसे काम सौंपे जा सकते हैं, जिनमें शिक्षा की आवश्यकता नहीं है और वे परंपरागत तरी$के से सीखे जाते हैं। जैसे मिट्टी के बर्तन बनाना, रस्सी और कपड़े बुनना, सिलाई-कड़ाई करना, खिलौने बनाना, मूर्तियाँ बनाना, घास के खिलौने, टोकरे आदि बनाना, गोबर की चीज़ें बनाना, खाद बनाना, खेती करना, अचार, मुरव्वा, जैम, जैली बनाना, चिप्स बनाना, अन्य ऐसे खाद्य पदार्थ बनाना, जो आसानी से बनते हैं, पैकिंग आदि करना। इतना कुछ करने भर से ग्रामीण प्रतिभाओं को रोज़गार और स्वरोज़गार के अनेक अवसर मिलेंगे, गाँवों का तेज़ी से विकास होगा। रोज़गार दर बढ़ेगी, बेरोज़गारी दर घटेगी। आज केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के द्वारा गाँवों में चलायी जा रही अनेक योजनाएँ हैं; लेकिन उन्हें बजट और बढ़ावा देने की ज़रूरत है।