फिल्म: अन्हे घोड़े दा दान
निर्देशक: गुरविंदर सिंह
अभिनेता : माल सिंह, समुएल, सरबजीत कौर, धरमिंदर कौर, कुलविंदर कौर, लखा सिंह और गुरविंदर मखना
यूं तो यह देखने की फ़िल्म ज़्यादा है, ज़्यादा इसके सन्नाटे को सुनने की, कभी रिक्शा के पहियों की और कभी आती हुई रेलगाड़ी की आवाज़ को सुनने की. और यह सोचने की कि कब-कब मरा जा सकता है और कब नहीं. आप जब इस फ़िल्म में दाख़िल होते हैं तो वह ध्वस्त होने का दृश्य है. गाँव के किनारे पर एक मकान, जिसे आधी रात एक बुलडोजर ढहा रहा है. कैमरा स्थिर. उड़ती धूल कैमरे की आँखों में नहीं गिरती, पर आपकी आँखों में गिरती है. आप आँखें मल रहे हैं, लेकिन वहाँ वे बूढ़े, एक पुलिस अफ़सर के सामने खड़े हैं. तीन सरदार, जो सन ऑफ सरदार के सरदार नहीं हैं, जो सिंह इज किंग नहीं हैं, जो सरसों के खेतों में मोहब्बत के गाने गाते हुए कभी नहीं भागे, जो कनाडा नहीं गए और न ही जाना चाहते हैं, वे तीन बूढ़े सरदार एक पुलिस अफ़सर के सामने खड़े हैं, और वह उनमें से दो को जाने को कहता है, एक को अकेला छोड़कर, जिसका वह घर है. टूटा हुआ घर, जिसकी ज़मीन बताते हैं कि पंचायत की है. जैसे वे सब ज़मीनें, जिनमें से सोना निकलता है, या कोयला या अभ्रक, वे हिन्दुस्तान की हैं, और इस तरह उन हिन्दुस्तानियों की बिल्कुल नहीं, जो वहाँ रहते हैं, रहते आए हैं. यह कानून है कोई जिसे वे पुलिसवाले हमेशा कहते हैं – तू हमें सिखाएगा क्या? जिसका वह घर है, जानते हैं कि वह क्या कहता है? कि वे दो साथी, जो उसके सुख-दुख में भाई जैसे थे, उन्हें भाग जाने को क्यों कहा गया और क्या है ऐसी बात, जो पुलिस वाला उससे अकेले में करना चाहता है. वह जो डर है उसकी आँखों में और उसे अभी अलग-अकेला जो कर दिया गया है, इसे आप बता नहीं सकते, बस भुगत सकते हैं.
कैसे पकड़ती है यह फ़िल्म उस खालीपन को, उस आधे टूटे मकान को, जिसकी एक निकली हुई ईंट से बनी जगह में से कैमरा एक रेलगाड़ी को देखता है. रेलगाड़ियाँ बार-बार, गाँव में भी, फिर शहर में भी, फ़िल्म के सारे किरदार रेलगाड़ियों के रास्ते के पास ही रहते हैं. रेलगाड़ियों से कोयला आता है और लोहा और अभ्रक और सोना भी शायद, लेकिन जब वे वहाँ रुकती हैं, उनके आशियानों के पास, तो बस उदास लोग उतरते हैं. अब कारखाने भी उतरेंगे ना, और तुम्हें अमीर बनाएंगे भाइयों, तुम्हारे बेटों को नौकरियां देंगे और उन्हें रिक्शा नहीं चलानी पड़ेगी. बस वे रिक्शा यूनियन की हड़तालों की तरह यहाँ भी लाल झंडे न उठा लें. ऐसा किया तो वाज़िब कदम तो उठाना ही पड़ेगा. कानून भूल गए?
उन तीन में से एक मल सिंह का बेटा मेलू सिंह शहर में रिक्शा चलाता है. हड़ताल के बीच उसके सिर पर एक चोट है, जिसे वह बताता है कि बैलेंस बिगड़ गया और दीवार से टकरा गया, और एक गाड़ी सड़क पर रिक्शों को उठाकर ले जा रही है. एक पूरी कतार जिसे देखते हुए आप मौत की दिशा में जमते जाते हैं. कहीं जादू है कोई अगर सिनेमा में, तो वह सत्य नागपॉल के कैमरे की नज़र में है और निर्देशक गुरविंदर सिंह की इस पूरी फ़िल्म में. उस ठहराव में, जिसमें वे बिना कुछ कहे फ़िल्म को गहरा बनाते जाते हैं, आपके दिमाग पर पक्के मार्कर से छापते जाते हैं. शुद्ध सिनेमा, जिसमें कहानी वहाँ है, जहाँ कैमरा देखता है, रुका रहता है, आपको रोके रखता है. कहीं कहीं तो आपको यह तक लगने लगता है कि अब शायद ऐसा कुछ नहीं, जो इस माध्यम में कहा नहीं जा सकता. जो कुछ भी फ़्रेम में है, वह आपको जानता है और आपसे बात करता है. गुरविंदर, सत्य और फ़िल्म के साउंड डिजाइनर मंदर कुलकर्णी ने पगडंडी की धूल और रेल के फाटक तक में साँसें डाल दी हैं. वे जब कुछ नहीं कहते, तब भी एक साथ इतना कुछ कहते जाते हैं.
क्या अद्भुत दृश्य कि कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप और एक भीड़ आ रही है शोषितों की, दलितों की, जिनके पास उनका एका ही है, जो भी है, शक्ति तो कोई नहीं. कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप, लेकिन मुड़ता है और भीड़ में शामिल हो जाता है. उसकी आँखों में दिए बराबर भी रोशनी नहीं शायद लेकिन उसका खड़े रहना और फिर पलटकर सबके साथ होना दुनिया भर के सिनेमा के कमाल दृश्यों में से एक. एक संकरी गली, उसमें बस देर तक एक दृढ़ भीड़ के कदमों की आहट, जिसके पास न खोने को कुछ है, न पाने को. और देखिए, दर्ज़ी लगातार कपडे सिल रहा है, चक्की वाला आटा पीस रहा है, बस रुककर एक बार भीड़ को देखते हुए. इतने सारे लोग ख़ुशी-ख़ुशी चबूतरों पर खेल रहे हैं और भीड़ सरपंच के घर जाकर रुकती है. कौन है भीड़? खेतों के मज़दूर, जिनका कोई खेत नहीं? अब तो घर भी नहीं. और कहाँ था आपका सिनेमा अब तक, या वह, जिसे आप सिनेमा कहते हैं? शर्म नहीं आई उसे ‘दिल बोले हड़िप्पा’ या ‘सिंह इज किंग’ पर? कैसे करते हैं आप मोहब्बत, गर्व और विकास की बातें? कैसे गा लेते हैं पुत्त जट्टां दे ने गबरू? यही पुत्त, जो सरपंच के घर में बंदूक लेकर खड़े हैं और वहीं सरपंच का एक दलित चौकीदार, जो दुनिया का सबसे कमज़ोर इंसान लगता है. भीड़ आश्वासन के साथ वापस आती है और गोली का इंतज़ार करती रहती है. साथ में गालियाँ सुनकर, कि कैसे उनके बेपढ़े बच्चों की नौकरियां लग जाती हैं इस डेमोक्रेसी में.
आप जो भी हैं, अगर आरक्षण के ख़िलाफ़ चिल्लाना अपना जन्मजात फर्ज़ समझते हैं, या इस कारखानों, नहरों, बाँधों और सड़कों के विकास के पाँव से लटककर आप अमेरिका बनना चाहते हैं तो आपको पंजाब (या जिस भी राज्य में आप हों) के उस गाँव में जाना चाहिए. न जा पाएँ तो यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए. यह बहुत बड़ी कहानी है, जिसे गुरदयाल सिंह (उस उपन्यास के लेखक, जिस पर यह फ़िल्म बनी है) और गुरविंदर सिंह एक छोटे से गाँव के एक मकान और शहर में रिक्शा चला रहे मेलू सिंह के माध्यम से ही कह देते हैं. यह हम सबकी कहानी है. उन सबकी, जिन्हें इस ‘विकास’ ने उनके घरों से निकाल फेंका है. और बिना उनकी बात किए उन सबकी भी, जिनके लिए यह ‘विकास’ स्वर्ग लेकर आया है.
शहर में फ़िल्म नहर के पास भी ठहरती है, जहाँ थककर मेलू सिंह कुछ खाता है (शायद खाता हो, हमें तो पानी पीते ही दिखाया बस) और फिर अपने रिक्शा पर सो जाता है. नहर भी रेलगाड़ी जैसी, जिससे ख़ुशहाली आनी थी, आई भी है शायद लेकिन जट्टों के घर में. मेलू सिंह की माँ दिन भर उनके खेतों से नरमा चुगकर आती है और लौटते हुए बकरियों के लिए थोड़ा सा चारा लाने पर गालियाँ सुनती है. वह याद करती है, वे अच्छे दिन, जब गरीब के असीस के लिए ख़ुशी से दिया करते थे लोग. क्या ऐसा था कभी या उसके दिमाग में कोई पुरानी कहानी है बस? यहाँ फ़िल्म सबसे ज़्यादा बात करती है, उस औरत के मुँह से, जो बाहर ही सो गई है, सर्दी में बाहर. फ़िल्म जहाँ जहाँ बोलती है, वहाँ इतने स्वाभाविक डायलॉग हैं, सजे हुए नहीं लेकिन फ़िर भी चीर डालने वाले. इतनी सारी बातें, जिन्हें पंजाबी में ही बेहतर कहा जा सकता था. लेकिन वह बाहर क्यों सो गई है? कोई वजह नहीं. पूछो तो कोई दुख नहीं. काँटा भी नहीं, जिसे बता दे और कोई निकाल ले. एक चुप किशोर बेटा, जिसे शायद किसी ज़मींदार के लड़के ने मारा है. उसके साथ बकरी को भी. एक बेटी, जो माँ हो गई है, जैसे ऐसे घरों की सब लड़कियाँ हो जाया करती हैं. बकरी को बुखार है और वह रात भर उसके पास बैठी है. क्या क्या कहा जाए अब? क्या मेलू सिंह के साथ रात को बठिंडा की सड़कों पर घूमा जाए, जब वह कोई दोस्त खोज रहा है जिसके घर में सर्दी की उस रात सोया जा सके? रिक्शा चलाने वाले उसके दूसरे उदास दोस्तों से कोई बात की जाए क्या, जो एक खंडहर किले की छत पर कुछ देर पहले उसके साथ पी रहे थे? क्या उखाड़ लिया मेलू सिंह तूने गाँव से यहाँ आकर? सात साल से रिक्शा चला रहा है..
वह दोस्त यह सवाल ख़ुद से भी पूछ रहा है और बता रहा है कि जो वह कहना चाहता है, उसे बिना पिए समझा नहीं जा सकता. कितना कुछ है उसके भीतर! दुनिया भर की बेचैनी और विवशता. अभी रात है, लेकिन दिन में आपने देखा होगा, कि इस किले की छत से सामने किसी फ़ैक्ट्री की एक बड़ी सी चिमनी दिखती है. आप फ़िल्म में जहाँ भी जाएँ, वह चिमनी लगातार आपके सामने रहती है. उसी की ओर शायद रात में मेलू सिंह का वह दोस्त गुस्से में खाली बोतल फेंकता है और कहता है – ‘आग न लगा दूं मैं इस दुनिया को…’
वह लड़की, जो बीमार बकरी को सहला रही है, जिसकी माँ अब अन्दर जाकर सो गई है, और पिता बेटे से मिलने शहर गए हैं – बेटी से बार-बार पूछकर कि वह एक बार मना कर दे तो शायद न जाएं – वह लड़की अचानक उठकर चल देती है. आधी रात उस गाँव की सुनसान गलियों में. कहाँ जाएगी वह लड़की, कोई नहीं जानता. कम से कम मैं तो नहीं. लेकिन सचमुच का एक बड़ा अँधेरा है, जिसे इसी फ़िल्म ने, सत्य के कैमरे ने ही जैसे डिस्कवर किया है. यह अद्भुत सिनेमेटोग्राफ़ी है और निर्देशन भी. अगर मैंने पहले यह नहीं कहा तो अब कहना चाहिए कि गुरविंदर सिंह उन फ़िल्मकारों में शामिल हो गए हैं, जिनकी फ़िल्मों का मैं बेसब्री से इंतज़ार करूंगा. उनमें, जिन्हें उठाकर हमें अपनी हथेलियों पर बिठा लेना चाहिए. फ़िल्म की शुरुआत में और आख़िर में भी, देर रात कोई अन्धे घोड़े का दान माँगता जाता है, कहता हुआ कि यह परम्परा है, और कोई उसे धमका रहा है कि अपने घर भाग जा. कौन डाँटता है दान या भीख माँगने वालों को सबसे ज़्यादा? ‘कर के कमाओ’, आप कहते हैं, और जो कमाते हैं, वे इस फ़िल्म में अपनी नज़रों में छुरियाँ लेकर आपका और मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. वे गालियाँ सुन रहे हैं, अँधेरे में लालटेनें जाकर दो रोटी और साग खाते हुए, और अपने घरों को ढहते देखते हुए, पुलिस से पिटते हुए, महीनों-सालों के लिए जेलों में जाते हुए, यातनाएँ सहते हुए, रिक्शे चलाते और मार खाते हुए, और तब भी इंसानियत, भाईचारे और लोकतंत्र के वास्ते देकर आपसे गिड़गिड़ाकर शरण माँगते हुए – अपने ही घरों, खेतों और जंगलों में. यक़ीन मानिए, जिस दिन उनके पास माचिस होगी और थोड़ा मिट्टी का तेल, वे हमारी ‘विकासशील’ दुनिया में आग लगा देंगे. और आपको याद रखना चाहिए कि पहले उन्होंने पूरी विनम्रता से अपना हक़ माँगा था.
-गौरव सोलंकी