अपनी कहानी अपनी जबानी

उम्र का सातवां दशक पार कर चुके डॉ बीपी केशरी का सारा वक्त बीते कुछ महीनों से रांची से करीब 25-30 किलोमीटर दूर पिठोरिया स्थित ‘नागपुरी संस्थान’ के कमरे में ही बीत रहा है. वे 16वीं सदी से लेकर अब तक नागपुरी भाषा के करीब 700 कवियों द्वारा रचित 35 हजार गीतों का संकलन और कुछ कवियों के जीवन परिचय वाली किताब लाने की तैयारी में हैं. उधर, रांची में अश्विनी कुमार पंकज और उनकी पत्नी वंदना टेटे सुबह आठ बजे से लेकर रात के आठ-दस बजे तक व्यस्त रहते हैं. वे तकरीबन हर माह आदिवासी भाषा में एक किताब प्रकाशित करते हैं. इसके अलावा वे आदिवासी भाषाओं में कई पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के अभियान में भी लगे हुए हैं.

बोकारो के निमाईचंद महतो की दिन भर की चिंता यही होती है कि जहां-जहां खोरठा भाषा को बोलने-जानने-समझने वाले लोग रहते हैं वहां कैसे इस भाषा की पत्रिका ‘लुआठी’ के प्रसार का विस्तार हो. रांची में रहने वाले विरेंद्र कुमार सोय मुंडारी भाषा में ‘कुपुल’ नाम से चार पन्ने की एक पत्रिका निकालकर इसे पाठकों के बीच पहुंचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं. साथ ही वे इसी भाषा में ‘संगोम’ नाम की त्रैमासिक पत्रिका  भी अपने लोगों के बीच पहुंचाने का अभियान चला रहे हैं.

कुछ इसे वर्षों से दबी आकांक्षाओं को अपनी भाषा के जरिए स्वर देने की कोशिशों का नतीजा बताते हैं, कुछ खत्म हो रही अपनी भाषाओं को बचाए रखने की ललक और कुछ हिंदी द्वारा आदिवासी और देशज समुदाय को उपेक्षित किए जाने के बाद संघर्ष और सृजन की अपनी कहानी बताने की बेताबी. वजह जो भी हो, यह सच है कि झारखंड के आदिवासी और देशज समाज में भाषा, संस्कृति और अस्मिता को बचाने और बढ़ाने का एक अभियान चल रहा है. तमाम मुश्किलों के बीच अपनी राह खुद बनाने की कहानी बयान करता यह अभियान रोचक भी है और बहुतों के लिए प्रेरक भी.

इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि झारखंड की आदिवासी पत्र-पत्रिकाओं में सबसे पहला नाम ‘झारखंडी सकम’ का है. इस साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन 1940 में आरंभ हुआ था. जमशेदपुर से निकलने वाली ‘झारखंडी सकम’ में मुंडारी, नागपुरी, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में समाचार व लेख होते थे. इस पत्रिका के संपादक जयपाल सिंह मुंडा थे और यह झारखंड पार्टी का प्रकाशन था. इस लिहाज से आदिवासी भाषाओं में प्रकाशन का सिलसिला ज्यादा पुराना नहीं. इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि इस काम में चुनौतियां बहुत हैं. डॉ बीपी केशरी जिस नागपुरी भाषा में इतने बड़े काम को अंजाम दे रहे हैं, वह झारखंड के छोटानागपुर इलाके में भी सिर्फ एक खास हिस्से की भाषा है. एक छोटे-से दायरे में बोली जाने वाली बोली को लेकर होने वाला काम बहुत श्रमसाध्य है. लेकिन वे अकेले नहीं. झारखंड के कई इलाकों में कई बुजुर्ग, नौजवान, जानकार, कम-पढ़े लिखे अपने-अपने दायरे की भाषाओं में इस तरह का साहित्यिक अभियान चला रहे हैं. सबके सामने प्रकाशन का संकट है लेकिन आर्थिक मुश्किलों के बावजूद वे अपनी आकांक्षाओं के स्वर को मूर्त रूप दे रहे हैं. किताबें छपवा रहे हैं और नियमित-अनियमित पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित कर रहे हैं.

[box]‘यदि अस्मिताओं को बचाए रखना है तो अपनी अपनी भाषाओं में रचना कार्य निरंतर करते रहना होगा क्योंकि कई आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं’[/box]

भाषा, संस्कृति और अस्मिता के इस अनोखे, प्रेरक अभियान के बारे में पता करने पर कई जानकारियां सामने आती हैं जिनसे मुख्यधारा की दुनिया बहुत हद तक अनजान है. झारखंड की प्रमुख आदिवासी भाषा संथाली में ही जब इसकी पड़ताल शुरू करते हैं तो चांदो मामो, चेचिक, देबान तेनगुन, दिशोम बेउरा, फागुन, हेंदे अरसी, जिवी, मानभूम संवाद, मार्सल ताबोन, रापज सावंत बेवरा, संदेश सकम, सिली, द संघायनी, तोरी सुतम जैसी दर्जन भर से अधिक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की जानकारी मिलती है. इनका प्रकाशन नियमित तौर पर भले न हो रहा हो लेकिन जैसे ही संसाधन जुटते हैं इनके अंक छापे जाते हैं और इन्हें संबंधित पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश होती है. डाक से भेजकर, हाथों-हाथ पहुंचाकर, पत्र-पत्रिकाओं के स्टॉल में उपलब्ध करवाकर या फिर किसी देशज आयोजन में अलग से स्टॉल लगाकर.

रांची में विरेंद्र कुमार महतो ‘गोतिया’ नाम से त्रैमासिक पत्रिका और ‘छोटानागपुर एक्सप्रेस’ नाम से पाक्षिक अखबार प्रकाशित कर रहे हैं. बोकारो में रहनेवाले निमाई चंद महतो खोरठा भाषा में ‘लुआठी’ नाम से पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे यहां बातों को सहेजने की मौखिक परंपरा रही है, इसलिए स्थानीय भाषाओं में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होने से लोगों की रुचि बढ़ी है.’

महतो जो कहते हैं वह बात सही भी है. मुंडारी भाषा में ही कुपुल, संगोम, सेंगा सेतेंग आदि कई पत्रिकाओं के प्रकाशन की जानकारी मिलती है. इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार चाहे जितना कम हो, इनके सामने मुश्किलों का पहाड़ चाहे जितना बड़ा हो लेकिन एक असर तो साफ तौर पर दिख रहा है कि जो अपनी जुबान छोड़कर दूसरी भाषा में लिख-पढ़ नहीं सकते, उन्हें अपनी बातें रखने का मंच मिल रहा है. वे अपनी बात लिख रहे हैं, कह रहे हैं और अपने समुदाय के बीच लेखक-पत्रकार-रचनाकार के तौर पर जाने भी जा रहे हैं.

इस कड़ी में एक बेहद महत्वपूर्ण अभियान वंदना टेटे और उनके पति अश्विनी कुमार पंकज का है. दोनों मिलकर आदिवासी भाषाओं में कई लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहे हैं. साथ ही वे विभिन्न आदिवासी भाषाओं में उन लेखकों की किताबें प्रकाशित करने के अभियान में लगे हुए हैं जिन्हें मुख्यधारा में कहीं कोई ठौर नहीं मिलता. वे अब तक कुल मिलाकर तीस किताबों का प्रकाशन कर चुके हैं.
वंदना टेटे और अश्विनी कुमार पंकज सिर्फ किताबें नहीं छापते बल्कि अथक परिश्रम से एक नेटवर्क खड़ा करके वे उनके वितरण और बिक्री के भी इंतजाम में लगे हुए हैं. वे बताते हैं कि इसमें उन्हें धीरे-धीरे ही सही पर सफलता मिल रही है. वंदना पिछले कई सालों से त्रैमासिक पत्रिका ‘अखड़ा’ का प्रकाशन कर रही हैं जिसकी पहुंच अब झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल समेत उन तमाम इलाकों में हैं जहां आदिवासियों की बसाहट है. वंदना साथ में सोरी नानीन नाम से खड़िया पत्रिका भी निकाल रही हैं. वंदना की पत्रिकाएं साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषायी और सामुदायिक अस्मिता के इर्द-गिर्द हैं. उनके पति अश्विनी कुमार पंकज स्थानीय और आदिवासी भाषाओं में एक अखबार ‘जोहार दिशुम खबर’ तो छाप ही रहे हैं, समसामयिक व मनोरंजन के मिश्रण वाली पत्रिका ‘जोहार सहिया’ का प्रकाशन भी कर रहे हैं जिसमें स्थानीय भाषाओं में ही मोबाइल इंटरटेनमेंट, सिनेमा सहित तमाम समसामयिक हलचलों से संबंधित सामग्री होती है. इस पत्रिका में दुनिया की क्लासिक रचनाओं का स्थानीय भाषाओं में अनुवाद भी नियमित तौर पर प्रकाशित होता है जिसके लिए ‘दुनिया आपन भासा में’ जैसा कॉलम निर्धारित है.

‘जोहार दिसुम खबर’ बहुभाषी पाक्षिक अखबार है, जिसमें पंचपरगनिया, खोरठा, कुरमाली, नागपुरी, हो, मुंडारी, संथाली, खड़िया, कुड़ुख, बिरहोरी, असुरी और मालतो भाषाओं में खबरें प्रकाशित होती हैं. अश्विनी कुमार पंकज का कहना है कि जोहार दिसुम खबर संभवतः आदिवासी भाषाओं का पहला अखबार है, जिसे दिल्ली में डीएवीपी प्राप्त हुआ है.

अश्विनी कहते हैं, ‘झारखंड बनने के बाद से ही हम लोगों ने यहां की भाषा, संस्कृति और साहित्य को एक स्वर देने के लिए एक मंच तैयार करने की कोशिश की. अब हम इसके तले इन पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन कर रहे हैं.’ उनका मानना है कि जिन चीजों को खत्म करना हो उन्हें विशिष्ट बनाकर-बताकर आत्ममुग्धता की ओर मोड़ा जाता है. आदिवासी भाषाओं के साथ भी ऐसा ही होता रहा है. इसीलिए यह कोशिश की गई. उनके मुताबिक इस काम में मुश्किलें तो बहुत आ रही हैं लेकिन मुश्किलों के बीच कोशिश भी जारी है.’

[box]लेखकों और प्रकाशकों के सामने नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाए रखने की चुनौती है.[/box]

अलग-अलग भाषाओं में निकल रही इन पत्रिकाओं में कई आरएनआई में सूचीबद्ध हैं. कई पत्र-पत्रिकाएं ऐसी भी हैं, जिनका आरएनआई में निबंधन नहीं है, लेकिन उनका प्रकाशन नियमित तौर पर हो रहा है.

अश्विनी की बातें बहुत हद तक ठीक भी हैं. दरअसल आदिवासी समुदाय की शिकायत और पीड़ा अकारण नहीं है. मुख्यधारा की रचनाधर्मी दुनिया के प्रति उसकी एक हद तक नाराजगी का भाव इस आधार पर रहा है कि उनके समाज को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में वह स्थान या महत्व नहीं दिया जा सका जिसका वह असल में हकदार था. भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित चर्चित युवा कवि अनुज लुगुन कहते हैं, ‘आदिवासी भाषाओं में रचना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हिंदी भाषाओं में रचित आदिवासी विषय पर साहित्य और लेखन का बर्ताव हम देखते रहे हैं.’ हालांकि संथाली में साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता भोगला सोरेन ऐसे अभियान की महत्ता को दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘लोकभाषाओं का भविष्य उज्जवल है, ऐसा तो दावा नहीं कर सकता लेकिन यदि अस्मिताओं को बचाए रखना है तो अपनी अपनी भाषाओं में रचना कार्य निरंतर करते रहना होगा. आदिवासी भाषाओं में तो यह और जरूरी है, क्योंकि कई आदिवासी भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं, कई विलुप्ति के कगार पर हैं, निरंतर रचनाधर्मिता इन्हें बचाने में मददगार साबित होगी.’

 

इसी बीच अब सुषमा असुर नाम की एक महिला भी झारखंड में असुर समुदाय के लिए बेहद सक्रिय होकर सामने आ रही हैं. सुषमा अपने समुदाय के लोगों की बातों को उनकी ही जुबान में संकलित और प्रकाशित करने के अभियान में लगी हुई हैं, जिसके लिए वे चंदा इकट्ठा कर रही हैं. उनके इस प्रयास को व्यक्तिगत तौर पर लोगों का सहयोग भी मिल रहा है. गुमला जिले के नेतरहाट इलाके की रहनेवाली सुषमा अपने समुदाय के लोगों की कथा-कहानियों, कविताओं और गीतों को लिपिबद्ध करना चाहती हैं.

पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन और तमाम आदिवासी भाषाओं मंे किताबों को छापने के इस अनोखे अभियान की कड़ी में जनमाध्यम नामक संस्था भी आदिवासी भाषाओं में तरह-तरह के प्रयोग से पुस्तकें व अन्य सामग्री लाने की कोशिश में है. जनमाध्यम की ओर से अब तक 23 किताबें प्रकाशित हुई हैं जिनके जरिए सनिका मुंडा, डोमरो बिरूली, उदयचंद्र बोदरा, लोकेंद्र देवगम, रमेश हेंब्रम जैसे विविध आदिवासी भाषाओं के लेखकों का उभार हुआ है. सनिका मुंडा कहते हैं, ‘ऐसे लेखन का हमारे समुदाय के लिए बेहद महत्व है, क्योंकि इससे सीधे तौर पर गांव-घर के लोग जुड़ते हैं.’  जनमाध्यम के सचिव फैसल अनुराग बताते हैं कि हुलगुलान रेन बार शहीद, कोल्हान दिसुम होड़ दुरंग, हासा सकम आदि किताबों की मांग बहुत है. बकौल फैसल, ‘इन भाषाओं के अल्फाबेट और कैलेंडर भी प्रकाशित कर लोगों तक पहुंचाए जा रहे हैं.’

इन भाषाओं में छप रहे पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के सामने आर्थिक मोर्चे से लेकर वितरण-बिक्री तक का संकट तो है ही, एक सवाल यह भी है कि ऐसे प्रकाशनों का संबंधित समाज पर कितनी दूर तक असर पड़ रहा है. संथाल की चर्चित कवयित्री निर्मला पुतुल कहती हैं, ‘स्थानीय भाषाओं में लेखन और प्रकाशन का दायरा मुट्ठी भर लोगों तक सीमित है. और यदि वह ओलचिकी जैसी स्थानीय लिपि में लिखी जा रही हो तो वह और सिमट जाता है, ऐसे में यह जरूरी है कि इसका अनुवाद भी देवनागरी और दूसरी अन्य भाषाओं में होते रहना चाहिए, ताकि दायरा बढ़ सके.’ उनका मानना है कि अपनी भाषा में लिखनेवाले आत्ममुग्धता के शिकार होते जा रहे हैं और अधिकांश सिर्फ गीत, कहानी, उपन्यास, सौंदर्यबोध में ही फंस गए हैं जबकि समस्याओं, कुरीतियों आदि पर ज्यादा लिखा जाना चाहिए. उधर, रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से देशज भाषा में लिखने वाले लोग लगातार बेहतरी की कोशिश में लगे हुए हैं. उनके मुताबिक इससे नई चीजें सामने आ रही हैं और लोगों को समझने का मौका मिल रहा है.

[box]लेखकों और प्रकाशकों के सामने नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाए रखने की चुनौती है.[/box]

तमाम संभावनाओं और विडंबनाओं के बीच एक वर्ग का आरोप है कि स्थानीय भाषाओं में इतनी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के उभार की कहानी के पीछे बड़े हिस्से का मकसद सरकार से विज्ञापन प्राप्त कके अपनी दुकान चलाना है. लेकिन ज्यादातर लोगों को यह तर्क सही नहीं लगता इसका एक कारण तो यह है कि सरकार से इन पत्रिकाओं को इतना विज्ञापन नहीं मिलता जिससे सालों भर एक रोजगार की जरूरत को पूरा किया जा सके. और यदि यह मान भी लें कि ऐसे अभियान से प्रकाशक औसतन तीन-चार हजार रुपये मासिक आमदनी भी कर लेते होंगे तो यह बेहतर नजरिये से ही देखा जाना चाहिए. आखिर इस बहाने ही सही, वर्षों से दबी एक बड़ी जमात की आकांक्षा उभार ले पा रही है और इतिहास को मौखिक तौर पर सहेजकर रखने की परंपरा अब छपकर सदा-सदा के लिए संकलित हो रही है. कई नये लेखक तैयार हो रहे हैं. जो लेखक थे, वे छपकर सामने आ रहे हैं.

निर्मला पुतुल का मानना है कि आदिवासी साहित्य के उतरोत्तर विकास की राह में कई नई चुनौतियां भी हैं जिनसे रचनाशीलता के पहले चरण में ही लेखकों को जूझना पड़ रहा है मसलन भाषा के मानकीकरण का सवाल, अनेक लिपियों का इस्तेमाल आदि. उनके मुताबिक इन लेखकों और प्रकाशकों के सामने नई सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में अपनी संस्कृति को बचाये रखने की चुनौती है. अपने एक लेख में वे कहती हैं, ‘ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भाषा-साहित्य बाजार के पहलू में बैठी राजनीतिक व्यवस्था की दयादृष्टि पर निर्भर हो गया है. आर्थिक मंदी की मजबूरी में पूंजी और साम्राज्यवाद ने दुनिया को एक छोटे-से गांव में बदलने की योजना बनाई है. जाहिर है कि जब एक ही गांव होगा तो भाषा-साहित्य भी एक ही होगा. इसलिए विश्व पूंजी बाजार दुनिया की सभी भाषाओं को लील जाने की तैयारी में है. उसके पहले निशाने पर आदिवासी साहित्य और भाषाएं हैं क्योंकि आदिवासी इलाकों में ही धरती की विशाल धन-संपदा, खनिज, जमीन, पानी और अन्य दूसरे संसाधन हैं.’ उम्मीद है कि आदिवासी भाषाओं में लेखन और प्रकाशन की यह नई बयार इस चुनौती के सामने मजबूती से खड़ी होगी.