इंसान का शरीर कितना भी ताकतवर हो, लेकिन अगर उसमें कुछ करने की इच्छा शक्ति नहीं है, तो वह किसी दिव्यांग के जैसा ही है। वहीं अगर किसी का शरीर या कोई अंग कमज़ोर हो; लेकिन कुछ कर गुज़रने का जुनून हो, तो वह इंसान ऐसे-ऐसे काम कर सकता है, जो स्वस्थ लोग भी नहीं कर सकते। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन विलियम हॉङ्क्षकग के बारे में तो आपने सुना ही होगा। 8 जनवरी, 1942 में इंग्लैंड में जन्मे स्टीफन विलियम हॉङ्क्षकग का पूरा शरीर ही निष्क्रिय था। लेकिन उन्होंने वह कर दिखाया, जो आज तक कोई वैज्ञानिक नहीं कर सका। अपने मन की बात दूसरों को बताने के लिए कम्प्यूटर और दूसरे उपकरणों में कई नयी खोजें की, जिससे वह लोगों के सवाल सुनकर उनके उत्तर देते थे और अपनी इच्छाओं को प्रकट करते थे। क्योंकि उनकी मांसपेशियाँ काम नहीं करती थीं, इसलिए उन्होंने अपने चश्मे पर एक सेंसर जोडक़र उसे कम्प्यूटर से जोड़ दिया। यही नहीं शारीरिक तौर पर पूरी तरह अक्षम होने के बावजूद उन्होंने 12 मानद डिग्रियाँ हासिल कीं और ब्रह्माण्ड को समझने में अनोखी भूमिका निभायी और यूनिवॢसटी ऑफ कैंब्रिज में गणित तथा सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर रहे। उन्होंने ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ नाम की अद्भुत किताब भी लिखी। 14 मार्च, 2018 में जब उनकी मृत्यु हुई, तो पूरी दुनिया ने उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की। सोचिए, अगर स्टीफन एक साधारण इंसान होते, तो उन्हें कौन याद करता? इसलिए कहा जाता है कि दिमाग अगर सही दिशा में काम करता है, तो हौसला काम करता है और आदमी बिना शारीरिक परिश्रम के या कम शारीरिक परिश्रम करके भी दुनिया पर राज कर सकता है।
मध्य प्रदेश के खरगोन ज़िले में जन्मे दिव्यांग आयुष अद्भुत पेंटिंग करते हैं। वह यह कलाकारी हाथों से नहीं, बल्कि पैरों से करते हैं। आयुष जन्म से ही न तो बोल सकते हैं, न उनके हाथ-पैर काम करते हैं। उनकी ज़िन्दगी शुरू से ही व्हील चेयर पर टिकी हुई है। लेकिन उन्होंने अपनी माँ से प्रेरणा लेकर पैरों से पेंटिंग बनाने की प्रैक्टिस शुरू की और धीरे-धीरे इतने निपुण बन गये कि उन्होंने जब अमिताभ बच्चन की पेंटिंग पैरों से बनाकर ट्विट की, तो अमिताभ बच्चन उनसे मिलने को बेचैन हो गये। अपने खर्च पर आयुष और उसके पूरे परिवार को मुम्बई बुला लिया। यह बात कौन बनेगा करोड़पति के 11वें सीजन की है। उस समय अमिताभ बच्चन ने आयुष से पूछा कि उनकी इच्छा क्या है? पीयूष ने अमिताभ बच्चन के साथ हॉट शीट पर बैठने की अपनी इच्छा इशारों से अपनी माँ से ज़ाहिर की। तब अमिताभ बच्चन ने उनसे कौन बनेगा करोड़पति के 12वें यानी इसी सीजन में अतिथि बनाने का वादा किया। इस समय कौन बनेगा करोड़पति का 12वाँ सीजन शुरू हो चुका है।
जयपुर के रोशन नागर के दोनों हाथ नहीं हैं। दरअसल वह पैदा तो सही-सलामत हुए थे, लेकिन बचपन में एक बार पतंग लूटने के चक्कर में उनको बिल्ली का ऐसा झटका लगा कि उनके बचने की उम्मीद ही नहीं रही थी। ऐसे में डॉक्टरों ने उन्हें बचा तो लिया, मगर उनके दोनों हाथ और एक पैर को काटना पड़ा। लगभग एक साल तक इलाज के बाद जब वह एक नकली पैर लगवाने के बाद चलने तो लगे, मगर अब उनकी ज़िन्दगी में अंधकार के सिवाय कुछ नहीं था। मगर उन्होंने हार नहीं मानी, वह जैसे ही ठीक हुए उन्होंने आगे की पढ़ाई की सोची और मुड्ढे तक कटे हाथ में पेन बँधवाकर लिखने की प्रैक्टिस शुरू की। उन दिनों उन्हें हाथ में विकट दर्द होता था, मगर उन्होंने प्रैक्टिस जारी रखी और कटे हाथ से तीन घंटे लगातार लिखने की आदत डाली। इसके बाद उन्होंने आठवीं से लेकर ग्रेजुएशन की पढ़ाई तक की, वह भी फस्र्ट डिवीजन से और बिना किसी की मदद के। फिर उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई किया। मगर योग्यता होते हुए भी उन्हें नौकरी नहीं मिली। उनकी िकस्मत ने उन्हें यहीं तक ठोकर नहीं मारी, बल्कि इसके बाद भी अनेक परेशानियाँ उनके आड़े रहीं। क्योंकि उन्हें किसी ने प्राइवेट नौकरी भी नहीं दी। इसका कारण यह था कि वह कम्प्यूटर पर काम तो कर सकते थे, पर बहुत-से निजी काम ऐसे होते हैं, जो व्यक्ति को स्वयं करने होते हैं और रोशन उन कामों को करने में सक्षम नहीं थे। तब उन्होंने इलैक्ट्रिक हाथ लगवाने की सोची, पर उनके पास इतने पैसे नहीं थे। कहते हैं कि हिम्मते मर्दा मददे खुदा और वही हुआ उनके इस हौंसले को देखते हुए जयपुर के ही एनजीओ के मालिक ने रोशन की मदद की और उन्हें इलैक्ट्रिक हाथ लगवाया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा और अपना काम करने की मन में ठानी। आज रोशन अपना कोचिंग सेंटर चलाते हैं और अच्छी ज़िन्दगी जीने के लायक कमाते हैं। रोशन कहते हैं कि उन्होंने जीवन में एक ही बात सीखी है कि ज़िन्दगी उन्हीं के साथ खेलती है, जो अच्छे खिलाड़ी होते हैं। मैदान में हारे हुए इंसान को तो कोई भी देखना नहीं चाहता। वह कहते हैं कि जब आपके साथ कुछ बुरा होता, तो यह यकीन मानिए कि आपके साथ कुछ अच्छा होने वाला है।
मध्य प्रदेश के जबलपुर ज़िले की कुन्डम तहसील के छोटे-से गाँव रमपुरी में 1 जुलाई, 1986 को जन्मे डॉ. अजीत मार्को जन्म से ही दिव्यांग हैं। जब वह पैदा हुए, तो न तो उनके बायें पैर का अँगूठा था और न दायाँ पैर पूरा था। उनका दायाँ पैर घुटने के नीचे विकसित ही नहीं हुआ था। इसके कारण अजीत का बचपन बहुत कष्ट में बीता। लेकिन उन्होंने कभी इसे अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया। एक लकड़ी के सहारे चलना सीखा और उसी लकड़ी को अपना दूसरा पैर मानकर ज़िन्दगी का सफर तय करते रहे। अजीत के लिए पाँचवीं तक तो पढऩे में कोई मुश्किल नहीं हुई, क्योंकि स्कूल गाँव में ही था। लेकिन पाँचवीं के बाद उन्हें पहाड़ी और जंगली रास्तों से होकर 7 किलोमीटर दूर पढऩे जाना था। अजीत ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने पैदल ही एक लकड़ी के सहारे हर रोज़ इस सफर को तय किया और सातवीं तक यहीं पढ़े। इसके बाद वह अपने पिता के साथ शहर (जबलपुर) चले गये और यहीं आगे की शिक्षा प्राप्त की। यह वह समय था, जब जबलपुर में अजीत के पिता सरकारी अस्पताल में ओटी अटेंडेंट की नौकरी पर लगे थे। एक छोटी-सी तनख्वाह में परिवार को पालना तथा तीन बच्चों पढ़ाना आसान नहीं था; लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी और अपने सभी बच्चों को उच्चस्तरीय शिक्षा और अच्छे संस्कार दिये। अजीत ने 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद रेडिएशन ओंकोलोजी एमबीबीएस और एमडी की डिग्री हासिल की। एमबीबीएस में प्रवेश लेने के लिए अजीत के पिता ने सारी जमा पूँजी निकाल ली और कुछ रुपये अपने परिचितों से उधार लिए। स्थिति यह थी कि अजीत के दाखिले की व्यवस्था के बाद उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि खुद जाकर अजीत को हॉस्टल तक छोड़ आयें या अजीत को रेलवे स्टेशन तक किराये से भेज सकें। अजीत अपनी ट्राईसाइकिल पर अपना सामान बाँधकर रेलवे स्टेशन पहुँचे और वहाँ से अकेले ही हॉस्टल गये। आज वही अजीत मार्को डॉक्टर अजीत मार्को हैं और लोगों की सेवा कर रहे हैं। डॉक्टर अजीत की इस प्रेरणा के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि उन्होंने अपने पिता की हिम्मत, मेहनत और सादा ज़िन्दगी से बहुत कुछ सीखा है। डॉक्टर बनने का खयाल उन्हें तब आया जब वह अपने पिता के साथ सरकारी अस्पताल के क्वार्टर में रहते थे और डॉक्टरों को देखते थे। इसके अलावा गाँवों में लोगों के पास इलाज की समुचित व्यवस्था न होने से भी वह परेशान थे। उनका कहना है कि कई गाँवों में लोगों को अभी तक बीमारी के इलाज कराने के लिए समुचित व्यवस्थाएँ नहीं मिल सकी हैं और लोग आज भी अनेक बीमारियों का इलाज झाड़-फूँक समझते हैं। इसलिए उन्होंने गाँव के लोगों की सेवा करने का निश्चय किया है और वह आज रेडियोथेरेपी विभाग श्याम शाह मेडिकल कॉलेज एवं संजय गाँधी स्मृति चिकित्सालय के रीवा (मध्य प्रदेश) केंद्र में सहायक प्राध्यापक हैं तथा जितनी सम्भव हो पाती है, एक प्राइवेट समाजसेवी संगठन के ज़रिये बीमार ग्रामीणों की सेवा करते हैं। उन्हें झाड़-फूँक के भ्रम से निकालकर किसी बीमारी के इलाज का सही रास्ता दिखाते हैं।
मध्य प्रदेश के ही शहडोल ज़िले के डॉ. विपिन पाठक हैं। विपिन पाठक का जन्म 22 जून, 1987 को शहडोल के एक टाँव नामक गाँव में हुआ। विपिन के दोनों पैर बचपन से ही पोलियोग्रस्त हैं। ऐसे में बचपन से ही चलने-फिरने में दिक्कतें रहीं। विपिन की प्राथमिक शिक्षा देवलौद से शुरू हुई। इसके बाद उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने श्याम शाह चिकित्सा महाविद्यालय, रीवा एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की और आज वह ज़िला चिकित्सालय, रीवा में मेडिसिन विभाग में चिकित्सा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। डॉ. विपिन पाठक कहते हैं कि उन्होंने दिव्यांगता को कभी भी अपनी कमी या कमज़ोरी नहीं माना। क्योंकि उनके माता-पिता ने उनके जीवन में एक आदर्श की भूमिका निभायी है। उनके एक डॉ. बनने के पीछे उनके माता-पिता, मित्रों और शिक्षकों के मार्गदर्शन की बड़ी भूमिका रही है। अब मानव जीवन की सेवा ही मेरा लक्ष्य है। जीवन में संघर्ष व मेहनत के द्वारा यह सम्भव हो सका। इसलिए लोगों की मदद करना ही मेरा लक्ष्य है। वह कहते हैं कि जीवन में कामयाबी मिलने तक कभी भी किसी को हार नहीं माननी चाहिए। अगर आपका खुद पर विश्वास है और आप मेहनती हैं, तो सफलता अवश्य मिलेगी; फिर चाहे आप शारीरिक रूप से अक्षम हों या आॢथक रूप से।