पिछले छ:-सात साल से जिस तरह जातिवाद और धर्मवाद को लेकर हमारे देश में माहौल बन रहा है, वह चंद स्वार्थी और मज़बूत लोगों को छोडक़र सबके लिए घातक सिद्ध होगा। समस्या यह है कि लोग धर्म से जितने अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, उतने ही धर्म-परायण होने का दावा कर रहे हैं। यह भी कह सकते हैं कि धर्म को समझे बिना अपने-अपने धर्म का झण्डा लिये उन्मादी होकर घूम रहे हैं। यह आजकल हर धर्म में हो रहा है। लोग धर्म को बचाने का दम्भ भर रहे हैं और ख़ुद को धर्म के सहारे ऐसे ही छोड़ रहे हैं, जैसे तैरना और नाव चलाना नहीं जानने वाले लोग उस पर सवार होकर समुद्र पार कर रहे हों। ज़ाहिर है सब डूबेंगे। लेकिन धर्म क्या है? धर्म की परिभाषा को अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग तरीक़े से बतायी गयी है।
सनातन धर्म में कहा गया है- ‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात् जो धारण योग्य हो, वही धर्म है। सवाल यह है कि क्या कुछ भी, जिसे किसी ने धारण कर लिया हो, वह धर्म है? क्योंकि धारण तो लोग बहुत कुछ करते हैं। कोई अच्छाई धारण करता है, तो कोई बुराई धारण करता है। इसे स्पष्ट करने के लिए गौतम ऋषि ने कहा है- ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धि: स धर्म’ अर्थात् जिस काम के करने से अभ्युदय ( उत्तरोत्तर उन्नति अर्थात् कल्याणकारी उत्तरोत्तर उन्नति) और निश्लेयस (मोक्ष) की सिद्धि हो, वह धर्म है। अब सवाल यह है कि धर्म की पहचान क्या है? इसके लिए मनु कहा है-
‘धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।’
अर्थात् धृति (धैर्य), क्षमा, दम (वासनाओं पर नियन्त्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अंत:करण एवं शरीर की स्वच्छता), इन्द्रिय निग्रह: (इन्द्रियों पर विजय), धी (बुद्धिमत्ता का सदुपयोग), विद्या (अधिक-से-अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य पर चलना) और क्रोध न करना ही धर्म है। अर्थात् जो इन 10 लक्षणों का पालन करता है, वह धर्म पर है। महाभारत में कहा गया है-
‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।’
अर्थात् जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मरा हुआ धर्म कभी आपको मार डालेगा। आज सनातन धर्म को इसी धर्म के लोगों ने मार दिया है। अब तो लोग यह भी भूलते जा रहे हैं कि वे सनातनधर्मी हैं। वेदों से दूर हुए लोग अब अलग-अलग किताबों को अपना धर्मग्रन्थ समझने की भूल कर रहे हैं। उन्हें यह तक ज्ञान नहीं रहा कि वेद ही उनके धर्मग्रन्थ हैं। इस धर्म के अधिकांश लोग अब स्वयं को हिन्दू कहने लगे हैं; जबकि वेदों से लेकर इस धर्म के किसी भी ग्रन्थ में हिन्दू शब्द तक नहीं है। बस कुछ लोग इन्हें धर्मांधता के कुएँ में गिरा रहे हैं और इस धर्म के लोग उसमें गिरते जा रहे हैं।
सनातन धर्म में कहा गया है कि ईश्वर एक है। वह न देवता है। न देवी है। न दृश्य है। न अदृश्य है। न किसी से अनभिज्ञ है। न पैदा हुआ है। न मरेगा। न उसका कोई पिता है, न माता। वह राजा की तरह किसी एक जगह विराजमान भी नहीं है; पर हर जगह विद्यमान है।
इस्लाम में धर्म की कोई परिभाषा तो मुझे कहीं नहीं मिली; लेकिन इस्लाम पर चलने वालों को मुसलमान कहा गया है और मुसलमान होने का सबसे पहला लक्षण बताया गया है कि जो मुसलसल (लगातार) अपने ईमान पर क़ायम हो, वह मुसलमान है। लेकिन केवल ईमान पर रहने से कोई मुसलमान नहीं हो जाता। उसके लिए इस धर्म में कुछ नियम भी हैं। उदाहरण के तौर पर- पाँच वक़्त की नमाज़ पढऩा। माह-ए-रमज़ान में रोज़ा रखना, अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमायी में से ढाई फ़ीसदी ज़कात निकालना अर्थात् दान करना। किसी भी रोज़ बिना पड़ोसियों को पूछे खाना तक नहीं खाना। दहेज़ न लेना। ब्याज नहीं लेना। किसी को बुरा नहीं कहना। अल्लाह (ईश्वर) के सिवाय किसी और की इबादत (ध्यान) न करना। किसी का हक़ नहीं मारना। सच बोलना। पाक (पवित्र) रहना।
इसी तरह ईसाई धर्म में भी धर्म के लक्षण तो नहीं बताये गये हैं; लेकिन कुछ नियम इसमें भी हैं। उदाहरण के तौर पर- शत्रु को क्षमा करना। किसी का हक़ नहीं मारना। सच बोलना। दुखियों की सेवा करना। ईश्वर की प्रार्थना करना। पाप से बचना आदि।
हालाँकि यह सब जानकर एक बात तो साफ़ है कि अब कोई भी व्यक्ति अपने धर्म पर पूरी तरह नहीं है और किसी भी धर्म में नहीं है। क्योंकि कोई भी पूरी तरह अपने धर्म का पालन नहीं करता है। लेकिन इन तीन धर्मों के बारे में इतनी जानकारी के बाद एक बात यह सामने आती है कि सभी धर्मों में चार-पाँच बातें एक समान हैं। पहली यह कि ईश्वर एक है। दूसरी यह कि पाप मत करो। तीसरी यह कि किसी पर अत्याचार मत करो। चौथी यह कि बेईमानी मत करो। पाँचवीं यह कि ईश्वर की उपासना करो (अपने-अपने तरीक़े से ही सही)। सवाल फिर वही कि अब धर्म पर कौन है?