क्या पूर्वोत्तर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून (अफ्सपा) के तहत मिली शक्तियों के दुरुपयोग और मानवाधिकार के उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं से जनता का आक्रोश अलगाववाद की भावना को हवा दे रहा है? यह सवाल हाल में नागालैंड में निहत्थे 13 लोगों के सेना की गोलीबारी में जान गँवाने के बाद और बड़े स्तर पर सामने आया है। इन राज्यों में हाल के वर्षों में सुरक्षा बलों के लोगों के हाथों महिलाओं के बलात्कार की कुछ घटनाओं के आरोपों के बाद लोगों में अफ्सपा को वापस लेने की माँग और तेज़ हुई है।
पूर्वोत्तर ही नहीं, जम्मू-कश्मीर और देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में भी दशकों से इस क़ानून को वापस लेने की माँग बहुत ज़ोर-शोर से उठती रही है। क्योंकि लोगों का आरोप रहा है कि असीमियत शक्तियों वाले इस क़ानून का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग होता है। वे पिछले तीन दशक से इस क़ानून को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। इसके लिए प्रदर्शन, आन्दोलन सब कुछ हुआ है। महिलाएँ सडक़ों पर उतरी हैं और इस क़ानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी है।
इस क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध को देखते हुए ही सन् 2004 में यूपीए की केंद्र में आयी नयी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में पाँच सदस्यों की एक समिति का गठन किया था, जिसे सुरक्षा बलों को विशेष अधिकार देने वाले आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट (अफ्सपा) को लेकर अपनी सिफ़ारिशें देने को कहा गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा क़ानून को हटाने की सिफारिश की थी। लेकिन इसके बाद इस रिपोर्ट पर कोई अमल नहीं हुआ। हालाँकि एक और समिति ने इस क़ानून को बनाये रखने की सिफ़ारिश की थी। अब इसी 4 दिसंबर को नागानैंड के मोन ज़िले में सेना के हाथों 13 लोगों की मौत के बाद इस क़ानून को लेकर देश भर में चर्चा शुरू हो गयी है।
संसद में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों ने नागालैंड की घटना को लेकर जबरदस्त आक्रोश दिखाया। नागालैंड में जनता में तो इस घटना के प्रति ग़ुस्सा भडक़ा ही, राज्य के राजनीतिक नेता भी विरोध करने से ख़ुद को रोक नहीं पाये।
याद रहे अफ्सपा अंग्रेजों के शासन-काल का क़ानून है। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भारत के लोगों को कुचलने के लिए अपनी फ़ौज को अंग्रेजों ने आन्दोलनकारियों के हनन और दमन के कई ख़ास अधिकार दे दिये, जिनमें एक अफ्सपा भी था। लेकिन आज़ादी के बाद भी यह क़ानून बना रहा।
जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रबल समर्थक नेता के होते हुए भी सन् 1958 में एक अध्यादेश के ज़रिये अफ्स्पा लाकर तीन महीने बाद इसे संसद की मंज़ूरी दिला दी गयी और 11 सितंबर, 1958 को अफ्सपा एक क़ानून बनकर लागू हो गया।
जब यह क़ानून बना, तो प्रारम्भ में इसे पूर्वोत्तर और पंजाब के उन क्षेत्रों में लगाया गया; जो उन दिनों अशान्त थे। दरअसल इन इलाक़ों की सीमाएँ ज़्यादातर पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और म्यांमार से सटी थीं। इस एक्ट में सशस्त्र बलों को अशान्त क्षेत्रों में शान्ति बनाये रखने के लिए विशेष अधिकार दिये गये हैं; लिहाज़ा इसे लेकर स्थानीय लोग सुरक्षा बलों पर ज़्यादतियों के आरोप लगाते रहे हैं। सशस्त्र बल क़ानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को चेतावनी देने के बाद उस पर सीधे गोली चलाने का अधिकार सुरक्षा बल जवान के पास होता है।
ज़्यादतियों की सम्भावना इसलिए भी बढ़ जाती है, क्योंकि इस क़ानून में सैन्य बलों को बिना गिरफ़्तारी समन (अरेस्ट वारंट) के किसी व्यक्ति को सन्देह के आधार पर गिरफ़्तार करने, किसी परिसर में प्रवेश करने और तलाशी लेने का भी अधिकार है। देश-विरोधी घटना के समय तो यह अधिकार उचित माना जा सकता है; लेकिन यह तब अनुचित लगता है, जब आम नागरिकों को प्रताड़ित होना पड़ता है। लोगों के मानवाधिकार हनन के मामले में ऐसे स्थान ज्यादा हैं, जहाँ यह क़ानून लागू है।
यदि सरकारी लेखा-जोखा देखा जाए, तो आज की तारीख़ में यह क़ानून पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों- असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड में लागू है। जबकि पंजाब, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर समेत देश के नक्सल प्रभावित इलाक़ों छत्तीसगढ़ आदि में कई राज्यों में लागू किया जाता रहा है। वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के अलावा नागानैंड, असम, मणिपुर (राजधानी इम्फाल के सात विधानसभा क्षेत्रों को छोडक़र) और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह लागू है। त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय में से क़ानून को ज़रूरत के हिसाब से लगाया जाता है।
मानवाधिकार संगठनों की माँग
देखा जाए, तो देश भर के मानवाधिकार संगठन लम्बे समय से जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों से इस क़ानून को हटाने की वकालत करते रहे हैं। इन संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून का दुरुपयोग होता है। इरोम शर्मिला को के अलावा सन् 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में अफ्सपा को ख़त्म करने की सिफ़ारिश की थी। पाँच सदस्यीय इस समिति ने 6 जून, 2005 को 147 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें अफ्सपा को दमन का प्रतीक बताया गया था।
हालाँकि सेना और रक्षा मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को लागू करने के ख़िलाफ़ कमर कस ली और इस विरोध के चलते केंद्र सरकार ने इस सिफ़ारिश को ख़ारिज कर दिया। सन् 2004 में मणिपुर में असम राइफल्स की हिरासत में एक महिला थंगजाम मनोरमा की मौत के विरोध में हुए आन्दोलन और इरोम शर्मिला द्वारा की जा रही अनिश्चितकालीन हड़ताल के चलते सन् 2004 में न्यायाधीश रेड्डी समिति का गठन हुआ था।
इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र में विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफर हेंस ने 31 मार्च, 2012 को भारत से अफ्सपा हटाने की माँग की थी। उन्होंने कहा था कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अफ्सपा जैसा कठोर क़ानून नहीं होना चाहिए। ह्यूमन राइट्स वॉच भी इस क़ानून को लेकर समय-समय पर आपत्तियाँ जताता रहता है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में अफ्सपा को हटाने का वादा किया था। कांग्रेस ने कहा था कि अगर उसे केंद्र की सत्ता मिली, तो वह अफ्सपा ख़त्म कर देगी।
अब नागानैंड के मोन ज़िले में सुरक्षा बलों की गोलीबारी में आम नागरिकों के मारे जाने की घटना के बाद सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम-1958 को वापस लेने की माँग फिर से ज़ोर पकडऩे लगी है। मेघालय की प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस क़ानून वापस लेने की माँग कर रही है। घटना के बाद कांग्रेस विधायक आम्परिन लिंगदोह ने एक में कहा कि हमें अपने लोगों पर अत्याचार रोकने के लिए तत्काल इस क़ानून को वापस लिए जाने की माँग करना चाहिए। कृपया जल्द-से-जल्द बैठक बुलाएँ। सिविल सोसायटी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्वोत्तर क्षेत्र के नेता वर्षों से इस क़ानून की आड़ में सुरक्षा बलों पर ज़्यादती करने का आरोप लगाकर इसकी वापसी की माँग कर रहे हैं।
कब, कहाँ लागू हुआ अफ्सपा?
अफ्सपा के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार इसे 1 सितंबर, 1958 में असम और मणिपुर में लागू किया गया था। फिर सन् 1972 में कुछ संशोधनों के बाद इसे त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागानैंड सहित पूरे पूर्वोत्तर भारत में लागू कर दिया गया। बाद में पंजाब, चंडीगढ़ और जम्मू-कश्मीर भी इसके दायरे में आया। भिंडरावाले के नेतृत्व में पंजाब में जब अलगाववादी आन्दोलन शुरू हुआ, तो अक्टूबर, 1983 में पूरे पंजाब और केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में अफ्सपा लागू कर दिया गया।
बाद में भिंडरावाले के मौत के बाद सन् 1997 में पंजाब और चंडीगढ़ से अफ्सपा को वापस ले लिया गया था। त्रिपुरा में उग्रवाद शान्त होने पर मई, 2015 में अफ्सपा को हटाया गया था। वहाँ यह क़ानून 18 साल तक लागू रहा था। इसी तरह सन् 1990 के दशक में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने जोर पकड़ा, तो जम्मू-कश्मीर में भी अध्यादेश के ज़रिये अफ्सपा लागू किया गया। फिर एक साल बाद 5 जुलाई, 1990 को क़ानून बना दिया गया, जो वहाँ आज तक लागू है। इस क़ानून से लेह-लद्दाख़ का क्षेत्र प्रभावित नहीं है।
यह बहुत दिलचस्प है कि नागानैंड के उग्रवादी समूह का सन् 2015 में केंद्र सरकार के साथ समझौता हुआ था। तब एनएससीएन-आईएम के महासचिव थुंगलेंग मुइवा और सरकार के वार्ताकार आर.एन. रवि के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। हालाँकि इस समझौते के बावजूद नागानैंड में अफ्सपा $कायम रहा। इस घटना के बाद वहाँ सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया, जो हिंसा और आगजनी के रूप में सामने दिखा है।
अफ्सपा हटाने की पहल ख़ुद केंद्र सरकार कर सकती है। सम्बन्धित राज्य सरकार भी अफ्सपा को हटाने, उसकी अवधि बढ़ाने आदि को लेकर सिफ़ारिश कर सकती है; लेकिन अन्तिम फ़ैसला लेने का अधिकार राज्यपाल या केंद्र सरकार को ही प्राप्त है।
जहाँ तक इसे लागू करने के प्रावधान की बात है, तो भाषा, क्षेत्र, समुदाय, जाति, नस्ल आदि के आधार पर हिंसा या गहरे विवाद की स्थिति में उग्रवादी गतिविधियों और उपद्रव के मद्देनजर किसी इलाक़े या पूरे प्रदेश को अशान्त क्षेत्र घोषित किये जाने का प्रावधान है। अफ्सपा की धारा-3 में कहा गया है कि किसी प्रदेश (राज्य या केंद्र शासित प्रदेश) के राज्यपाल को वहाँ अलग-अलग आधार पर बने गुटों के बीच तनाव के कारण पैदा हुई अशान्ति के आधार पर भारत के राजपत्र में आधिकारिक सूचना जारी करवानी होती है। राजपत्र में सूचना निकलते ही सम्बन्धित क्षेत्र को अशान्त मान लिया जाता है और तब केंद्र सरकार वहाँ की पुलिस की शान्ति की बहाली के प्रयास में मदद के लिए सशस्त्र बलों को भेजती है।
नागानैंड घटना में तो सभी मानते हैं कि इस मामले में सुरक्षा बलों से चूक हुई है। ख़ुद गृहमंत्री ने घटना पर अफसोस जताया है और जाँच की भी घोषणा की है। लेकिन ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या स्पष्टीकरण देती है? इससे बड़ा सवाल यह बनता है कि सरकारी स्पष्टीकरण को उस क्षेत्र के लोग किस तरह देखते हैं। ख़ासकर उत्तर-पूर्व के सन्दर्भ में देखा जाए तो ऐसे तमाम मामलों में जाँच की घोषणाएँ होती रही हैं; लेकिन उनका कोई ख़ास नतीजा निकलता नहीं देखा गया।
समस्या की जड़ अफ्सपा को ही माना जाता है। देखा जाए, तो पिछले 20 वर्षों के दौरान जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से आर्मी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जितनी भी सिफ़ारिशें आयीं, केंद्र ने अफ्सपा के तहत उन सभी मामलों में मुक़दमा चलाने की इजाज़त देने से इन्कार कर दिया। स्वाभाविक ही अफ्सपा झेल रहे तमाम इलाक़ों में इसे काले क़ानून के रूप में देखा जाता है। इस बार भी घटना के बाद से अफ्सपा हटाने की माँग तेज़ हो गयी है। वहाँ तक कि भाजपा के सहयोगी दलों से जुड़े दो मुख्यमंत्री-नागानैंड के नेफ्यू रियो और मेघालय के कॉनराड के संगमा भी ऐसी माँग करने वालों में शामिल हो चुके हैं।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद या उग्रवाद से निपटना काफ़ी मुश्किल काम है और सुरक्षा बलों को भी अपनी जान जोखिम में डाले रहते हुए ड्यूटी करनी पड़ती है। इसके बावजूद सुरक्षा बलों या आम लोगों के बीच इस तरह का अहसास जमने देना ठीक नहीं है कि सुरक्षा बलों के जवान कुछ भी करें, मगर उनके ख़िलाफ़ किसी तरह की क़ानूनी कार्रवाई नहीं होगी।
कई चर्चित मामलों में भी सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई न होने से ऐसा भाव बनने लगा है और यह भी एक वजह है कि कई विशेषज्ञ भी अफ्सपा हटाने की ज़रूरत बताते रहे हैं। खासकर चीन के साथ सीमा विवाद से गरमाये माहौल और म्यांमार में सैन्य सत्ता की वापसी के चलते सीमावर्ती राज्यों में बने हालात को ध्यान में रखें, तो अफ्सपा पर पुनर्विचार की यह ज़रूरत और बढ़ जाती है।
सेना का विरोध क्यों?
मणिपुर की बात करें, तो नवंबर 10 जुलाई, 2004 में आधी रात को एक महिला थंगजाम मनोरमा के साथ सेना के जवानों ने कथित रूप से रेप करके उसकी हत्या कर दी थी। बाद में मनोरमा का शव क्षत-विक्षत हालत में मिला था। घटना के बाद 15 जुलाई, 2004 को दर्ज़नों मणिपुरी महिलाओं ने नग्न होकर सेना के ख़िलाफ़ हाथ में तख्तियाँ लिए सडक़ों प्रदर्शन किया था। इन तख़्तियों पर लिखा था- ‘रेप मी’।
इस घटना के बाद देश भर में बहुत नाराज़गी उभरी। कई सामजिक संगठनों के इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किये। इसके अलावा नवंबर, 2000 में मणिपुर में ही एक बस स्टैंड के पास 10 लोगों को सैन्य बलों ने गोली मार दी। घटना के वक़्त इरोम शर्मिला वहीं मौज़ूद थीं, जिन्होंने अफ्स्पा के विरोध में बाद में लगातार 16 साल तक अनशन किया। उस समय 29 साल की इरोम की यह भूख हड़ताल देश ही नहीं दुनिया भर में चर्चा में रही। अगस्त, 2016 में भूख हड़ताल ख़त्म करने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी बनाकर चुनाव भी लड़ा; लेकिन सफल नहीं हुईं। राज्य ही नहीं दर्ज़नों मानवाधिकार संगठन और कार्यकर्ता इस क़ानून का जबरदस्त विरोध करते आये हैं। जम्मू-कश्मीर में भी यह क़ानून लागू है और सेना और सुरक्षा बलों पर आरोप लगते हैं, इसका दुरुपयोग किया जाता है। नक़ली मुठभेड़ों में आम लोगों की हत्या के दर्ज़नों आरोप लगाये जाते रहे हैं। इनमें कई आरोप सच साबित हुए हैं। हिरासत में लेकर प्रताडि़त करने के आरोप भी लगते हैं। राजनीतिक दल राजनीतिक आधार पर प्रताडऩा के आरोप लगाते हैं। इसमें गिरफ़्तारी भी मनमाने तरीक़े से होती है। क़ानून के तहत अर्धसैन्य बलों पर मुक़दमे बिना केंद्र की मंज़ूरी के नहीं हो सकते, लिहाज़ा यह आरोप लगते कि सेना के मनोवल के नाम पर जब कभी भी सैन्य बलों पर ऐसे आरोप लगते हैं, तो बहुत कम में ही कोई मामला दर्ज हो पाता है या पीडि़त को न्याय मिल पाता है। सरकार क़ानून के पक्ष में यह तर्क देती है कि इसके बिना आतंकी या उग्रवादी घटनाओं को रोकने में मदद नहीं मिल सकती। नक्सल प्रभाहित राज्यों में भी इस क़ानून का इस्तेमाल होता है। वहाँ भी लोगों के मानवाधिकार हनन के आरोप लगते रहे हैं।