बैंकों के नॉन परफारमिंग एसेटस (एनपीए) क्या हंै, यह समझ पाना या तय कर पाना काफी कठिन है। आमतौर पर बैंक अपने दिए कर्जों को लौटाने की सीमावधियां बढ़ा दिए करते हैं। इसे तकनीकी भाषा में ‘रोल ओवरÓ कहा जाता है। यह लगातार बढ़ रहा एनपीए देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर रहा है।
एनपीए की समस्या पहले के मुकाबले अब कहीं ज्य़ादा गंभीर है। इसका बड़ा कारण यह है कि अब बैंकों का चरित्र और प्रवृति बदल गई है। देश में उदारीकरण से पहले आमतौर पर वाणिज्यिक बैंक हुआ करते थे, जो ग्राहकों की संपत्ति और दूसरे स्त्रोतों का आकलन करने के बाद उन्हें कजऱ् दिया करते थे। वे यह बात की निश्चित करते थे कि यदि कजऱ् वापिस नहीं हुआ तो उसे कैसे वसूला जाएगा। वे कजऱ् छोटी समय अवधि के लिए होते थे। उन कजऱ्ों का असली मकसद काम-काज चलने के लिए ‘वर्किग कैपिटलÓ के रूप में देना था। लंबे समय के जो कजऱ् थे वे दूसरे वित्तीय संस्थानों की मार्फत दिए जाते थे। इन का काम कम ब्याज पर कजऱ् देना था ताकि निवेश को प्रोत्साहन दिया जा सके। इस व्यवस्था में ये ‘इंवेटरियांÓ बैंकों के लिए ज़मानत का काम करती थीं। कजऱ् वापिस न होने की सूरत में बैंक इन ‘इंवेटरियांÓ को अपने काबू में ले सकते थे। हालांकि यह तरीका भी पूरी तरह सही नहीं था, इसमें भी खामियां थी। कई बार लोग एक ही’इंवेटरीÓ पर अलग स्त्रोतों से कजऱ् ले लिया करते थे। इनकी कीमत का सही आकलन नहीं हो पाता था। फिर भी डूबे कजऱ्ों की गिनती काफी कम और सीमित थी।
पर समय के साथ हालात बदले और उदारीकरण ने पूरी व्यवस्था को ही बदल डाला। उसने वित्तीय संस्थानों के महत्व को खत्म कर दिया। कई वित्तीय संस्थान बैंकों में परिवर्तित कर दिए गए। इसके साथ ही अल्प अवधि के कजऱ् देने वाले वाणिज्यिक बैंक लंबी अवधि के कजऱ् देने लगे। यहीं से असली समस्या शुरू हुई। डूबने वाले कजऱ्ों के मुख्य रूप से तीन कारण है – पहला तो यही कि जो प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनी उसके हिसाब से ज़मीनी स्तर पर काम न हो सका और सारे अनुमान मात्र कागज़ी हो गए। दूसरा यह कि निवेश परियोजना शुरू से ही गैरवहनीय हो पर सरकार के दवाब में बैंकों ने उस पर कजऱ् दे दिया या फिर बैंक खुद ही उसका आकलन ठीक से न कर पाए और उसकी ऊपरी चकाचौंध में बह जाए। ऐसे मामले में जब परियोजना की बुनियादी गैरवहनीयता आने लगती है तो यह कजऱ् डुबाऊ कजऱ् बन जाता है। तीसरा जब कजऱ् लेने वाला ग्राहक जो कि आमतौर कोई बड़ा पैसे वाला संस्थान होता है अपने असर और संबंधों का दवाब डाल कर कजऱ् लेता है, जिसे वापिस करने की या पूरी तरह लौटने की उसकी मंशा ही नहीं होती। एक प्रकार से यह धोखाधड़ी का ही मामला होता है। जाहिर है ऐसी धोखाधड़ी का शिकार अधिकतर सरकारी बैंक ही होते है क्योंकि राजनीति का सबसे ज्य़ादा दवाब उन्हीं पर पड़ता है। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि ऐसे बैंकों का निजीकरण किया जाए, बल्कि इसका अर्थ यह है कि ऐसे बैंकों के कामकाज पर जनतंत्रिक नियंत्रण रखा जाए ताकि इन्हें सरकार हस्तक्षेप से मुक्त रखा जा सके।
जिस समय बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था उस समय उसका एक लक्ष्य यह भी था कि कृषि क्षेत्र को संस्थागत कजऱ् मुहैया कराया जाए। बैंक राष्ट्रीयकरण की शुरूआत से ही पूंजीवादी व्यवस्था और इजारेदारी के समर्थकों ने यह छवि बनाने की कोशिश की कि एनपीए का मुख्य कारण किसानों का कजऱ् न चुका पाना है। लेकिन इन आरोप का खोखलापन उन सूचियों से जाहिर हो जाता है जो समय-समय पर बैंकों के कर्मचारी जारी करते रहे हैं। इन सूचियों के अनुसार कार्पोरेट ग्राहक सबसे बड़े कजऱ्दार हैं। इस कारण किसानों की कजऱ् लौटने की विफलता बैंकिग व्यवस्था के लिए कोई गंभीर मुद्दा नहीं है। एनपीए कितना है इसका अनुमान लगाना बेहद कठिन है, पर एक आकलन के अनुसार इस समय यह आठ लाख करोड़
रु पए के आसपास होना चाहिए। इसमें बड़े घरानों का हिस्सा 75 फीसद से भी ज्य़ादा हो सकता है। इस तरह, इन अनुमानों से यह नतीजा निकलता है कि बंैकों के कजऱ्ों का 56.25 फीसद बड़े घरानों के पास है। सरकार के मौजूदा सारे कदम बड़े घरानों के हक में जा रहे हैं।
यह सरकार कालेधन और दरबारी पूंजीवाद के खिलाफ होने का दम भरती है लेकिन ऐसा है नहीं। यदि यह वास्तव में ऐसी होती तो सबसे पहले उन लोगों की सूची जारी करती तो ‘डिफाल्टरÓ हैं। दूसरे, बड़े ‘डिफाल्टरोंÓ की इस बात की जांच होती कि क्या ये लोग असल में डिफाल्टर है या जानबूझ कर पैसा लौटाना नहीं चाहते। यदि इन ‘डिफाल्टरोंÓ पर जांच हो तो बैंकों की जान बच सकती है।