अफगानिस्तान में गूंजतीं खतरे की घंटियां

अमेरिका ने फैसला लिया है कि उसकी सेनाएं अफगानिस्तान से हटेंगी। यानी वहां 14,000 सैनिक अब घट कर सात हजार ही रह जाएंगे। इनकी मौजूदगी में काबुल में तालिबान की सरकार बनेगी। यह फैसला न तो युद्ध में ध्वंस देश के हित में है और न दुनिया के लिए।
इसकी वजह यह बताई जाती है कि अब यह स्थिति आ गई है जबकि डोनाल्ड टं्रप प्रशासन यह चाहता है कि अब अफगानी अपनी सुरक्षा सेनाओं पर ही भरोसा करें न कि विदेशी भूंिम से आ रही सेनाओं पर। हालांकि सच्चाई यह है कि अफगान नेशनल आर्मी इस मामले में भी बड़ी लाचार रही है कि अशरफ गनी की सरकार के हुकुमनामों पर पूरे अफगानिस्तान में  अमल हो। आज भी आधे अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा है। ऐसे में यह अनुमान किया जा सकता है कि अफगान सुरक्षा दस्ते देश के हालात पर किस हद तक काबू पर सकेंगे।
फिर लगता है कि अफगानिस्तान के नब्बेे के दशक के वे दिन फिर लौट आएंगे जब पूरा देश तालिबान के अधिकार में था। अब इतना ही बदलाव हो सकता है कि राजकाज के कुछ तौर तरीके में थोड़ा बहुत बदलाव दिखे लेकिन देश फिर पहले की ही तरह हिंसा की पौधशाला बन जाए। ऐसे में आज ज़रूरत है कि काफी कुछ तैयारियां कर ली जाएं।
क्या अमेरिका और बाकी दुनिया को यह नहीं देखना चाहिए कि अमेरिका मुख्य भूमि पर हमले के बाद पिछले 17 साल से अफगानिस्तान पर हमला कर बिलियन से भी कहीं ज़्यादा डालर खर्च करने के बाद क्या सेना हटाने का यह उचित फैसला है? क्या इससे पूरी दुनिया में सुरक्षा रहेगी? क्या इससे यह संदेश सब जगह नहीं जाएगा कि जब इसने आतंकवाद को जड़ों को खत्म करने की सोची थी वहीं अब शंाति  की बात करके यह अपनी नाकामी स्वीकार कर रहा है? ऐेसे ही और भी कई सवाल लोगों के दिमाग में उठेंगे जब लोगों को अमेरिकी नीति में बदलाव से होने वाले खतरों का अंदेशा उभरेगा।
शायद यही वजह थी जब कुछ सप्ताह पहले ट्रंप प्रशासन के फैसले के उजागर होने के बाद पूरी दुनिया दंग सी रह गई थी। विदेशी मामलों के ज़्यादातर विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि अफगानिस्तान से अमरीकी सेनाओं के हटने से आतंकवादी जहां भी हैं, उन्हें उनकी ताकत में इज़ाफा करने में मदद मिलेगी।
ट्रंप प्रशासन का यह बेहद अतार्किक फैसला है जिसके चलते तालिबान की जीत और आतंकवाद के फैलाव को कुचलने और खत्म करने की नीयत पर संदेह होता है। ऐसी हालत में तमाम आतंकवादी ताकतों को प्रेरणा मिलेगी तालिबान से। वे सब अपने अधूरे काम पूरे करने में जुट जाएंगे। जिन्हें पूरा करने में अभी तक उन्हें खासी परेशनियां उठानी पड़ रही थीं। अब उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को अपने विनाशकारी एजेंडे को अमल में लाने के लिए कहना होगा। क्योंकि अब उनके सिर पर कामयाबी का ताज आ रहा है। कितने अफसोस की बात है यह।
अब देखिए पुलवामा आतंकवादी हमले में सीआरपीएफ के 40 कर्मी मार दिए गए। अभी कितने ही घायल हैं। इस मामले को भी इसी लिहाज से देखा-परखा जाना चाहिए।
सारी दुनिया के आतंकवादी संगठन और उनके कर्मी खुशियां मनाएंगे जब अफगानिस्तान की धरती से आखिरी अमेरिकी सैनिक भी अपने देश को लौट रहा होगा। तालिबान की मांगों में यह प्रमुख मांग थी जो ट्रंप प्रशासन से उनकी बातचीत सामंजस्य और हिंसा की राह छोड़ देने पर हो रही थी। जिससे काबुल में राजनीतिक फेरबदल का हिस्सा बन सकें। भारत विरोधी उग्रवादी तो इससे ज़्यादा तो कुछ नहीं मांग सके।
यानी अफगानिस्तान में शांति की कोई भी पहल इस समय तालिबान के ही हाथों में जा रही थी। शर्तों को भी कोई अच्छा नहीं मान पाता था। ऐसा लगता था कि चारों तरफ से भूमि से ही जुड़े देश के लोगों को भेडिय़ों के हवाले करने की सोची जा रही है। जब भी कोई तर्क देता कि अफगानिस्तान का राजकाज अफगानों के ही हाथ में सौंप दो जब यहां कोई विदेशी सेना  न हो तो माना जाता कि या तो ऐसा कहने वाले को सच्चाई की जानकारी नहीं है या वह अफगानो का शुभचिंतक नहीं है।
सवाल है कि क्या अफगानिस्तान अपना राजकाज खुद चला सकता है वह भी बिना किसी विदेशी सुरक्षा चक्र के? इस सवाल का जवाब पक्ष में इसलिए नहीं बन पाता क्योंकि तालिबान आत्मघाती गुटों के हमले थमते नहीं। सबसे पहली बात तो यह है कि विभिन्न तालिबान गुटों ने बर्बादी की अपनी राह से तौबा कर ली है। इसी कारण अमेरिकी सेनाएं देश से हट रही हैं। यही सही तर्क है कि यदि शंति होगी तभी प्रगति होगी और नए अवसर बनेंगें कि अच्छाई की खातिर अफगान अपना भाग्य बदल सकें।
अमेरिकी फैसले पर जबरदस्त गहमागहमी है जबकि इस्लामाबाद में तालिबान के साथ बातचीत इसलिए टूट गई क्योंकि उग्रवादी आंदोलन सोच थी । इसके कुछ प्रतिनिधि या नेता पाबंदियों के चलते पाकिस्तानी राजधानी नहीं पहुंच पाएंगे क्योंकि उन पर अमेरिका ने पाबंदी लगा रखी है और सयुंक्त राष्ट्रसंघ अभी भी अड़ा है। अब बातचीत दोहा में होगी जो कतर की राजधानी है जहां सुलह-सफाई का पहल दौर हो भी चुका है।
इस्लामाबाद बातचीत रद्द होने के पहले तालिबान के प्रतिनिधि मास्को बुलाए गए जहां उन्हें वैसी ही शांति वार्ता करने बुलाया गया था। इस्लामाबाद में तो बातचीत ठप्प ही रही क्योंकि तभी दो तरह की घटनाएं हुई। एक पुलवामा में आतंकवादी आत्मघाती ध्वंस दूसरे सऊदी अरेबिया के राजकुमार मोहम्मद बिन सलमान का आगमन। पुलवामा में हुई वारदात में भारतीय सुरक्षा संगठन सीआरपीएफ के 40 लोग मारे गए। इससे ऐसा माहौल बना जिसमें शायद सऊदी शंहशाह ने अपनी नाराजग़ी जताई हो कि तालिबान को किसी भी प्रकार की बातचीत की अनुमति क्यों दी गई जबकि उसी समय और स्थान पर वे भी हों।
एक दूसरी वजह जिसके चलते इस्लामाबाद में होने वाली बातचीत रद्द हुई हो यह भी जान पड़ती है कि अफगानिस्तान सरकार ने अपनी कई प्रतिक्रिया उस दोस्ताना सलूक पर जताई थी । यह देखा कि तालिबानी प्रतिनिधियों से भी वैसी ही दोस्ताना सुलूक रखा जा रहा है जिन्हें मौत और बर्बादी का पिशाच माना जाता है। तालिबानी गुट आज भी अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए लोगों को अपनी आतंकवादी धारा से जोड़ते हैं।
आश्चर्यजनक यह है कि अमेरिकी प्रशासन क्यों इस बात पर आमादा है कि यह तालिबान को शांत कर रहा है और आतंकवादी संगठनों के प्रतिनिधियों से उसकी बातचीत करा रहा हेै जबकि उसकी इस पहल का तगड़ा विरोध अमेरिकी प्रशासन में हो रहा है। रक्षामंत्री जेम्स मैटिंस ने जब इस्तीफा दिया तो इससे यह जाहिर हुआ। ट्रंप प्रशासन का यह विवादास्पद फैसला दिसंबर महीने का था जब बहुत से विशेषज्ञों का यह मानना था कि अमेरिका के लिए यह लगभग असंभव होगा कि वह अफगानिस्तान में अपनी प्रतिबद्धता पूरी कर सके। मसलन अफगानी सेनाओं को प्रशिक्षण और जब ज़रूरत पड़े तो तालिबानी और दूसरे सैन्य संगठनों पर हवाई कार्रवाई, जब जहां जैसी ज़रूरत जान पड़े। अमेरिका ने अब भी कोई दिलचस्पी उन लोगों की प्रतिक्रिया पर नहीं जताई है जो इसकी नई अफगान नीति से असहज महसूस करते रहे हैं।
अब समय है जब दुनिया की प्रभावशाली राजधानियों में भी अमेरिकी नीतियों को लेकर भूचाल सा आ गया है जो उग्रवाद और आतंकवाद पर हैं और जिनसे अफगानिस्तान -पाकिस्तान क्षेत्र में इन ताकतों को नेस्तानाबूद करने का सपना संजोया जा रहा है। अब पाकिस्तान पर है कि वह इस समस्या का क्या निदान करता है, हालांकि अब तक वह समस्याओं को और बढ़ाता ही रहा है। इस्लामाबाद की दिलचस्पी अफगानिस्तान में महज इतनी है कि वह इसका इस्तेमाल रणनीति बतौर ही करे जो वह अब तक करता भी रहा है।
भारत चाहे तो विश्व समुदाय को इस बात पर अपने साथ कर सकता है कि हिंसक अतिवाद को खत्म किया जा सकता है बशर्ते अफगानों को आर्थिक विकास और स्थायित्व में अपनी भागीदारी बढ़ाने का मौका मिले। अफगानिस्तान में भारत के प्रति रूझान इसलिए भी है क्योंकि इसने अफगानिस्तान के पुननिर्माण में भारी पूंजी निवेश किया है। इससे यह बात जाहिर होती है कि देश में आर्थिक कार्यक्रमों को चलाकर किस तरह जनता को हिंसा से दूर किया जा सकता है।