अन्ना हजारे का अंदाज और आंदोलन देखकर किसी को महात्मा गांधी और उनके भारत छोड़ो की याद आई तो किसी को जयप्रकाश नारायण और दूसरी आजादी का खयाल आया. खुद अन्ना हजारे ने जिस तरह राजघाट और अनशन से अपना आंदोलन शुरू किया और आजादी की नई लड़ाई का जिक्र किया, उससे भी अंदाजा मिलता है कि उनके भीतर कहीं गांधी और जेपी के रास्तों पर चलने का जज्बा है. इसके अलावा रामलीला मैदान से लेकर टीवी चैनलों पर दिखे नारे- भ्रष्टाचार भारत छोड़ो से लेकर तीसरी आज़ादी तक से जुड़े- बता रहे थे कि उन पुराने नेताओं और आंदोलनों की याद कहीं न कहीं इस नई मुहिम के दिल में थी.
यह स्वाभाविक भी है कि कोई आंदोलन अपने-आप को अपने देशकाल से और इतिहास से जोड़े. अन्ना के उत्साही समर्थक इसका एक सिलसिला भी बनाने में लगे थे. रामलीला मैदान में दिखा एक दिलचस्प बैनर बता रहा था कि ‘मेरे दादा गांधी जी के साथ थे, मेरे पिता जेपी के साथ थे, मैं अन्ना के साथ हूं.’
तो यह देखना दिलचस्प हो सकता है कि गांधी के साथ, जेपी के साथ और अन्ना के साथ होने में कितना फर्क है और इन तमाम लोगों के छेड़े हुए आंदोलनों में क्या समानता है.
शुरुआत अन्ना के अनशन से करें. यह बहस चल रही है कि अनशन में जो जिद का तत्व था, क्या उसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है. महात्मा गांधी के लिए अनशन अपनी बात मनवाने का नहीं, आत्मशुद्धि का यज्ञ था. वे अक्सर कहा करते थे कि उपवास वे अपनी बात मनवाने के लिए नहीं, प्रायश्चित के लिए करते हैं. भारत विभाजन के वक्त हर कोई उम्मीद कर रहा था कि बापू अपने अनशन से इसे रोक लेंगे. आखिर उन्होंने कहा भी था कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा.
इसमें शक नहीं कि इस आंदोलन को बिल्कुल अहिंसक रखकर तो कम से कम अन्ना ने अपने प्रेरणा-पुरुष को टक्कर दी है लेकिन पाकिस्तान बन गया और गांधी ने उपवास तक नहीं किया. लोगों ने उनसे इस बारे में पूछा भी. गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में इसका कायदे से जवाब दिया है. जवाब यही है कि वे तब उपवास करते थे जब उन्हें लगता था कि लोग उनके साथ हैं. इस बार उन्हें लगा कि वे उपवास करेंगे तो जबरदस्ती अपनी बात थोपेंगे.
क्या अन्ना के पास गांधी की आत्मशुद्धि का जंतर है? उन पर आरोप लग रहा है कि वे अपनी बात मनवा रहे थे. निश्चय ही अन्ना के पास न गांधी का बौद्धिक तेज है, न संवेदनात्मक गहराई, इसलिए शायद वे इस बात की व्याख्या ठीक से नहीं कर पा रहे. लेकिन इसमें शक नहीं कि वे अपने कई शुद्धतावादी कार्यक्रमों में गांधी के करीब जाने की कोशिश करते रहे हैं- और इस आंदोलन को बिल्कुल अहिंसक रखकर तो कम से कम उन्होंने अपने प्रेरणा-पुरुष को टक्कर दी है. जहां तक अनशन का सवाल है, इसमें शक नहीं कि अन्ना के साथ लोग थे. दरअसल यह अनशन इसलिए महत्वपूर्ण नहीं था कि अन्ना हजारे कर रहे थे, बल्कि इसलिए था कि उसमें लोगों की कहीं ज्यादा बड़ी भागीदारी थी. सरकार इसीलिए अनशन से घबराई हुई थी.
वरना इसी देश में सुंदरलाल बहुगुणा ने 40 दिन से ज्यादा का अनशन किया, हाल ही में स्वामी निगमानंद 64 दिन के अनशन के बाद चल बसे, दिल्ली से ही 20 दिन का अनशन करके मेधा पाटकर लौटीं और दस साल से ज्यादा समय से इरोम शर्मिला अनशन कर रही हैं. सरकारों ने इनमें से किसी की नहीं सुनी, अन्ना की इसलिए सुनी कि अन्ना के साथ आ गए लोगों की तादाद उसे डरा रही थी- यह सवाल अलग है कि यह तादाद क्यों आई और कहां से आई.
जहां तक जयप्रकाश नारायण और उनके आंदोलन के साथ अन्ना के आंदोलन की तुलना का सवाल है, दोनों में साम्य इतना भर है कि दोनों भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए, लेकिन इसके बाद दोनों की दिशाएं बिल्कुल अलग हैं. जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरी तरह राजनीतिक आंदोलन था- अपने समय की हुकूमत के खिलाफ. हालांकि उस राजनीतिक आंदोलन के अपने सामाजिक आयाम थे, जिन्हें जयप्रकाश नारायण विचार के स्तर पर संपूर्ण क्रांति की अवधारणा से जोड़ते थे और संगठन के स्तर पर संघर्ष वाहिनी और कई दूसरी संस्थाओं से, जो उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए बनाई थीं.
अन्ना का आंदोलन इस लिहाज से अभी तक इकहरा है. अन्ना अपने भाषणों में या अपनी चिट्ठियों में यह कहते-लिखते रहे हैं कि उनका किसी सरकार, किसी राजनीतिक दल से विरोध नहीं है. ध्यान दें तो उनका आंदोलन मूलतः कानूनी सुधारों को समर्पित है. अभी तक उस आंदोलन को जन लोकपाल चाहिए था जिसके बाद वह चुनावी सुधारों की बात कर रहा है. अन्ना के आंदोलन में अपनी तरह की ईमानदारी और खरापन है, लेकिन उसे बड़े सवालों से जुड़ना बाकी है. इस लिहाज से भले ही अन्ना ने दूसरी या तीसरी आजादी का नारा दिया है, लेकिन उन्हें इस नारे को सार्थक बनाने वाले जरूरी कार्यक्रम गढ़ने बाकी हैं- इस असुविधाजनक सवाल का सामना करना भी कि बिना सत्ता परिवर्तन के या बिना राजनीतिक भागीदारी के पूरा व्यवस्था परिवर्तन कैसे होगा, जिसका ख्वाब उनकी और उनकी टीम की तरफ से दिखाया जा रहा है.
एक स्तर पर अन्ना की चुनौती जेपी से कहीं ज्यादा बड़ी है. जब जयप्रकाश नारायण अपना आंदोलन कर रहे थे तब वे अस्मितावादी आंदोलन उसमें अपना हिस्सा नहीं मांग रहे थे जो हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलताओं से उपजे हैं. लेकिन अन्ना के आंदोलन को कहीं ज्यादा तीखी निगाहों का सामना करना पड़ा. अस्मितावादी राजनीति इसमें दलितों और आदिवासियों का हिस्सा खोज रही थी, अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के बारे में पूछ रही थी. यही नहीं, यह आरोप भी लगाया गया कि अन्ना का आंदोलन मूलतः सवर्ण और शहरी हिंदुओं का आंदोलन था जो आरक्षण विरोधी और उदारीकरण समर्थक हैं. टीम अन्ना को इन आलोचनाओं के जवाब देने होंगे. आखिरकार उन्हें अपनी राजनीतिक दिशा भी साफ करनी होगी, अपनी सामाजिक प्राथमिकताएं भी.
अन्ना की टीम ने गांधी से अहिंसा का मंत्र तो सीख लिया है, वह उनका आत्मपरीक्षण भी सीख ले तो बहुत अच्छा रहेएक दूसरे स्तर पर अन्ना का आंदोलन आसान था. उसके सामने 24 घंटे चलने वाला ऐसा मीडिया था जो पूरी तरह उसके समर्थन में खड़ा, बल्कि झुका हुआ था. फिर यह दौर मानवाधिकारों को लेकर कहीं ज्यादा बड़ी सजगता का है. गुरुवार की रात रामलीला मैदान में अनशनकारियों के बीच बैठे कुछ हुड़दंगी पुलिसवालों को खदेड़ते दिखे. पुलिस ने कुछ नहीं किया, क्योंकि उसे मालूम था कि अगर उसने जरा भी जोर-जबरदस्ती की तो मीडिया तिल का ताड़ बना डालेगा. जेपी के आंदोलन को यह सुविधा नहीं थी. उनके आंदोलनकारियों की पीठ पर बेतरह लाठियां पड़ीं, उनके चेहरे बूटों से रौंदे गए. कई अवैध गिरफ्तारियां हुईं और भयानक दमन भी. आनंद स्वरूप वर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका समकालीन तीसरी दुनिया के ताजा अंक में इमरजेंसी की कुछ ज्यादतियों का डरावना ब्योरा है. इत्तेफाक से इसी अंक में यह जानकारी भी दी गई है कि फिलहाल सूचना और प्रसारण मंत्री बनी हुई अंबिका सोनी ने तब कांग्रेस की उत्साही कार्यकर्ता के तौर पर एक पत्रकार को इसलिए गिरफ्तार करवाया था कि वह मानवाधिकार हनन का एक मामला उठा रहा था. उस आंदोलन के दौरान खुद जेपी को अत्याचार झेलने पड़े. इस लिहाज से जेपी का आंदोलन नौजवानों की सहनशीलता का नायाब उदाहरण था. अन्ना की टीम और उनके आंदोलन को फिलहाल ऐसे कड़े इम्तिहान से नहीं गुजरना पड़ रहा है. जेपी की तुलना में अन्ना हजारे को पुलिसवाले हाथ जोड़कर तिहाड़ ले गए और फिर उनसे तिहाड़ छोड़ने के लिए हाथ जोड़कर ही अनुरोध करते रहे.
बहरहाल, अन्ना की टीम ने गांधी से अहिंसा का मंत्र तो सीख लिया है, वह उनका आत्मपरीक्षण भी सीख ले तो बहुत अच्छा रहे. गांधी जीवन भर बहुत सख्त आत्मनिरीक्षण में जुटे दिखते हैं. वे पहले सनातनी और परंपरावादी हिंदू नजर आते हैं, बाद में प्रगतिशील और उदारमना वैष्णव और आखिरी में वे जैसे इन सारे चोलों की व्यर्थता समझ जाते हैं. उनके जैसा आदमी ही कह सकता था, ‘पहले मैं समझता था कि ईश्वर ही सत्य है, अब समझ गया हूं कि सत्य ही ईश्वर है.’
टीम अन्ना के दो सदस्यों, अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के सामने आत्मनिरीक्षण का यह प्रश्न गांधी के पारिवारिक और वैचारिक वारिस गोपालकृष्ण गांधी ने एक टीवी कार्यक्रम के दौरान रखा था. अरविंद केजरीवाल ने ईमानदारी से कहा कि वे पहली बार ऐसा आंदोलन देख रहे हैं और समझ रहे हैं कि उन्हें इससे काफी कुछ सीखना है. प्रशांत भूषण ने भी माना कि आत्मनिरीक्षण उनके लिए लगातार जरूरी है.
इसमें शक नहीं कि अन्ना और उनकी टीम में एक हद तक यह आत्मनिरीक्षण और खुद को बदलने की चाह दिखी है. खुद अन्ना हजारे ने एक स्थानीय नेता की जोशोखरोश वाली मुद्रा छोड़कर एक राष्ट्रीय नेता का धैर्य दिखाया. वैचारिक स्तर पर भी वे पहले से कहीं ज्यादा ठोस थे. अनशन तो उन्होंने पहले भी किए हैं, लेकिन अहिंसा पर पहली बार उन्होंने इतना जोर दिया. इसी तरह अन्ना के अनशन के दौरान ही अरविंद केजरीवाल ने शर्मिला इरोम के अनशन और उसके मुद्दे के समर्थन में खुली चिट्ठी लिखकर बताया कि वे दूसरे और जरूरी मुद्दों के लिए बांहें फैलाने को तैयार हैं.
लेकिन यह रास्ता अभी लंबा है. अन्ना में निश्चय ही गांधी वाली शख्सियत या उन जैसा फैलाव नहीं है, लेकिन जो गांधी की रोशनी में देर तक चले तो वह कुछ गांधी हो ही जाता है. जेपी भी इसी अर्थ में गांधी के वारिस हो पाते हैं. भरोसा करना चाहिए कि अन्ना भी गांधी को सिर्फ रणनीति के स्तर पर नहीं, अपनी रोशनी की तरह भी इस्तेमाल करेंगे.