शिवेंद्र राणा
एक वैचारिक द्वंद्व में फँसा देश का लोकतंत्र कश्मकश के दौर से गुज़र रहा है। संसद सरकार और विपक्ष के सैद्धांतिक संघर्ष का अखाड़ा बनी है, जिसमें न्यायधीश भारतीय जनतंत्र ने अपने नेत्रों पर न्याय की पट्टी बाँध रखी है। वह किंकर्तव्यविमूढ़ भी नहीं है, बल्कि ग़लत मार्ग पर है। उपरोक्त वक्तव्य का विशेष संदर्भ राहुल गाँधी के संसदीय सदस्यता गँवाने से सम्बन्धित है। जनता का एक बड़ा वर्ग उन्हें अनैतिक तथा नासमझ कहकर कोस रहा है। लेकिन क्यों और कैसे? इसे समझना होगा।
राहुल गाँधी 2019 के मोदी सरनेम मानहानि मामले में दोषी ठहराये जाने के बाद संसद सदस्यता से अयोग्य घोषित कर दिये गये। जनप्रतिनिधि अधिनियम-1951 की धारा-8(3) के अनुसार, यदि किसी सांसद या विधायक को दो वर्ष या उससे अधिक सज़ा होती है, तो उसकी सदस्यता स्वत: समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त सज़ा पूरी होने के छ: साल तक वह चुनाव नहीं लड़ सकेगा। इसी क़ानून की धारा-8(4) के अनुसार, न्यायालय द्वारा किसी जनप्रतिनिधि के दोषी ठहराये जाने पर उसकी अपील लम्बित रहने या उक्त निर्णय को उच्च अदालत में चुनौती दिये जाने पर उसकी सदस्यता बनी रहेगी। इस मसले से अनैतिकता और मूर्खता का क्या सम्बन्ध?
दरअसल जुलाई, 2013 में सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फ़ैसले में उक्त धारा को असंवैधानिक कर दिया। इस आदेश के विरुद्ध तत्कालीन संप्रग सरकार संसद में अध्यादेश लेकर आयी, जो कैबिनेट से पास भी हो चुका था। तब राहुल गाँधी ने सार्वजनिक रूप से इस अध्यादेश की प्रति फाड़ते हुए कहा कि यह सरासर बकवास है और इसे फाडक़र फेंक देना चाहिए।
मतलब, राहुल ने जिस अध्यादेश को पारित होने से रोका और न्यायपालिका के आदेश का सम्मान बने रहने दिया, उसी के कारण अपनी सदस्यता गँवा बैठे। अत: देश के तथाकथित राजनीतिक-सामाजिक जागरूक वर्ग के लिए राहुल गाँधी उपहास और आलोचना का केंद्र बने हुए हैं। उन्हें समझदारी और नैतिकता की उलाहना दी जा रही है। किन्तु सदस्यता जाने पर राहुल गाँधी का मज़ाक़ उड़ाने या कोसने वाले किसी भी व्यक्ति को क्या देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की शिकायत करने का नैतिक अधिकार है? क्योंकि ये लोग एक व्यक्ति नहीं, बल्कि उस विचार को अपमानित कर उसका उपहास उड़ा रहे हैं, जो राजनीतिक लाभ से प्रेरित सही; लेकिन चुनावी भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास कर रहा था।
यदि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के विरुद्ध लाये गये अध्यादेश को रोकना, भ्रष्टाचारियों-अपराधियों के संसद तथा विधानमंडलों में प्रवेश को प्रतिबंधित करना अनैतिकता एवं नासमझी है, तो फिर नैतिकता और समझदारी क्या है? किसी स्वकेंद्रित सत्ता को तर्कहीन, विचारहीन समर्थन देना? विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार को बढ़ाना? सरकारी संस्थानों में मनमाने ढंग से नियुक्तियाँ करना? शिक्षा का बाज़ारीकरण करना? सनातन धार्मिक स्थलों, ईश्वर के दर्शन के रेट तय करना? मेहुल चोकसी जैसे भगोड़े के ख़िलाफ़ जारी रेड कार्नर नोटिस पर लापरवाही बरतना? सुशासन के नाम पर देश को कार्यपालिका की गिरफ़्त में जकडऩा? निष्पक्ष पत्रकारों, मीडिया संस्थानों का गला घोंटने का प्रयास करना? डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल 2022 द्वारा आरटीआई क़ानून को कमज़ोर करना? कृषि और किसान हितों के ख़िलाफ़ क़ानूनों का निर्धारण करना? अनावश्यक आवास से लेकर अनावश्यक सरकारी सुरक्षा देना? परिवारवाद, वंशवाद को प्रश्रय देना? भ्रष्टाचारियों के बचाव करना? नौकरशाही को प्रश्रय देना? भ्रष्टाचार पर आँखें मूँदे रहना? विभिन्न केंद्रीय विभागों में रिक्त पड़े पदों पर भर्ती न करना? बेरोज़गारी बढऩे देना? और ऐसे ही न जाने क्या-क्या राष्ट्रवादी निर्णय करना क्या नैतिकता और समझदारी है?
क्या हम यूटोपिया के युग में जी रहे हैं, जहाँ विरोध और समर्थन के नैतिक-अनैतिक पक्ष का बोध ही नहीं रहा? यदि ऐसा है, तो देश का मानस पटल विकृत हो रहा है। जो लोग आज राहुल गाँधी को अपमानित करने के लिए असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, उन्हें संभवत: लोकनीति का ज्ञान नहीं है। अमर्यादित भाषा-शैली पतनशीलता का प्रतीक है। किसी व्यक्ति या समाज की भाषा का विकृत होना उसके विखंडन का प्रमाण है। जब कोई समाज नैतिक पतनशीलता की ओर बढऩे लगता है, तो सबसे पहले उसकी भाषायी मर्यादा ढहती है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि किसी के अंधविरोध या अंध-समर्थन में इतने उग्र और व्यग्र मत हो जाइए कि शुभ-अशुभ, नीति-अनीति का भान ही न रहे।
कांग्रेस की आलोचना कीजिए। मुस्लिम तुष्टिकरण, चीन के साथ सन् 1962 के युद्ध में हार, हिन्दुओं की धार्मिक मान्यताओं को अपमानित करने, देश में भ्रष्टाचार की शृंखला आयोजित करने के लिए भारतीय राजनीति में वंशवाद के विषबीज का रोपण करने, सिख दंगों और ऐसे ही कितने दुष्कृत्यों के लिए बिलकुल उसकी आलोचना कीजिए। किन्तु उसके सकारात्मक कार्यों की प्रशंसा का नैतिक बल भी रखिए। सोचिए, यदि कांग्रेस खाद्य सुरक्षा विधेयक और मनरेगा क़ानून नहीं लायी होती, तो कोरोना-काल में तालाबंदी के समय देश की आधी आबादी मर गयी होती। उसके काल में ही प्रवर्तित आरटीआई क़ानून ने आम आदमी के साथ में लोकतांत्रिक अधिकारों की कुँजी सौंप दी। कांग्रेस द्वारा देश के हित एवं विकास में दिये गये योगदानों की एक लम्बी सूची है, जिसे ज़ोर से चिल्लाकर झुठलाया नहीं जा सकता।
राहुल गाँधी की राजनीतिक अपरिपक्वता का मज़ाक़ उड़ाइए। विदेश में लोकतंत्र को शर्मसार करने वाले वक्तव्यों के लिए उनकी कटु आलोचना कीजिए। क्योंकि भारत के लोकतंत्र और जनता के आत्मबल को अपमानित करते हुए दूसरे देशों से राष्ट्र के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की माँग करके उन्होंने वीभत्स अपराध किया है। किन्तु भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके प्रयासों के लिए उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा भी कीजिए। हो सकता है सत्तापक्ष राहुल गाँधी को एक अपरिपक्व नेता मानता हो; लेकिन चुनावी सुधार के लिए वह एक विशिष्ट व्यक्ति हैं। क्या इसके लिए वह उपहास योग्य हैं?
स्वयं के अयोग्य घोषित होने पर राहुल गाँधी की प्रतिक्रिया थी- ‘मैं भारत की आवाज़ के लिए लड़ रहा हूँ। मैं हर क़ीमत चुकाने को तैयार हूँ।’ उनके इस बयान को समर्थन दिया जाना चाहिए। उन्होंने अपराधी, भ्रष्ट तत्त्वों के विधानमण्डलों में प्रवेश पर भारत की आवाज़ सुनी भी और उठायी भी। लेकिन अपनी भी सदस्यता गँवाकर इसकी क़ीमत चुकायी। इस विवाद में एक पक्ष ऐसा भी है, जो इसे राजनीतिक वर्ग की भाषायी अशिष्टता के लिए एक चेतावनी मान रहा है। सही भी है। यदि इस अदालती निर्णय से राजनीति में भाषायी मर्यादा स्थापित होती है, तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। क्योंकि आज राहुल गाँधी की सदस्यता समाप्त होने पर तालियाँ पीटते हुए बल्लियों उछलने वालों के दामन भी पाक-साफ़ नहीं है। कुछ सबक़ उनके लिए भी ज़रूरी हैं।
पिछले कांग्रेस से आज़ाद एक नेता ने कहा कि प्रधानमंत्री बदले से प्रेरित होकर कोई काम नहीं करते। वास्तव में ऐसा है क्या? दूसरे उदाहरण क्यों तलाशना? राहुल गाँधी के अयोग्य घोषित होते ही उन्हें तुरन्त सरकारी आवास ख़ाली करने का नोटिस थमा दिया गया। नियमानुसार तो यह कार्यवाही बिलकुल उचित है; लेकिन सार्वजनिक जीवन में कुछ समयानुकूल विकल्प भी होते हैं और कुछ मर्यादाएँ भी। यदि देश में क़ानूनन-कार्यशैली की ही बात हो, तो फिर वर्तमान ‘सदाचारी सरकार’ के लिए मुँह छुपाना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि अनैतिक कार्यों की सूची बड़ी लम्बी हो जाएगी, जिससे उसे असहज स्थिति का सामना करना पड़ जाएगा। सत्तापक्ष द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति असंवेदनशील एवं कठोर रवैया नहीं अपनाया जाना चाहिए। लोकतंत्र में सरकारें परिवर्तनशील होती हैं। सत्ता का यह खेल तो चलता रहेगा। लेकिन सामाजिक, राजनीतिक मर्यादाएँ ध्वस्त नहीं की जानी चाहिए और न ही कोई कलुषित परम्परा स्थापित की जानी चाहिए। मैं राहुल गाँधी का कठोर आलोचक रहा हूँ। उनके प्रति मेरी यह धारणा निजी नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। वर्तमान राजनीतिक दौर में देश को एक सशक्त विपक्ष और सबसे बढक़र मज़बूत विपक्षी नेता की ज़रूरत है। कांग्रेस वह विपक्ष दल बन सकती है; लेकिन राहुल गाँधी विपक्ष के मज़बूत नेतृत्वकर्ता बन सकते हैं, इसमें संशय है। समस्या यह है कि वह अपनी ज़िद में वास्तविक जननेता के उभार का मार्ग बन्द करके बैठे हैं। देश के जनतांत्रिक हितों को नेहरू परिवार की महत्त्वाकांक्षा पर बलि नहीं चढ़ाया जा सकता।
लेकिन जिस दिन राहुल गाँधी ने अध्यादेश की प्रति सार्वजनिक रूप से फाड़ी थी, उस दिन वह साहसी राजनेता प्रतीत हुए थे। उनके विरोध के कारण ही संप्रग सरकार अध्यादेश को पारित करने से पीछे हट गयी। राहुल ने अकेले वो कर दिखाया, जो नैतिकता का दम्भ रखने वाली सरकारों और नेताओं के बूते की बात नहीं है। उस दृश्य को याद करिए, जब सर्वोच्च न्यायालय के आलोच्य आदेश के विरुद्ध सर्वदलीय सम्मेलन में देश ने राजनीतिक दलों की एकता का अद्भुत दृश्य देखा। क्या दक्षिणपंथी, क्या वामपंथी-समाजवादी, सभी इकट्ठे हो गये थे। ऐसे में अगर किसी को यह भ्रम है कि इस देश में सत्तापक्ष और विपक्ष एकमत नहीं हो सकते, तो वह ग़लत है।
हालाँकि इस पूरे मामले में सर्वाधिक दोषी जनता है। प्रतीत होता है जैसे कुएँ में ही भाँग पड़ी है। यह अंध-राष्ट्रभक्ति का नशा ऐसा है, जहाँ उचित-अनुचित, सत्य-असत्य की कोई विभाजक रेखा ही नहीं रह गयी है। जैसा कि प्रो. जॉन क्लेनिंग लिखते हैं- ‘राजभक्ति का एक वास्तविक $खतरा यह होता है कि यह झुण्ड-सोच, अंध-राष्ट्रवाद, देशाहंकार की ख़ास क़िस्मों से जुड़ जाती है और सामाजिक तौर पर इतने तरीक़ों से विध्वंसक हो जाती है, जितना कि कोई भी गुण भ्रष्ट होने के बाद नहीं हो पाता। राष्ट्रवाद और देशभक्ति के अन्दर पथभ्रष्ट अतिरेक का शिकार हो जाने की प्रवृत्ति विशेष तौर पर मौज़ूद रहती है।’
इसे भारतीय राजनीति के संदर्भ में समझने की विशेष ज़रूरत है। किसी राजनीतिक दल या विचारधारा के समर्थक होने का अर्थ यह नहीं कि कोई उसके कुकृत्यों, कुप्रवृत्तियों के अनुपालन का समर्थन करने लगे। कोई भी नेतृत्व या दल राष्ट्र से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। किसी भी सत्ता के कार्य यदि तर्क की कसौटी पर सही सिद्ध न हों, तो इसका तात्पर्य है कि वह राष्ट्र के लिए शुभ नहीं है। ऐसी सत्ता का तर्कहीन समर्थन और सहयोग जो भी हो, राष्ट्रवाद तो कदापि नहीं हो सकता।
उपरोक्त विवेचना समझने के लिए देश में सरकार के सहयोग से मीडिया के विशेष वर्ग द्वारा बनाये हुए आभासी वातावरण पर मत जाइए। स्वयं तथ्यों को खोजिए, मुद्दों को समझने व उनके विश्लेषण का प्रयत्न कीजिए। आप ख़ुद को सत्य के निकट पाएँगे। प्रसंगवश भारतीय जनमानस की वर्तमान मनोदशा को देखकर ब्राजीलियन कवयित्री मार्था मेदेइरोस की कविता ‘धीमी मौत’ की कुछ पंक्तियाँ स्मृति में उभर आयी हैं :-
‘जो बन जाते हैं आदत के ग़ुलाम,
चलते रहे हैं हर रोज़ उन्हीं राहों पर,
बदलती नहीं जिनकी कभी रफ़्तार,
जो अपने कपड़ों के रंग बदलने का जोखिम नहीं उठाते,
और बात नहीं करते अनजान लोगों से,
वे मरते हैं धीमी मौत।’
भारत के तथाकथित जागरूक राजनीतिक-सामाजिक वर्ग को समझना होगा कि उसकी नैतिकता एक धीमी मौत मर रही है। स्वयं पर एक एहसान करिए और सोचिए कि वास्तव में नैतिकता क्या है और नासमझ कौन है? अपना मूल्यांकन कीजिए, तब शायद क़रीब आती धीमी मौत से बचने का मार्ग मिल जाए।
(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)