नवजोत सिंह सिद्धू के खिलाफ विधानसभा चुनाव में मजबूत उम्मीदवार उतारने की बात सार्वजनिक रूप से कहकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर बेआबरू हुए कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने साफ़ कर दिया है कि उनकी राह अब कांग्रेस से अलग होगी। अब बड़ा सवाल यही है कि वे जाएंगे किसके साथ और कब जाएंगे? कांग्रेस अपनी तरफ से उन्हें पार्टी से बाहर शायद न करे। संभावनाएं कई हैं, लेकिन अमरिंदर सिंह ‘सेफ’ खेलना चाहते हैं। उनके निशाने पर कांग्रेस से भी ज्यादा नवजोत सिंह सिद्धू हैं।
कैप्टेन जानते हैं कि सिद्धू न होते तो वे आज भी मुख्यमंत्री होते। राहुल-प्रियंका गांधी को ‘अपने बच्चों जैसा’, लेकिन ‘राजनीतिक रूप से अपरिपक्व’ बताकर कैप्टेन ने भाजपा की भाषा बोली है, हालांकि यह पक्का नहीं कि वे करेंगे क्या। पंजाब के किसानों की भाजपा के प्रति बड़ी नाराजगी के बीच एक ही रास्ता है कि कैप्टेन भाजपा के साथ चले जाएँ – यह कि मोदी सरकार विवादित तीन कृषि कानूनों को वापस ले ले या ठन्डे बस्ते में डाल दे। किसान इसे स्वीकार करेंगे या नहीं, यह बाद की बात है।
लेकिन एक और पक्ष भी है। पंजाब की जनता में इस बात को लेकर कोई गुस्सा नहीं है कि अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया है। चुनाव के वादे पूरे न करने और श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी पर कार्रवाई न होने के कारण जनता में पहले से ही कैप्टेन के प्रति गुस्सा है। कांग्रेस की आंतरिक रिपोर्ट भी यही कहती है कि अमरिंदर उसे अगला चुनाव नहीं जिता सकते थे। दूसरी बात यह है कि उनके अपने प्रभाव क्षेत्र के लोग ही कह रहे हैं कि अमरिंदर ने तो खुद ही 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे अपना आखिरी चुनाव बताया था।
सबसे अहम बात यह है कि जिन नवजोत सिद्धू से वे टक्कर ले रहे हैं, वे भी उनकी ही तरह जट्ट सिख हैं। और तो और अमरिंदर सिंह खुद भी सिद्धू ही हैं। लिहाजा जट्ट सिख भी इसे अच्छा नहीं मान रहे कि अपने ही समुदाय के एक ऐसे युवा नेता की वे मुखालफत कर रहे हैं, जिसमें काफी आगे जाने की क्षमता है और जिसमें जोश और जज़्बा है। अमरिंदर के सिद्धू के खिलाफ वाले अभी तक के बयानों का सिद्धू को नहीं, खुद अमरिंदर को नुक्सान हुआ है। यही नहीं एक और कद्दावर जट्ट सिख नेता सुखजिंदर सिंह रंधावा, जिन्हें अब उप मुख्यमंत्री बना दिया गया है और सरकार में जिनकी नंबर दो की हैसियत है, भी सिद्धू के साथ खड़े हैं।
अमरिंदर 80 साल के आसपास हैं और लोग मानते हैं कि उन्हें सिद्धू को अपने उत्तराधिकारी के रूप में समर्थन देना चाहिए था, लेकिन कर वे इससे उलट रहे हैं। सिद्धू की पंजाब में ज़मीनी पकड़ से कोई इंकार नहीं कर सकता। अमृतसर से वे तीन बार सांसद रहे हैं। अब विधायक हैं। पंजाब में सिख और गैर सिख दोनों में वे बराबर लोकप्रिय हैं। पंजाब से बाहर भी सिद्धू की लोकप्रियता है। ऐसे में अमरिंदर की अपनी ही पार्टी के युवा नेता को चुनाव में हराने की ‘कसम’ का जनता में सही सन्देश नहीं गया है। सिद्धू के विरोध में डूब चुके अमरिंदर इतने अनुभवी होने के बावजूद कैसे इस ज़मीनी हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं, यह आश्चर्य की बात है।
कहा जाता है कि अमरिंदर यह टोह लेने की कोशिश कर रहे हैं कि कितने विधायक हकीकत में उनके साथ आ सकते हैं। चरणजीत सिंह चन्नी को कांग्रेस ने जिस तरह मुख्यमंत्री बनाकर तुरुप का पत्ता चला है, उससे कांग्रेस विधायक दल में किसी बड़े विघटन की संभावना नहीं दिखती। अमरिंदर सिर्फ एक ही तरीके से कांग्रेस सरकार के लिए समस्या बन सकते हैं और वह यह है कि कांग्रेस के 20 से ज्यादा विधायक राजा अमरिंदर के साथ चले जाएं। पंजाब की राजनीति पर नजर रखने वाले जानकार इसकी संभावना न के बराबर मानते हैं। ज़मीनी हकीकत आज भी यह है कि चुनाव की दृष्टि से कांग्रेस अभी भी अन्य दलों के मुकाबले बेहतर स्थिति में है।
अमरिंदर कांग्रेस को अपनी तरफ से झटका देने की कोशिश कर ज़रूर रहे होंगे। अपने पद से महरूम होने का जिम्मेवार वे कांग्रेस में राहुल-प्रियंका-सिद्धू की तिकड़ी को मानते हैं। सोनिया गांधी के प्रति उनकी नाराजगी सिर्फ इतनी है कि वे युवा टोली से उनकी कुर्सी बचा नहीं पाईं। वे भाजपा के संपर्क में हैं, इसकी चर्चा कई दिन से है। भाजपा को अमरिंदर सिंह का साथ आना बहुत मुफीद होगा। भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर इसे कांग्रेस के नेतृत्व, खासकर राहुल गांधी-प्रियंका गांधी के खिलाफ बगावत, के रूप में पेश करेगी। भले अमरिंदर की नाराजगी के कारण और हों।
यह भी हो सकता है कि कुछ विधायक साथ आएं तो अमरिंदर अपना कोई अलग गुट पंजाब में बना लें और चुनाव का इन्तजार करें। आम आदमी पार्टी (आप) भी चाहेगी कि अमरिंदर सिंह जैसा कद्दावर नेता उसके साथ आ जाए। लेकिन आप अमरिंदर का शायद अंतिम विकल्प ही होगा, क्योंकि आप का नेतृत्व वरिष्ठता में अमरिंदर से कहीं ‘जूनियर’ है। लिहाजा भाजपा उनका सबसे संभावित ठिकाना हो सकता है, पेंच सिर्फ किसानों के आंदोलन और नाराजगी का है !