लखनऊ से अहमदाबाद के लिए सीधे ट्रेन नहीं मिल पाई थी, सो ब्रेक जर्नी ही एक रास्ता था. लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद जाना तय किया था हमने. हम पीएचडी में एडमिशन के बाद यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने जा रहे थे, हम तीन लोग थे पर मैं बिलकुल अकेला ही था. वे दोनों अपने आप में मगन थे और मैं अपने आप में मस्त. बाहर का नजारा भी ट्रेन की ही रफ्तार से ट्रेन की उल्टी दिशा में भाग रहा था. मैं न जाने कब सो गया. दिल्ली आने वाला था, सुबह के तकरीबन छः बजे थे और लाल किला एक्सप्रेस, लाल किले के पीछे से गुजर रही थी. पटरियों के किनारे बसी बस्तियों में घरों के भीतर तक हमारी निगाहें घुस चुकी थी. कहने के लिए तो उन झोपड़ियों में दीवारें थी पर सबकुछ दिख रहा था. उनका सोना, रोना, लड़ना, नहाना, धोना सबकुछ बेपर्दा था. जिंदगी का बेपर्दा होना कैसा होता है मैंने पहली बार वहीं महसूस किया था. निजता जैसा कोई शब्द उन झोपड़ी में रह रहे लोगों ने शायद ही कभी सुना हो. जिंदगी वहां शर्म के बंधनों से आजाद थी, या यूं कहें उनकी और हमारी शर्म की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर था. जो हमारे लिए शर्म है उनके लिए क्या हैं मैं नहीं जनता, पर शर्म बिलकुल नहीं है. जिंदगी जीने के जज्बे, जरूरत, या मजबूरी (आप जो भी कहना चाहें) के आगे शर्म बहुत छोटी चीज होती है.
आंखों में समाई लाल किले की सूरत, कचरे में बचपन गुजारते और रोटी तलाशते बच्चों की तस्वीर के आगे फीकी पड़ गई थी. लाल किले की प्राचीर से चढ़कर भाषण देते प्रधानमंत्री को शायद ये बच्चे कभी नहीं दिखते होंगे. नहीं तो उन्हें भी उतनी ही निराशा होती जितनी मुझे हो रही थी. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि जब वे लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होते होंगे, डाइस के पीछे उनके पैर, ये झूठे और बेमानी शब्द बोलते हुए कांपते होंगे.
खैर देश के प्रधानमंत्री के बारे में सोचते-सोचते मैं रेल में सवार आगे बढ़ ही रहा था कि तभी मेरी नजर कचरे के ढेर के बीच करीब 14-15 साल के लड़के-लड़कियों पर पड़ी. वे प्रयोगशाला में विज्ञान के प्रयोग करने की उम्र में कचरे के ढेर में शरीर के प्रयोग कर रहे थे. सुबह जब उनकी उम्र के कई बच्चे हाथ में किताबें थामें तेज आवाज में वर्ड मीनिंग, पहाड़ा, और गणित के सूत्र रट रहें होंगे, वो जिंदगी की बेजान और बेरंग तस्वीर में एक फीका-सा रंग भरने में लगे थे. वो रंग जो अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुंठा और नशे में रंगीन लगता है, पर है बिलकुल भी नहीं. वहां पहली बार लगा कि इनके लिए जीवन महज भूख भर बचा है, पर ऐसा कैसे हुआ और किसने किया? सवाल गहराता गया और मैं डूबता गया. जब थोड़ा निकला तो पाया कि पुरानी दिल्ली स्टेशन आ चुका था.
‘मैं अभी कुछ फीम बेचते हो समझ पाता कि पुलिसवाले ने कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में? तो उसने कहा कि गांजा-असाले!’
अहमदाबाद के लिए ट्रेन 8 घंटे बाद थी सो फ्रेश हो कर और कुछ देर आराम करने के बाद दिल्ली घूमने को बाहर निकल पड़ा. अभी सीढ़ी से बाहर की ओर निकल ही रहा था कि देखा पुलिसवाले ने दो अधेड़ों के साथ एक 14-15 साल के बच्चे को किनारे कर रखा था और उनकी मां-बहनों को इज्जत दे रहा था. मैं कुछ साफ समझ पता कि उसने उस बच्चे की मुट्ठी में बंद पसीने में डूबा, तुड़ा-मुड़ा 500 रुपये का नोट छीन लिया और उसे डांट कर भगा दिया. मैंने बढ़कर बच्चे से पूछा तो उसने बताया कि वह अपने पिता के मरने के बाद घर का खर्च चलाने के लिए, गांव के कुछ लोगों के साथ मजदूरी करने आया है. ये रुपये उसकी मां ने उसे काम न मिलने तक अपना पेट भरने के लिए दिए थे. जिसे पुलिसवाले ने छीन लिया. ये कहते हुए वो बच्चा रोने लगा. तभी पीछे से पुलिसवाला आ गया. उसने बच्चे को एक लाठी जमाई और कहा कि ‘अबे! जाता है कि हवालात ले चलूं!…’ लड़का सकपका के आंसू पोछते हुए चला गया. मैं अभी कुछ समझ नहीं पाया था कि पुलिसवाले ने मुझसे कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में? उसने कहा कि गांजा-अफीम बेचते हो साले! और रंगबाजी दिखाते हो, उसने हवा में लाठी तान ली! मुझे डरना नहीं चाहिए था पर मैं डर गया. मेरे दिमाग में संविधान की प्रस्तावना से लेकर लोकतंत्र की परिभाषा तक सबकुछ अचानक नाच गया. मैं, हम भारत के लोग… या जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार… जैसा कुछ बोलना चाहता था. पर मैंने सकपकाते हुए कहा कि महोदय मैं पत्रकार हूं और फिलहाल जनसंचार विषय में शोध कर रहा हूं. आप मुझे गलत समझ रहे हैं. उस हवलदार को जैसे मेरे पत्रकार होने ने भीतर से रोक दिया हो, पर उसके मुंह से गाली नहीं रोक सका. उसने मेरी मां और बहन की तारीफ की और भाग जाने को कहा. मैं वहां से नहीं जाना चाहता था. और वहीं पर अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला, गांधी या अन्ना हो जाना चाहता था. मैं संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देना चाहता था. मैं वहां अपनी आजादी जीना चाहता था पर मैं वहां से चुपचाप चला आया.
उस वक्त मैंने पाया मेरा कुछ हिस्सा वहीं हवलदार के मुंह से निकले हवालात शब्द में कैद हो गया है. मेरा वो हिस्सा मुझे आज भी आवाज दे रहा है और कह रहा है कि मेरे भीतर एक कायर रहता है. मुझे उसे मार देना चाहिए. हम सबको अपने भीतर का कायर मार देना चाहिए.