पंजाब लोक कांग्रेेस के भाजपा में विलय से मौज़ूदा राज्य की राजनीति में किसी उलटफेर की सम्भावना नहीं है। कभी कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के भाजपा में शामिल होने के कई अर्थ हैं। वह पंजाब लोक कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और भाजपा मंख भी हैं। हालाँकि कुछ माह पहले गठित अमरिंदर की इस पार्टी का कोई वुजूद नहीं है। लिहाज़ा यह कहना कि विलय से भाजपा को मज़बूती मिलेगी, ठीक नहीं होगा। कैप्टन के साथ दो पूर्व सांसद और आधा दर्ज़न पूर्व विधायक भी भाजपाई हो गये हैं। इससे पहले कांग्रेस के चार पूर्व मंत्री भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। निकट भविष्य में कई और वरिष्ठ कांग्रेसी भी कैप्टन की वजह से भाजपा में आ सकते हैं। कैप्टन की पत्नी और पटियाला से कांग्रेस की सांसद परणीत कौर अभी पार्टी में बनी हुई हैं। वे कब तक कांग्रेस में बनी रह सकती हैं। देर-सबेर उन्हें भी हाथ छोडक़र कमल थामना ही होगा।
दरअसल कांग्रेस से भाजपा में आये पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक और वरिष्ठ नेता भाजपा की विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं, बल्कि अपनी उपेक्षा और सत्ता से दूरी के चलते अपने आका से भविष्य की उम्मीद लेकर आये हैं। सवाल यह है कि क्या वे पार्टी की विचारधारा को भी अपना सकेंगे? अगर ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो उनके लिए कम-से-कम भाजपा में ज़्यादा अवसर नहीं होंगे। कुछेक को छोडक़र कोई जनाधार वाला नेता नहीं है। कांग्रेस से भाजपा में थोक में शामिल हुए नेताओं में ज़्यादातर कैप्टन के समर्थक हैं। कांग्रेस में कैप्टन के बिना उनका कोई महत्त्व नहीं था। पार्टी में उनकी उपेक्षा होती इससे बेहतर क्यों नहीं पार्टी ही बदल ली जाए?
निकट भविष्य में भाजपा राज्य में अपने आधार को मज़बूत कर सकती है और शीर्ष नेतृत्व भी यही चाहता है। राज्य से 13 लोकसभा की सीटें हैं और भाजपा छ: से ज़्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही है। फ़िलहाल यहाँ से सन्नी देओल गुरदासपुर से और सोमप्रकाश होशियारपुर से सांसद हैं। विधानसभा चुनाव में जिस तरह से आम आदमी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आयी है, उस लक्ष्य को पाना आसान भी नहीं है। लेकिन संगरूर लोकसभा उप चुनाव में आम आदमी पार्टी प्रत्याशी की हार और अकाली सिमरनजीत सिंह मान की जीत भाजपा को कुछ उम्मीद बँधाती है। इन्हीं सब बातों को देखते हुए भाजपा पंजाब में अपने संगठन को मज़बूत और सशक्त नेतृत्व जैसे पहुलओं को ध्यान में रख रही है।
संगठनात्मक रूप से मज़बूत मानी जाने वाली भाजपा के पास पंजाब में कोई जनाधार वाला नेता नहीं है। कैप्टन यह कमी पूरी कर सकते हैं। सितंबर, 2021 में कांग्रेस आलाकमान ने कैप्टन को जिस तरह से अपमानित कर मुख्यमंत्री नहीं रहने दिया, वह टीस उनके मन में रही। कैप्टन को कांग्रेस में नहीं; लेकिन राज्य का राजनीति में सक्रिय रहना था। लिहाज़ा उन्हें कोई विकल्प तलाशना ही था। उन्हें भाजपा में ही कुछ सम्भावना दिखी। लिहाज़ा उनकी शीर्ष नेतृत्व से निकटता बढ़ी। विधानसभा चुनाव भी कैप्टन की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर लड़ा। तभी से कयास लगने लगे थे कि देर-सबेर कैप्टन भाजपा में जाएँगे। लेकिन उनसे पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ भाजपा में शामिल हो गये।
कभी अकाली दल से राजनीति में आये कट्टर कांग्रेसी कैप्टन में नेतृत्व की क्षमता ज़रूर है; लेकिन उम्र के जिस दौर से वह गुज़र रहे हैं, उसमें उनकी सक्रियता ही आड़े आएगी। ऐसे में वह भाजपा के लिए कितने कारगर साबित होंगे, यह वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों से स्पष्ट होगा। चूँकि विधानसभा चुनाव तो इसी वर्ष हुए हैं और कैप्टन और उनकी पार्टी का प्रदर्शन शून्य रहा है। पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस से अपमानित अपनी रणनीति से सन् 2002 और सन् 2017 में कांग्रेस को सत्ता में लाने का श्रेय उन्हें ही है। क्या कुछ वैसा करिश्मा वह वर्ष 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए कर सकते हैं?
कैप्टन को भाजपा में अहम ज़िम्मेदारी ज़रूर दी जाएगी। वह केंद्रीय राजनीति में जाने के इच्छुक नहीं हैं, इसलिए उन्हें प्रदेश स्तर पर अहम ज़िम्मेदारी मिल सकती है। उनके अलावा कभी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे सुनील जाखड़ की योग्यता को देखते हुए ज़िम्मेदारी दी जाएगी। जाखड़ और कैप्टन में तालमेल अच्छा रहा है, लिहाज़ा वह पार्टी को मज़बूती देंगे। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा शीर्ष नेतृत्व पंजाब में पार्टी को आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले में खड़ा करना चाहता है। पूर्व मंत्रियों, विधायकों और वरिष्ठ नेताओं के पाला बदल से कांग्रेस कमज़ोर हुई है, भाजपा इसी का फ़ायदा उठाना चाहती है। दो सांसद और दो विधायकों वाली भाजपा लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। अगर ऐसा हो सका, तो हरियाणा की तरह भाजपा पंजाब में अपने बूते ही चुनाव लड़ेगी।
फरवरी में हुए विधानसभा चुनाव से पहले शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के साथ उसका गठजोड़ रहा है। भाजपा सत्ता में भी भागीदार रही है; लेकिन बावजूद इसके पार्टी का आधार शहरों तक ही सीमित रहा है। आज भी पंजाब में भाजपा का जनाधार शहरों तक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में पार्टी कहीं नहीं दिखती। तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शिअद ने एनडीए से नाता तोड़ लिया था। कभी हरियाणा में भी भाजपा सहयोगी दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ती रही है; लेकिन अब वह अपने दम पर मैदान में उतरती है। क्या पता शीर्ष नेतृत्व पंजाब में भी हरियाणा जैसे पहलू को देख रही हो; लेकिन इसके लिए ज़मीनी स्तर पर बहुत मेहनत करने की ज़रूरत है।
पंजाब में कभी कांग्रेस और अकाली दल ही आमने-सामने रहते थे। फिर मुक़ाबले में भाजपा को बल मिला और मामला त्रिकोणीय हो गया। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले में आने से अब मुक़ाबला त्रिकोणीय नहीं, बल्कि चतुर्कोणीय में बदल गया, जो आगे और दिलचस्प होगा। इस समय प्रदेश में सबसे मज़बूत स्थिति में आम आदमी पार्टी है। अब सरकार के कामकाज पर उसका भविष्य निर्भर करता है। पहला झटका उसे संगरूर उप चुनाव में देखने को मिल चुका है। भगवंत मान के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी संगरूर लोकसभा चुनाव सीट ख़ाली हो गयी थी। आम आदमी पार्टी को जीत में कोई संशय नहीं लग रह था; लेकिन नतीजा अप्रत्याशित रहा और यहाँ से अकाली दल मान (अमृतसर) के सिमरनजीत सिंह मान विजयी रहे।
विधानसभा चुनाव के बाद आप के लिए यह सबसे बड़ा झटका रहा। वैसे भी सरकार की लगभग छ: माह के शासनकाल में भगवंत मान सरकार की कोई विशेष उपलब्धि नहीं दिख रही है। पंजाब में आप के विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त का मामला भी चल रहा है; लेकिन ऐसे आरोपों में ज़्यादा दम नहीं दिखता। 117 में से 92 विधायक आम आदमी पार्टी के हैं। कितने लोगों की ख़रीद-फ़रोख़्त की जा सकती है? इससे भाजपा को क्या हासिल हो जाएगा? उसके पास तो दो विधायक और कांग्रेस के पास 18 जबकि बहुमत के लिए 59 का जादुई आँकड़ा चाहिए। हाँ, यह आम आदमी पार्टी में फूट पैदा करने और सरकार को अस्थिर करने का कोई प्रयास ज़रूर हो सकता है।
पंजाब में भाजपा को पाँव जमाने के लिए गाँवों तक पहुँचना होगा, इसके बिन नेतृत्व चाहे जो करे, अच्छे नतीजे देना मुश्किल का काम है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस से आये इन नेताओं की वजह से पार्टी की पंजाब में पैठ और आधार मज़बूत होने और लोकसभा चुनाव में आधी से ज़्यादा सीटों पर क़ाबिज़ होने की बात कहीं सपना न बनकर रह जाए। फ़िलहाल भाजपा का विधानसभा चुनाव में वोट फ़ीसदी केवल 6.6 फ़ीसदी है, जबकि इसके मुक़ाबले में आम आदमी पार्टी का 42.01 फ़ीसदी, कांग्रेस का 22.98 फ़ीसदी और शिरोमणि अकाली दल का 18.38 फ़ीसदी है। भाजपा को कमोबेश पंजाब में शून्य से ही शुरुआत करनी है और इसके लिए ज़ोरदार नेतृत्व की ज़रूरत है। पंजाब में अब भी भाजपा को शहरी पार्टी माना जाता है, जबकि राज्य में वही पार्टी सत्ता हासिल करती है, जिसका गाँवों में भरपूर आधार होता है। अभी लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल से ज़्यादा का समय है। इस दौरान पार्टी संगठन में कैप्टन और उनके समर्थकों को क्या और कैसी ज़िम्मेदारी मिलती है, यह देखने की बात होगी।
अगर कैप्टन और सुनील जाखड़ के अलावा कई पूर्व मंत्रियों को संगठन में कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दी जाती है, तो इससे पार्टी को अपनी जड़े जमाने में मदद मिलेगी। वर्ष 2024 लोकसभा चुनाव के नतीजे बता देंगे कि कैप्टन और उनके समर्थकों की बदौलत पंजाब में भाजपा ने अपना आधर कितना मज़बूत किया है। जब जब कांग्रेस में कैप्टन को फ्री हैंड मिला है, उन्होंने अच्छे नतीजे दिखाये हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह तो कैप्टन समेत थोक में आये कांग्रेसियों की वजह से पार्टी को भविष्य में मज़बूत होता देख रहे हैं।