हिमेश रेशमिया का एक कालजयी गीत है. ‘मन का रेडियो बजने दे जरा.’ चुनावों के मौसम में मन की बात करना हालांकि बेमानी-सा है क्योंकि पहले तो यह सामान्य ज्ञान है कि आपके मन की किसी को पड़ी नहीं है, दूसरे क्योंकि प्रवचनी सुषमा स्वराज चुनावी हर्फो में सच कह ही चुकी हैं, ‘चुनाव के आखिर में गिनती मनों की नहीं, मतों की होती है’. इसलिए जरूरी है कि तन-मन से ज्यादा धन-बल-शस्त्र-शत्रु-बदलाव-क्रांति-लहर-विकास-रोजगार-जाति जैसे शब्दों से वाक्य-विन्यास करें क्योंकि यही शब्द मतों की हर-हर गंगे हैं, डांस आफ डेमोक्रेसी में समां बांधने वाला संगीत है. इन्हीं में सब्जबाग दिखाने की ईश्वरीय शक्ति है. 2014 के इन आम चुनावों में वैसे भी सब्जबाग, ईश्वर और सोशल मीडिया ही परम सत्य है.
कुछ साल पहले का परम सत्य अलग था. तब चुनावों में राजनीतिक रैलियों का कोई विकल्प नहीं था. वही यथार्थ होता था और वहीं पर युद्ध समाप्त होता था. अब कई मैदान हैं जहां लड़ना है. टीवी अखबार तो थे भी, हैं भी लेकिन अब सोशल मीडिया के आक्रमण रूपी आगमन ने पार्टियों में ई-कार्यसेवकों की फौज खड़ी कर दी है. आप किसी रैली को तमाशे की ही तरह देखने चले गए और रात को जब लौटकर फेसबुक खोला तो पता चला आप उस पार्टी के पेज पर ऐसे टंगे हैं जैसे दशक पुराने उत्साही समर्थक हों. संवाद स्थापित करने वाले इन सब चतुर साधनों के बीच सीधा-साधा रेडियो कहीं पीछे छुप गया है. जैसे पुराने कपड़ों के ढेर के नीचे बचपन में दबा रह जाता था. और हम पृथ्वी का चक्कर लगाने में लगने वाली तेजी से पूरे घर में घूमते हुए उस मन के रेडियो को ढूंढ़ते थे और थोड़ी देर बाद थकने के बाद उसे भूलकर टीवी के सामने पालतीं मार बैठ जाते थे. आज भी वही हाल है. चुनाव प्रचार में रेडियो सबसे पीछे खड़ा एक हलका वार है.
आंकड़े आप से लेकिन अलग तरह से बात करते हैं. वे कहते हैं कि देश में तकरीबन 16 करोड़ लोग रेडियो सुनते हैं और जहां पिछले आम चुनावों में पार्टियों ने अपने एडवरटाइजिंग बजट का सिर्फ 2 से 5 प्रतिशत रेडियो एडवरटाइजिंग पर खर्च किया था, इस बार वही पार्टियां 10 से 15 प्रतिशत का खर्चा रेडियो पर कर रही हैं. देश के अलग-अलग शहरों के रेडियो जॉकी आंकड़े देते हैं कि इस चुनावी मौसम में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में 10 सेकंड के रेडियो विज्ञापन की कीमत 1,000 रुपये से शुरू होती है और जबलपुर-जयपुर जैसे शहरों में तकरीबन 300 रुपए से. लेकिन चुनाव के दौर में आंकड़ों के फेर में कम ही पड़ना चाहिए. ये वह दौर होता है जब हमारी जनसंख्या के 0.01 प्रतिशत का सेंपल साइज लेकर ‘सभी’ पूरे देश की सारी नब्जों को बिल्कुल सटीक पकड़ते हुए देश का सबसे बड़ा ओपिनियन पोल कराने का दावा करते हैं, और एक परिणाम के साथ दूसरा परिणाम मुफ्त बांटते हैं. इसके बाद एक शख्स की लहर बनती है, लहर जिसे फिर बवंडर बनाने पर काम शुरू होता है.
आंकड़ों से इतर रेडियो की खूबी यह है कि ये वहां पहुंचता है जहां टीवी और सोशल मीडिया नहीं पहुंच पाता. मोची की दुकान पर, रेहड़ी पर, गन्ने के मधुशाला रस वाले कोनों पर, पंद्रह का नींबू पानी बेचने वाले हाथ ठेलों पर, गांवों में, टीवी की डिजिटल क्रांति से दूर घरों में. शहरों में अपर होता जा रहा मिडिल क्लास इसे कार में सुनता है. दफ्तर और घर के बीच रोज छोटे-छोटे सफर करने वाले लोग रास्ते, बस और मेट्रो में. एक बड़ा शहरी तबका रेडियो सिर्फ और सिर्फ तभी सुनता है जब वह नाई की दुकान पर बैठा होता है. कुछ शहरी लोगों की जिंदगी का यह एक अहम पुराना हिस्सा है तो काफी लोगों की जिंदगी का यह बिल्कुल भी हिस्सा नहीं है. जिन लोगों के पास संचार और मनोरंजन के दूसरे विकल्प हैं उनके लिए राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी एडवरटाइजिंग बजट का 80 फीसदी पैसा खर्च करती हैं. लेकिन वे लोग, जो जनसंख्या में एक बड़ी भागीदारी रखते हैं, और सिर्फ रेडियो तक अपनी पहुंच, क्या उनकी राजनीतिक समझ को रेडियो प्रभावित कर पाता है?
जवाब ‘ना’ की तरफ ज्यादा झुकता है लेकिन उसे ‘हैंस प्रूव्ड’ करने से पहले रेडियो को लेकर की जा रही चुनावी प्रचार की कोशिशों पर लिखना जरूरी है. पिछले चुनावों से ज्यादा ध्यान, वक्त और पैसा इस बार रेडियो पर विज्ञापन और जिंगल्स के लिए खर्च हुआ है, साफ सुनाई देता है. भाजपा अपनी मार्केटिंग में आगे है, ये भी साफ है. मोदी सबको नमस्कार कर भारत के भाग्य को बदलने के लिए वोट मांग रहे हैं. सौगंध खा रहे हैं. ‘शासक बहुत देख लिए आपने, एक सेवक को मौका देकर देखिए’ और ‘मैं आपको भरोसा देता हूं, आपके सपनों को पूरा करने के लिए मैं कोई कसर नहीं छोडूंगा’ की रटंतू विद्यार्थियों-सी रट से रेडियो पटा पड़ा है. सारे नेताओं ने अपने-अपने वोटरों की नप्ती कर ली है जिनके आधार पर बड़ी-बड़ी कंपनियां विज्ञापन, नारे और जिंगल्स बना रही हैं और रेडियो जॉकी भी इन्हें गानों से ज्यादा सुना रहे हैं. क्योंकि उन्हें भरोसा है, अच्छे दिन आने वाले हैं.
लेकिन रेडियो पर आने वाले विज्ञापनों के अच्छे दिन कब आएंगे, कह नहीं सकते. रेडियो मिर्ची से जुड़े आरजे रूपक के अनुसार, ‘रेडियो पर क्रिएटिविटी एक चैलेंज है. बजट की समस्या तो है ही लेकिन चुनावी विज्ञापन देने वाली पार्टियां सिर्फ अपनी बात जनता तक पहुंचाने में दिलचस्पी रखती है, उन्हें क्रिएटिविटी से कम ही मतलब होता है.’ रेडियो पर हमेशा से ही खराब स्तर के विज्ञापनों का बोलबाला रहा है. इस बार चुनाव प्रचार के रेडियो विज्ञापन भी उसी काई में लिपटे हुए हैं. पहले भी रहे हैं, लेकिन चूंकि इस बार पैसा बरसात की मुफ्त बौछारों-सा बहा है तो उम्मीद थी कि चुनावी विज्ञापन भी कोका-कोला विज्ञापनों के स्तर के तो होंगे ही. लेकिन ज्यादातर या तो टीवी पर आने वाले विज्ञापनों के आडियो ट्रैक भर हैं या फिर किसी चिरकुट कवि की मीटर पर चढ़ी आढ़ी-टेढ़ी नज्म. यह तो अच्छा हुआ कि चुनावों की इस ऋतु में गुलजार को दादा साहेब फालके सम्मान मिला और इस बहाने रेडियो ने गुलजार के गीत सुनाकर इन चुनावी विज्ञापनों से कुछ राहत दे दी. उसी दौरान यह खयाल भी आया कि काश चुनाव प्रचार भी गुलजारमय हो सकते! नफासत से, अदब से, बेअदब हुए बिना पार्टियां प्रचार करतीं. कोई पार्टी अपने प्रचार में 116 चांद की रातों का वादा करती, कोई कहती मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने हैं. कोई खाली बोर दोपहरों का ही मेनिफेस्टो में जिक्र कर देता, कोई आंखों को वीजा नहीं लगता जैसी गंभीर बात ही कह देता. कोई विज्ञापन भमीरी (झींगुर की आवाज के लिए प्रयुक्त शब्द) पढ़ने के बाद के सन्नाटों को समेट पाता, कोई तिल को तिल रहने देता, पहाड़ नहीं बनाता. लेकिन इस मुश्किल समय में, समय जो सदैव से मुश्किल रहा है, चुनाव रूमानी नहीं होते. उनमें कविता नहीं होती. वे तो प्रसून जोशी को भी साधारण कर देते हैं. और साधारण को असाधारण बताते जाते हैं. तब तक जब तक हम उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बना देते.
लेकिन अगर आप चुनाव और उनके प्रचार में कविता नहीं ढूंढते तो गंभीरता तो अवश्य ही ढूंढ़ते होंगे. मगर सरकारी उदासीनता ने रेडियो को कम अधिकार देकर उसे सिर्फ चुनावी विज्ञापनों और जिंगल्स तक ही सीमित कर दिया है. एक माध्यम जिसकी पहुंच सर्वाधिक होनी थी, उसकी हानि हो चुकी है. हमारे यहां रेडियो पर चुनावी बहस नहीं होती, नेता इंटरव्यू नहीं देते, गवर्नेंस पर बात नहीं करते, और यह सब अमेरिका जैसे अनेको देशों में होता रहा है. एक मशहूर आरजे के मुताबिक, ‘आज के वक्त में आप कट कर नहीं रह सकते. सारी दुनिया पॉलिटिकल मुद्दों पर बात कर ही रही है लेकिन हम नहीं कर सकते. अजीब तो है, लेकिन नियम है, मानना पड़ता है.’ दिल्ली के एक दूसरे मशहूर एफएम के आरजे अपने गुस्से को छिपाते नहीं है, ‘यह समझ नहीं आता कि मुझे नेता के बारे में बात करने की इजाजत नहीं है लेकिन उस नेता को मेरे चैनल पर अपना ही विज्ञापन देने की इजाजत है. क्यों भाई? और अगर मैंने कभी गलती से भी कुछ राजनैतिक बात रेडियो पर कर दी तो उसी वक्त मुझे नोटिस देकर निकाल दिया जाएगा. खतरनाक तानाशाही है रेडियो में.’ विज्ञापन और जिंगल्स के अलावा रेडियो अगर चुनाव के लिए कुछ करता है तो चुनाव आयोग से करार, जिसके बाद रेडियो जॉकी महीने भर लोगों को वोट डालने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं. 92.7 बिग एफएम, भोपाल स्टेशन से जुड़े आरजे रवि इस करनी से खुश भी हैं, ‘हम लोग पिछले कुछ वक्त से हर एक घंटे में सुनने वाले को याद दिलाते हैं कि सीधी उंगली का उपयोग इस बार आपको जरूर करना है. बहुत मेहनत कर रहे हैं इसपर हम इस बार.’ लेकिन यह इसलिए होता है क्योंकि वोट करने के लिए जागरूकता लाना सोसाइटी में ‘कूल’ है अब. समाज सेवा की नई पीआर एक्सरसाइज. इसके अलावा कभी-भी कोई भी रेडियो जॉकी चुनाव से जुड़ी समझदारी भरी बात करता हुआ नहीं मिलता. हिंदुस्तान में आज भी रेडियो सिर्फ भूले-बिसरे गीत सुनाने वाला ही माध्यम है. गंभीरता उसकी फ्रीक्वेंसी नहीं है.
हालांकि रेडियो ने इतना तो कर ही दिया है कि रेहड़ी पर मूंगफली बेचने वाले मंगतू की मूंगफली के साथ मोदी भी बिक रहे हैं. लेकिन बस इतना ही. समाज की चेतना जागृति में कमर्शियल रेडियो का कोई योगदान नहीं है.
हिमेश रेशमिया का एक और कालजयी गीत है. जिंदगी जैसे एक रेडियो, अलग-अलग धुन सुनाती है. आपको दो बार उनका नाम पढ़कर और उसके आगे दो बार ही कालजयी आता देखकर क्रोध अवश्य आ रहा होगा, लेकिन आप यह तो मानेंगे ही न कि ‘हम मोदी जी को लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं’ गीत की तुलना अगर आप हिमेश के इन गीतों से करेंगे तो हिमेश को मोदी से आगे ही पाएंगे!