झारखण्ड की ग़रीब बच्ची ने अपना और लाखों लोगों का दर्द बयाँ करके सरकार और प्रशासन को दिखाया आईना
इन दिनों एक बच्ची का रोज़ी-रोटी की परेशानी को बयान करने वाला वीडियो पूरे देश में वायरल हो रहा है। ‘हम क्या प्रधानमंत्री की बेटी हैं, जो कष्ट नहीं होगा। हम ढीबरा चुनकर अपना पेट पालते और पढ़ते-लिखते हैं। क्या केवल एसपी-डीसी के बच्चे ही पढ़-लिखकर अफ़सर बनेंगे? और मज़दूर के बच्चे अनपढ़ रहकर अपना भविष्य ख़राब करेंगे?’ -ये चंद वाक्य छठी कक्षा की एक ग़रीब बच्ची के हैं, जो अभ्रक के अवशेष बीनकर अपने परिवार के भरण-पोषण में मदद करती है।
इस नौ वर्षीय बच्ची का नाम शमा परवीन है। वह झारखण्ड के कोडरमा ज़िले के ढोढ़ाकोला पंचायत के ढोढ़ाकोला गाँव की रहने वाली है। पिता का नाम कलीम अंसारी है। परिवार ढिबरा (अभ्रक से निकले स्क्रैप) चुनकर भरण-पोषण करता है। शमा की तीन बहनें हैं, जबकि एक भाई है। बड़ी बहन चाँदनी परवीन है। वह 10वीं कक्षा में पढ़ती है। दूसरी बहन रौशन परवीन है, जो सातवीं की छात्रा है। जबकि शमा परवीन और उजाला परवीन जुड़वाँ हैं। दोनों बग़ल के सरकारी स्कूल की छठी कक्षा में पढ़ती हैं। छोटे भाई का नाम रेहान है। बच्ची के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं; लेकिन पढ़ाई का महत्त्व जानते हैं। अपने बच्चों को मज़दूरी करके पढ़ाते हैं। शमा परवीन पढ़ाई में अच्छी है। वह इन दिनों झारखण्ड के कोडरमा ज़िले में चले ढिबरा आन्दोलन की हिस्सा बनी हुई थी। इस आन्दोलन को कवर करने जब मीडिया यहाँ पहुँची, तो शमा परवीन ने बेबाक़ी से उसके सामने अपनी बात रखी। उसने पूरे तंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया।
शमा परवीन की उम्र में आमतौर पर बच्चे खेल-कूद में व्यस्त रहते हैं। उन्हें प्रशासनिक महकमों का ज्ञान भी सही तरीक़े से नहीं होता। लेकिन शमा के साथ ऐसा नहीं है। लिहाज़ा बातचीत में उसका ग़ुस्सा फूटता है। शमा परवीन से जब पूछा गया कि क्या ज़िले के डीसी (उपायुक्त) ने बातचीत के लिए नहीं बुलाया है? तो उसका जवाब था- ‘अरे, डीसी क्या बुलाएँगे? वह तो बग़ल से गुज़र गये। हम लोग चिल्लाते रह गये। उन्होंने गाड़ी का शीशा उतारकर देखा भी नहीं। ढिबरा कारोबार पर रोक के कारण हमारे जैसे कई बच्चों की पढ़ाई छूट गयी है। परिवार के सामने भूखों मरने की स्थिति पैदा हो गयी है। मेरे पापा पर झूठा केस किया गया है। मेरे अंकल पर झूठा केस किया गया है। मेरे पापा ने एसपी को दो बार आवेदन दिया है; लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। यदि यह केस नहीं उठाया गया, तो हम लोग भी रोड जाम करेंगे और गिरफ़्तारी देंगे।’
छठी कक्षा में पढऩे वाली इस बच्ची की पीड़ा पूरे झारखण्ड के लिए एक थप्पड़ के समान है। उसने एक ऐसी हक़ीक़त बयाँ की है, जो झारखण्ड के ग़रीबों के साथ होता रहा है।
परवीन का अकेले का दर्द नहीं
मासूम बच्ची शमा परवीन ने कैमरे के सामने जो कुछ कहा, वह उसका अकेले का दर्द नहीं है। इस बच्ची ने न केवल सरकारी तंत्र को आईना दिखाया है, बल्कि उसकी बातों से साफ़ हो जाता है कि वातानुकूलित (एसी) कमरों में बैठकर नीतियाँ बनाने से झारखण्ड कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। शमा परवीन तो ढिबरा कारोबार पर लगायी गयी रोक के ख़िलाफ़ कोडरमा में चल रहे आन्दोलन की एक प्रतीक मात्र थी। उसकी बातें अंतर्मन तक को झकझोरती हैं। इस लडक़ी की बातों ने समाज के उस वर्ग की पीड़ा को सामने रखा है, जो दो जून की रोटी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। वह वर्ग न भीख माँगकर गुजारा करना चाहता है, न हेराफेरी और अपराध में लिप्त होना चाहता है। इस वर्ग को सरकारी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। यह वर्ग अपनी मेहनत से अपना और परिवार का गुज़ारा करना चाहता है, ताकि उसके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो सके। लेकिन सरकारी अधिकारियों को यही वर्ग सबसे अधिक चुभता है। इसलिए अकसर प्रशासनिक प्रताडऩा का शिकार यही वर्ग बनता है; जैसे शमा परवीन के पिता और चाचा बने हैं।
क्या है ढिबरा?
ढिबरा अभ्रक का अवशेष (स्क्रैप) है। पहले जब इस इलाक़े में लगभग 600 अभ्रक खदानें थीं, तो अभ्रक निकालने के बाद स्क्रैप को फेंक दिया जाता था। अब उसी से अभ्रक के छोटे टुकड़े चुनकर बेचे जा रहे हैं। इसे ढिबरा कहा जाता है। इसे चुनकर अभ्रक फैक्ट्री में बेचा जाता है। जहाँ परिष्कृत कर इसे पाउडर बनाया जाता है। वहाँ से देश-विदेश तक कारोबार चलता है।
रोज़ी-रोटी का सवाल
झारखण्ड का कोडरमा ज़िला ही नहीं, बल्कि कोडरमा संसदीय क्षेत्र के कोडरमा और गिरिडीह इलाक़े की एक बड़ी आबादी ढिबरा चुनकर गुज़र-बसर करती है। ढिबरा चुनने वाले मज़दूरों को भले ही बहुत कम राशि मिलती हो; लेकिन यह कारोबार लाखों का है। पिछले लगभग छ: महीने से प्रशासन ने ढिबरा यानी अभ्रक स्क्रैप के चुनने, इसके परिवहन और बेचने पर रोक लगा दी थी, जिससे ज़िले के जंगली इलाकों में बसे दर्जनों गाँवों के हज़ारों परिवार ढिबरा चुनकर बेच नहीं पा रहे हैं। कई गाँवों में रोज़ी-रोटी का यही एकमात्र ज़रिया है। कई गाँवों में दो जून की रोटी के लिए मज़दूर ढिबरा पर आश्रित हैं। क्षेत्र के अधिकांश लोग ढिबरा चुनकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। बच्चों को पढ़ाते हैं। इस इलाक़े में साल में एक बार धान की खेती होने के बाद लोग कमाने के लिए दूसरे प्रदेश चले जाते हैं या फिर ढिबरा पर आश्रित रहते हैं। उनके समक्ष रोज़ी-रोटी के लाले पड़े हैं। इस व्यवसाय पर रोक से लगभग दो लाख की आबादी प्रभावित होगी।
मजबूरी में आन्दोलन
प्रशासन ने ढिबरा चुनने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके उन पर कर्इ मुक़दमे कर दिये हैं। इसके विरोध में आन्दोलन शुरू हुआ। ढिबरा मज़दूर परिवार के साथ धरने पर बैठ गये। ढिबरा स्क्रैप मज़दूर संघ के ज़िलाध्यक्ष कृष्णा सिंह घटवार ने कहा कि क्षेत्र के ग्रामीण और जंगली इलाक़ों में रहने वाले हज़ारों लोगों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन जंगलों से ढिबरा चुना जाना रहा है। इस पर रोक लगा दिये जाने के कारण ग्रामीणों के समक्ष रोज़ी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी। काम के अभाव में यहाँ के लोग दूसरी जगहों पर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। संघ ने प्रशासन से ढिबरा चुनने वालों पर की जा रही कार्रवाई को बन्द करने की माँग की थी; मगर इसे अनसुना कर दिया गया।
विधानसभा में उठा मामला
झारखण्ड विधानसभा का बजट सत्र चल रहा, जो 25 मार्च को समाप्त हुआ। शमा परवीन का वीडियो वायरल होने के बाद यह मामला विधानसभा सदन में गूँजा। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आश्वासन दिया कि ढिबरा मज़दूरों को लेकर सरकार गम्भीर है। व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है। ढिबरा आन्दोलन फ़िलहाल शान्त हो गया है। ढिबरा मज़दूरों को काम करने की अनुमति मिल गयी है। लेकिन शमा परवीन ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद गम्भीर हैं। एक ग़रीब बच्ची ने जिस तरह से व्यवस्था पर सवाल खड़े किये हैं, उन पर सरकार को सोचने और बेहतरी की दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है। केवल ढिबरा चुनने की अनुमति देकर आन्दोलन शान्त करना ही समस्या का हल नहीं है। शमा परवीन बातचीत में कहती हैं कि वह आईएएस बनना चाहती हैं। ग़रीबों के लिए कुछ करना चाहती हैं। उस बच्ची की तरह ही कई तेज़तर्रार अन्य बच्चियाँ भी हैं। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को ध्यान से देखकर उस पर सोचने की ज़रूरत है। सरकार और प्रशासन को ऐसी बच्चियों के भविष्य के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है, जिससे अभ्रक की चमक की तरह इस तरह की बच्चियों का भविष्य चमक सके।