परिवार से छूट गए बच्चों, युवाओं और महिलाओं के लिए देश भर में आश्रय स्थलों की नियमित जांच पड़ताल ज़रूरी है। केेंद्र सरकार ने बिहार में मुजफ्फरपुर और उत्तर प्रदेश में देवरिमा के सारे अनाथालय, मूक बहरे और दृष्टि बाधित लोगों के लिए बने आश्रय स्थलों में यौनशोषण, खान-पान-परिधान में और ठीक-ठाक तरह से न रखे जाने की नियमित जांच के लिहाज से सामाजिक ऑडिट कराने के आदेश जारी कर दिए हैं। पूरे देश में लगभग नौ हज़ार से ऊपर आश्रय स्थल हैं। सांसदों को भी निर्देश हैं कि वे अपने इलाके के ऐसे स्थलों की छानबीन कर रिपोर्ट भेजें जिससे कार्रवाई हो।
केंद्र सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने मंगलवार (7 अगस्त) को यह घोषणा की। उन्होंने कहा कि नेशनल कमीशन फार प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) से कहा गया है कि अगले दो महीने में सभी बाल सुरक्षा संस्थानों की पूरी छानबीन करके रिपोर्ट भेजी जाए। यह रिपोर्ट अक्तूबर तक जमा की जानी है।
जांच के दौरान बच्चों की कुल सुरक्षा, बिस्तर, खाने-पीने परिधान की व्यवस्था पर जानकारी ली जाए और जो वहां काम करते हैं और जो संचालक प्रबंधक सेवादार हैं उनकी क्या पृष्ठभूमि रही है साथ ही बच्चों की क्या स्थिति है। उन्नीस पेज के इस पत्र को केंद्र ने सुप्रीमकोर्ट को अक्तूबर 2015 में दिया भी था जब तमिलनाडु के एक अनाथालय से बच्चों के साथ भावनात्मक, यौनिक और शारीरिक छेड़छाड़ की घटनाएं सामने आई थीं।
व्यवस्था बनाने वाले ही उन्हें तोडऩे वालों में सबसे आगे होते हैं। वे आत्मिक, शारीरिक, सामाजिक राजनीतिक लाभ पाने के लिए पूरे सिस्टम को तोड़ते हैं और सिस्टम की गड़बडिय़ों की आड़ लेते हैं। मुजफ्फपुर में आश्रय स्थल में जो कुछ बरसों से चलता रहा उसे बिहार सरकार सिस्टम का दोष बता कर नहीं बच सकती। सरकार का काम प्रदेश के सताए हुए लोगों को सुरक्षा प्रदान करना और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाने का होता है। जिसे सरकारें अमूमन नहीं करतीं।
मुजफ्फरपुर के एनजीओ सेवा संकल्प एवं विकास समिति में रह रहे लोगों के साथ जिस तरह का रख रखाव रहा और शारीरिक शोषण का सिलसिला सालों से बदस्तूर जारी रहा वह किसी भी सांस्कृतिक विरासत वाले सभ्य समाज के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। इसे सिस्टम का दोष बताने वालों को भी संदेह केदायरे में रखा जाना चाहिए।
खबरों के अनुसार इसे और चार अन्य आश्रम स्थलों को चलाने वाला कथित पत्रकार है और उसे केंद्र और राज्य से सालाना एक करोड़ रु पए की राशि मिलती थी। आश्रय स्थल की रहवासियों को जिस तरह के फटे-पुराने कपड़े पहनाए जाते थे और वहां के कर्मियों का उनके प्रति जिस तरह का व्यवहार था वह संदेह ही बढ़ाता है। इस कथित पत्रकार के मुख्यमंत्री के साथ और अन्य विभूतियों के साथ फोटो हैं। स्पष्ट है कि जिले के तत्कालीन कलेक्टर के और विभिन्न विभागों के अधिकारी उसे लाभ लेंगे और लाभान्वित होंगे।
बिहार एक ऐसा उन्नतिशील राज्य माना जाता है जहां चुनावों में महिलाओं की तादाद पुरु षों की तुलना में ज्य़ादा होती है। प्रदेश मुख्यमंत्री ने बड़े परिश्रम से खुद को विकास पुरु ष का तमगा दिलाया लेकिन इस घटना से उस पर अब सवालिया निशान लग गए हैं। जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे यानी 2005 से 2010 के दौरान उन्होंने महिला मतदाताओं को आज़ादी का स्वाद चखाया था। पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में पचास फीसद सीटें महिलाओं के लिए नियत की गईं। उन्होंने मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना का शुभारंभ किया। तमाम कमियों के बाद भी ये योजनाएं पूरे देश में चर्चा का विषय रहीं। इसी तरह उन्होंने राज्य सरकार की नौकरियों में पैंतीस फीसद रोजगार रिजर्व कराया, बालविवाह और दहेज के खिलाफ उनकी बातें सराही भी गईं।
लेकिन ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री के फैसलों को उन्हीं की नौकरशाही और सिस्टम के लोग नाकाम करने में जुटे रहते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि एक-दूसरे पर चेक-बैलेंस का अभाव। मुजफ्फरपुर में जो घटना हुई है वह अभावग्रस्त लोगों का ज्य़ादा संपन्न लोगों द्वारा शोषण है जिस पर यदि ठीक तरह से सरकारी एजेंसियां नज़र रखतीं तो शायद इतना घृणित काम मानवता के नाम पर न हो पाता।
यह वाकई अच्छा प्रयास है कि केंद्र सरकार ने पूरे देश के तमाम तरह के नौ हज़ार आश्रय स्थलों की जांच-पड़ताल कराने का आखिर फैसला लिया है। इसके लिए सुप्रीमकोर्ट को भी ज़रूरी सूचनाएं दी गई हैं। मई 2017 में सुप्रीमकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सामाजिक ऑडिट हर साल इसलिए कराया जाना चाहिए क्योंकि इससे ट्रास्पेरेंसी और जवाबदेही बनी रहती है साथ ही बाल अधिकार न्याय कानून के तहत नियमावली का पालन भी होता है या नहीं इसका पता चलता है।
देश में ज्य़ादातर आश्रय स्थलों का खर्च या तो केंद्र का महिला और बाल कल्याण विभाग उठाता है या फिर राज्य सरकारें और एनजीओ। केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी का कहना है कि सभी आश्रय स्थलों को नियमों के अनुरूप केंद्र सरकार को ही चलाना चाहिए। उन्होंने बताया कि देश में नौ हज़ार से ज्य़ादा भी आश्रय स्थल हो सकते हैं जिसके बारे में अभी जानकारी नहीं मिली है। इन सबको केंद्र के अधीन करना ज्य़ादा ज़रूरी है। हर राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए दस एकड़ की ज़मीन पर कांप्लेकस तैयार करना चाहिए तभी सुरक्षा की व्यापक व्यवस्था संभव है। उन्होंने ने यह भी बताया कि वृंदावन में विधवाओं के लिए जिस तरह व्यवस्था की गई है उसी तरह की व्यवस्था हर राज्य में की जा सकती है। नियोजन फंड का भी इसमें इस्तेमाल हो सकता हैं।
उन्होंने कहा कि इस होम्स की नियमित चैकिंग बेहद ज़रूरी है क्योंकि बच्चों और महिलाओं को खास तरह की सुरक्षा की ज़रूरत पड़ती है। होम्स का साफ-सुथरा होना भी ज़रूरी है। सभी सांसदों को कहा गया है कि वे अपने इलाके के आश्रय स्थलों के बारे में जानकारी दें। जिससे निश्चित समय में कार्रवाई हो सके।