अर्धकुंभ के दावे की पोल खोलती गंगा!

हमें गंगा से कुछ लेना नहीं बल्कि गंगा को देना है’ बनारस के सांसद व स्वयंभू गंगा पुत्र के शब्द अपने अर्थ को उल्टा कर चुके हैं उन्होंने गंगा से लिया ही लिया है।

अर्धकुंभ की पूर्ति हुई और पीछे से खबर आ गई कि गंगा फिर मैली हो रही है। उमा भारती बड़े दावे करके चली गई। नितिन गडकरी ताल ठोक के दावे कर रहे हैं। ये दावे ऐसी स्थिति में है जब गंगा के मायके में ही गंगा क्षत-विक्षत है। 58 बांधों के कारण सुरंग में या फिर जलाशयों में सूखी नदी के रूप में अपना वर्तमान और भविष्य देख रही है।

दूसरी तरफ गंगा पर अपने रिपोर्ट कार्ड के रूप में सरकार अखबारों में पूरे पन्ने के विज्ञापन दे रही हैं। मोदी और योगी दोनों ने ही श्रद्धालुओं को धन्यवाद और स्वच्छता पर प्रसन्नता व्यक्त की। दावा किया गया कि 25 करोड़ से अधिक लोग और 72 देशों के मिशन प्रमुख आये। उपलब्धियों में स्वच्छ कुंभ, डिजिटल कुंभ, सुरक्षित कुंभ, सांस्कृतिक कुंभ और मीडिया प्रबंधन जैसे शीर्षकों से मेले में आए लोगों के बारे में, उनके लिए की गई व्यवस्था और मेले की ढांचागत जानकारी दी गई। कहीं यह नहीं बताया गया है कि गंगा में पानी कहां से, कितना आया। 2-3 खबरें कुंभ की शुरुआत में ज़रूर है कि गंगा में मगरमच्छ और कुछ खास मछलियां देखी गई।

अर्धकुंभ के लिए सा$फ पानी की तैयारी के लिए टिहरी बांध के 415 परिवारों का बिना पुनर्वास किए अक्टूबर, 2018 को जारी एक नोटिफिकेशन द्वारा बांध जलाशय में बिना शर्त पानी भरने की इजाजत उत्तराखंड सरकार ने दे दी। उत्तराखंड सरकार की जिम्मेदारी है की बांध जलाशय के जिस स्तर तक पुनर्वास न हो वहां तक जलाशय में पानी भरने की इजाजत न दें।

कानपुर की चमड़ा फैक्ट्रीयां कुछ महीनों के लिए बंद कर दी गई। इलाहाबाद के आसपास के नालों पर सफाई की मशीनें कुछ समय के लिए लगा दी गई। इन सारे कारनामों से नमामि गंगे के 20 हज़ार करोड़ का तियापाचा पांच साल के अंतिम दिनों में चुनाव के समय कर दिया गया।

अर्धकुंभ की सबसे बड़ी सफलता मानी जाए तो वह यह है कि देशभर में हिंदुओं के बीच यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि हमने गंगा साफ कर दी।

अर्धकुंभ के बाद आने वाली खबरें थोड़ी डरावनी है। इलाहाबाद अर्धकुंभ और गंगा के संदर्भ मे रोचक सत्य यह है कि अर्धकुंभ के दौरान गंगा का पानी सा$फ रहे। इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा से जुड़े शहरो में प्रदूषण करने वाली इकाइयों को स्नान के दौरान बन्द रखा था। अब सब जगह उनको खोलने की इजाजत हो गई है। गाजि़याबाद में अधिकारियों ने कहा प्रदूषण होगा तो कार्रवाई की जाएगी। अरे भाई यह बात तो पहले भी कही जा सकती थी। पहले क्या क्या कार्रवाई की? कानपुर के बाबा घाट से सीधा 76 लाख लीटर गंदा पानी रोज़ गंगा में जाने की खबर है।

अभी गंगा के जल मार्गों की बात करें, बनारस के घाटों पर सदियों से नाव चला कर अपनी आजीविका पालने वालों पर प्रहार करने वाले गुजराती घरानों के बड़े क्रूज (इंजन से चलने वाली बड़ी यात्री नावों) की बात करें तो गंगा के व्यवसायीकरण का पूरा चित्र सामने आ जाएगा।

गंगा जलमार्ग के आलोचक देबादित्यो सिन्हा ने सही कहा कि प्रधानमंत्री मां गंगा की सेवा केवल पैसों से नहीं कर्मों से करनी चाहिए। गंगा पर बांध बनवाना, जलमार्ग के लिए उसमें तलकर्षन करना, जलीय जंतुओं के आवास को खत्म करना एवं उसका हर तरह से व्यवसायीकरण करना सेवा नहीं अपमान है।

जब गंगा में आप बांध बनाकर एक तरफ उसके गंगत्व की समाप्ति करते हैं। दूसरी तरफ आप मैदान में आते ही उसके पानी को पूरी तरह बड़े शहरों की जल आपूर्ति और सिंचाई के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। तो फिर गंगा में बचा ही क्या है? यदि गंगा में प्रवाह है तो वह आने वाली कुछ गंदगी को तो साफ कर ही सकती है।

गंगा की अविरल प्रवाह के लिए जल परिवहन और जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन जैसे दो भारी भरकम मंत्रालयों को संभालने वाले मंत्री नितिन गडकरी ने कई बार यह ध्यान दिया कि भविष्य में गंगा पर कोई बांध नहीं बनेंगे। उनके मंत्रालय के अधिकारियों से भी है संदेश आया की भविष्य में अब गंगा पर कोई बांध नहीं बनेगा। जो पाइप लाइन में उनकी तो बात ही नही बल्कि जिन पर पांच से दस प्रतिशत भी काम हुआ है, उनको भी रोक दिया जाएगा। उन्होंने गंगा की सहायक नदियां मंदाकिनी व पिंडर तक के नाम लिए। किंतु फिर भी निर्माणाधीन 3 परियोजनाओं रोकने के लिए बिल्कुल सहमत नहीं। यदि यह निर्माणाधीन परियोजनाएं तो नहीं रोकी गई तो यह जल्दी पूरी हो जाएंगी और फिर बने हुए बांधों को तोडऩा संभव नहीं लगेगा। दूसरी तरफ अभी तक सरकार ने गंगा और उसकी सहायक नदियों पर अन्य कोई नई बांध नहीं बनेंगे, इसके लिए कोई गजट नोटिफिकेशन या अन्य प्रकार का कोई पत्र भी जारी नहीं किया है। फिर नीतियां कभी भी बदली जा सकती हैं। असली प्रश्न तो निर्माणाधीन बांधो को रोक कर गंगा के गंगत्व के लिए प्रतिबद्धता दिखाने का है। जो गंगा की अविरल धारा के लिये आवश्यक हैं।

यदि सरकार गंगा के गंगत्व को पुन: स्थापित करना चाहती है तो वह खास करके सिंगोली भटवारी (99 मेगावाट) मंदाकिनी नदी पर, तपोवन-विष्णुगाड परियोजना (520 मेगावाट) विष्णुगाड- पीपलकोटी परियोजना (444 मेगावाट) अलकनंदा पर स्थित परियोजनाओं को तुरंत रोके। फिलहाल यही तीनों परियोजना अभी निर्माणाधीन है। पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह की सरकार ने भागीरथी गंगा पर 4 निर्माणाधीन परियोजना रोकी थी। तब गंगा के लिए अपने आप को समर्पित कहने वाली सरकार इन परियोजनाओं को क्यों नहीं रोक रही? जबकि केंद्र राज्य को होने वाली प्रतिवर्ष होने वाली 12′ मुफ्त बिजली के नुकसान को ग्रीन बोनस के रूप में दे सकती है जोकि 200 करोड़ से भी कम होगा।

हजारों करोड़ों गंगा की सफाई अविरलता व निर्मलता के लिए खर्च किए गए है। मगर ये क्यों नही समझा जा रहा कि गंगा की अविरलता बांधों के चलते संभव नही है। वे अच्छी तरह समझते हैं मगर इस तथ्य से नज़रें चुराते हैं क्योंकि मामला तो बहुत बड़े ठेकेदारो का है। उत्तराखंड राज्य को नुकसान नहीं बल्कि ठेकेदारों की लॉबी को नुकसान की बात है ।

पर्यावरण आंदोलनों के नेता सुंदरलाल बहुगुणा से लेकर स्वामी सानंद के लंबे उपवासो के बाद उसी संकल्प के साथ मात्री सदन हरिद्वार में 26 साल के युवा संत आत्मबोधानंद जी 24 अक्टूबर, 2018 से अनशन पर हैं। लेख लिखे जाने तक 138 दिन हो रहे हैं इसके बाद भी सरकार गंगत्व की गम्भीरता को क्यों नहीं समझ रही?

दिल्ली के जंतर मंतर पर क्रमिक अनशन जारी है। 23 फरवरी को मेधा पाटकर, सुनीलम, राजेंद्र सिंह, रवि चोपड़ा, प्रोफेसर आनंद, योगेंद्र यादव, संदीप, अभिलाष खांडेकर, फैसल खान, भरत व मधु झुनझुनवाला, संजय पारीख, पीएस शारदा, देबादित्यो सिन्हा, विजय व वर्षा वर्मा जैसे लगभग 100 प्रतिष्ठित समाजकर्मी व स्वयं 72 वर्षीय स्वामी शिवानंद तमाम सरकारी अडंगो के बावजूद इंडिया गेट से पैदल चलकर जंतर-मंतर पहुंचे। जहां उन्होंने धरने पर सरकार से इस मुद्दे पर गंभीरता से बात करके तुरंत निर्णय लेने की मांग की। देशभर में प्रदर्शन व समर्थन में पत्र भी भेजे जा रहे हैं।

गंगा के नाम पर आई सरकार के पास पूरा मौका था कि वह गंगा को उसका सच्चा नैसर्गिक रूप दे पाती किंतु सरकार ने गंगा का व्यवसायिक दोहन किया और अर्ध कुंभ में पूरा वोट बटोरा।