विकास दुबे प्रकरण, जिसकी शुरुआत एक डीएसपी सहित आठ पुलिसकर्मियों के नरसंहार से हुई और बाद में उसकी मुठभेड़ में मौत, खादी, खाकी और अपराधी साठगाँठ की ओर इशारा करती है। यह घटना एक बार फिर तत्काल सुधारों की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करती है; ताकि कानून का शासन कायम रहे और अराजकता तथा ताकत का शासन खत्म हो। मुठभेड़ और एक हफ्ते के भीतर पाँच गुर्गों की मौत से कई सवाल के घेरे में फँसे नेता और अफसर अनुत्तरित रह गये हैं। विकास दुबे से पूछताछ और खुलासे से उन सफेदपोशों का पर्दाफाश हो सकता था, जिनका वरदहस्त उस पर था। उसके खात्मे के बावजूद, जनता के बीच सवाल तो रहेंगे ही।
मसलन, मध्य प्रदेश एक चार्टर्ड विमान भेजा गया था; लेकिन विकास दुबे को उज्जैन से इसके बावजूद एक वाहन में क्यों लाया जा रहा था? मुठभेड़ से कुछ मिनट पहले ही गैंगस्टर को एक अलग वाहन में क्यों स्थानांतरित किया गया और इस एनकाउंटर से ठीक पहले मीडिया वाहनों सहित पूरे यातायात को एक चेक पोस्ट पर क्यों रोक दिया गया था? विकास को मीडिया ने आखरी बार टाटा सफारी में देखा था; लेकिन पुलिस ने बताया कि उसने महिंद्रा यूटिलिटी वाहन से भागने की कोशिश की थी? गैंगस्टर को संरक्षण देने वाले कौन थे? जब उसने उज्जैन में ही गिरफ्तारी का विरोध नहीं किया, तो भला बाद में वह पुलिस हिरासत से भागने का जोखिम क्यों उठाता?
विकास दुबे ने कानपुर देहात इलाके में 2001 में, जब उत्तर प्रदेश में भाजपा और केंद्र में एनडीए की ही सरकार ही थी; भाजपा के ही दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की थाने में दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी थी। तब दुबे को प्राथमिकी में नामित किया गया था। छ: महीने बाद उसने आत्मसमर्पण भी कर दिया था; लेकिन बाद में उसे बरी कर दिया गया था। क्योंकि मंत्री के गनर, सुरक्षाकर्मी और निजी कर्मचारियों ने विकास दुबे के ही पक्ष में बयान दिये थे।
इस बार आठ पुलिसकॢमयों की हत्या के बाद वह फरार होने में सफल रहा और फिर उसने नाटकीय अंदाज़ में आत्मसर्मण कर दिया। रास्ते में मुठभेड़ के दौरान उसकी छाती में तीन गोलियाँ लगीं और एक हाथ में; जिससे यह संकेत मिलता है कि भागते समय उसे सामने से गोलियाँ लगीं, पीछे से नहीं।
इस कहानी में कई छेद दिखाई देते हैं। वह 60 से अधिक मामलों में शामिल था और अभी तक मुक्त घूम रहा था और कोविड-19 की सिख्तयों और यात्रा प्रतिबन्धों के बावजूद राज्यों के बीच यात्रा करता रहा। वह एक अपराधी था और कानून के शासन के अनुसार उसे सज़ा मिलनी चाहिए थी। वैसे इसके लिए एक कानूनी प्रणाली है; लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस का अपना ही ऑपरेटिंग सिस्टम है। एनकाउंटर से ठीक एक दिन पहले, सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर सरकार और पुलिस को निर्देश देने की फरियाद की गयी थी कि विकास दुबे के जीवन की सुरक्षा हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि पुलिस के हाथों उसकी हत्या न हो। लेकिन ऐसा ही हुआ।
दरअसल यह एनकाउंटर पिछले साल हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक से सामूहिक दुष्कर्म के मामले में पुलिस द्वारा चारों आरोपियों के एनकाउंटर की याद दिलाता है। उस एनकाउंटर में भी सभी चार अभियुक्त मारे गये थे। क्योंकि पुलिस के मुताबिक, उन्होंने पुलिसकॢमयों से हथियार छीनकर उन पर गोलियाँ चला दी थीं। उस एनकाउंटर पर भले ही विपक्ष इतने सवाल नहीं उठा पाया था, लेकिन विकास दुबे एनकाउंटर को लेकर वह सरकार पर निशाना साध रहा है। सवाल जनता के मन में भी ढेरों हैं, जो सोशल मीडिया पर उठ रहे हैं। अब सरकार अपनी विश्वसनीयता को बनाये रखने के लिए जो सबसे बेहतर काम कर सकती है, वह यह है कि वह इस मामले की स्वतंत्र जाँच का आदेश दे।