एक उच्चाधिकार समिति द्वारा सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा को पदमुक्त करने के बाद उनके इस्तीफे के साथ ही एक दुखद अध्याय का अंत हो गया। संस्थानों से एक देश की पहचान हुआ करती है।
यह विडंबना है कि वर्तमान सरकार ने ही अपने अनुरूप मान कर उन्हें नियुक्ति दी थी लेकिन जैसे ही उन्होंने पद संभाला वे विरोधी मान लिए गए। सवाल उठेंगे कि पहली बार जब वे हटाए गए तो नियमों का ख्याल क्यों नहीं रखा गया। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलटा भी। लेकिन फिर, उन्हें न्याय का वह मौका नहीं दिया गया जहां वे अपनी सफाई देते।
यह सब और भी ज्य़ादा महत्वपूर्ण हो जाता है जब यह तथ्य सामने आता है कि पूरी सीबीसी रिपोर्ट सीबीआई निदेशक के ही सहायक के आरोपों के आधार पर बनाई गई जिसके खिलाफ सीबीआई पहले से ही जांच कर रही है। वर्मा ने दावा भी किया है कि सीवीसी की रिपोर्ट उस शिकायतकर्ता के आरोपों पर बनाई गई न कि सीवीसी की जांच में मिले सबूतों के आधार पर। यह बात छिपी नहीं है कि सीवीसी के ज्य़ादातर सदस्यों को नियुक्ति सत्ता पार्टी की अनुशंसा से ही होती है।
ऐसा लगता है कि कमेटी ने सीबीआई निदेशक की सुनी नहीं क्योंकि सीवीसी ने पहले ही उनकी सुनवाई सेवानिवृत्त न्यायाधीश, जस्टिस एक पटनायक की मौजूदगी में कर ली थी। जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने बतौर सुपरवाइजर नियुक्त किया था।
सीबीआई निदेशक भले ही दोषी हों लेकिन जिस तरह उनके मामले को देखा-परखा गया वह पूरी तौर बिना किसी तैयारी के और लापरवाही भरा था। यह बात तो शुरू से साफ थी कि सरकार नहीं चाहती थी कि वर्मा पद पर रहें। हालांकि दिखाया यह गया कि इसने वर्मा और अस्थाना, दोनों को ही छुट्टी पर जाने के आदेश दिए थे।
इस मामले से यह असहज सच भी उजागर होता है कि सीबीआई निदेशक को बाहर से कोई कानूनी सुरक्षा नहीं मिली थी, जैसा पूरे देश को बताया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की थी कि किसी भी ऑथरिटी को सिवा उच्चस्तरीय चुनाव कमेटी के सीबीआई निदेशक का तबादला करने का अधिकार नहीं है। यह मामला सरकार के ही पास था लेकिन सरकार ने जल्दबाजी में बैठक बुलाई। इस बैठक में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने अपना विरोध जताया उसके बावजूद प्रधानमंत्री और जस्टिस सीकरी ने वर्मा के तबादला कर उनके भाग्य का फैसला 2-1 से कर दिया।
ऐसी कार्रवाईयों को गहरा असर सीबीआई की स्वायत्तता पर पड़ेगा जब भावी सरकारें ऐसी परिस्थितियों में एक निदेशक को पदमुक्त कर देंगी। इस पूरे कांड से यह सीख मिलती है कि सीबीआई में वर्तमान सुरक्षात्मक उपाय जो राजनीतिक दखलंदाजी को रोकने के लिए हैं, वे मजबूत नहीं हैं। सीबीआई को राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है और इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं।
यह बहुत स्पष्ट होना चाहिए कि एक संसदीय लोकतंत्र मे राजनीतिकों को संस्थाओं के अधिकारों और स्वायतता से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं हो। अब यह सरकार का और सीबीआई का दायित्व है कि वह देश की महत्वपूर्ण जांच एजंसी की विश्वसनीयता फिर से कायम करें। इस एजंसी के लिए यह चुनौती है कि वह जनता के बीच अपनी गौरवपूर्ण बनाए और अपने ही सिद्धांतों इंडस्ट्री, इंपारशियलिटी और इंटीग्रिटी (उद्यमिता, निष्पक्षता, सत्यनिष्ठा) के अनुरूप ही खुद का तब्दील करें।