छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों पर 259 उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे हैं. इनमें से तकरीबन 200 उम्मीदवार ऐसे हैं जो जीतने के लिए नहीं बल्कि चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए मैदान में उतारे गए हैं. कहा जा रहा है कि इन उम्मीदवारों को वर्ग विशेष का वोट बैंक प्रभावित करने के लिए प्रायोजितरूप से चुनावी मैदान में उतारा गया है. इस तरह से लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कई समीकरण बनाए और बिगाड़े जा रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा ही एक समीकरण सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए नई चुनौती बनकर उभर रहा है. यह चुनौती दे रहे हैं सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ रहे दलित और आदिवासी उम्मीदवार. वे भले ही जीत हासिल ना कर पाएं लेकिन अपने समुदाय विशेष के वोट बैंक को जरूर प्रभावित कर रहे हैं.
पिछले साल छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजे तय करने में ऐसा ही एक राजनीतिक दल अखिल भारतीय सतनाम सेना काफी असरदार साबित हुआ था. अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाले सतनामी वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले इस राजनीतिक दल का गठन चुनाव के कुछ महीने पहले ही हुआ था.
राज्य में सतनामी समुदाय के चार धाम हैं. सबसे बड़ा गिरोधपुरी है. इसके बाद आगमन, भंडारपुरी और खपरी आते हैं. गिरोधपुरी और आगमन धाम के प्रमुख विजय गुरु हैं जिनका समुदाय पर सबसे ज्यादा प्रभाव है. जबकि अखिल भारतीय सतनाम सेना का गठन करने वाले गुरु बालदास भंडारपुरी धाम के मुखिया हैं. भले ही गुरु बालदास का राजनीतिक दल अभी नया हो लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता नई नहीं है. वे राज्य सरकार की नीतियों का विरोध करते रहे हैं.
पिछले साल के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव नतीजों पर जाएं तो स्पष्ट होता है कि अखिल भारतीय सतनाम सेना की वजह से राज्य की दस सीटों पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. दस सीटों का यह आंकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है कि भाजपा (49 सीट) और कांग्रेस (39 सीट) को मिली कुल सीटों का अंतर भी इतना ही है. इन्हीं दस सीटों के अंतर के कारण भाजपा ने तीसरी बार छत्तीसगढ़ में सरकार बनाई है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि ये दस सीटें सतनामी बहुल सीटें थीं, जहां सतनाम सेना ने अपने उम्मीदवार उताकर कांग्रेस की जीत का सपना चूर-चूर कर दिया. विधानसभा चुनाव में सतनाम सेना ने कुल 90 सीटों में से 21 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इन 21 सीटों पर केवल 2 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें थी और शेष सामान्य श्रेणी में थीं. सतनाम सेना के उम्मीदवारों के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत कांग्रेस और बसपा को झेलनी पड़ी. वहीं दूसरी तरफ भाजपा (जिससे सतनामी समाज आरक्षण कटौती के कारण नाराज चल रहा था) को जीत हासिल हो गई. मुंगेली में सतनाम सेना के उम्मीदवार रामकुमार टंडन ने कांग्रेस उम्मीदवार चंद्रभान बारमाते के 2,304 वोट काटे, रही-सही कसर नोटा (नन ऑफ अबव) (5,025 वोट) ने पूरी कर दी. जबकि बारमाते केवल 2,045 वोट से भाजपा उम्मीदवार पुन्नूलाल मोहिले से चुनाव हार गए. कवर्धा सीट पर भी सतनाम सेना ने 2,858 वोट काटे. यही कारण रहा कि कांग्रेस के दिग्गज उम्मीदवार मोहम्मद अकबर महज 2,558 वोट से भाजपा के नए नवेले अशोक साहू से चुनाव में पराजित हो गए. फिलहाल सेना ने लोकसभा चुनाव में भी पांच सामान्य सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके कांग्रेस का खेल बिगाड़ने की तैयारी कर ली है.
यदि हम चुनावों खड़े हो रहे सामान्य उम्मीदवारों के सामने आ रही इस चुनौती के मूल की तरफ की देखें तो उसे हम देश के संविधान में पाते हैं. संविधान में किसी धर्म विशेष के लिए सीट को आरक्षित करने की पद्धति को नहीं अपनाया गया है. लेकिन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं. 1932 में महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के बीच पूना संधि के बाद देश में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था बनी थी. दलितों को राजनीतिक तौर पर एकजुट करने के लिए डॉ अंबेडकर ने 1936 में इंडिपेंडेट लेबर पार्टी का गठन किया. जिसने 1937 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव चुनाव में 15 सीटें भी जीतीं. बाद में उन्होंने ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन भी बनाया.
देश में फिलहाल 20 ऐसे दल हैं, जो अपने नामों में अंबेडकर, शोषित, दलित या रिपब्लिकन जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर दलित या आदिवासी वर्ग के कल्याण का दावा करते हैं. चाहे मायावती के नेतृत्व वाली बसपा हो, रामविलास पासवान की लोजपा या पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी, रामदास आठवले की आरपीआई सभी पार्टियां दलित वर्ग को अपने पाले में खड़ा करने की कोशिश में लगी रहती हैं. आंकडों में बात करें तो हिंदुस्तान की कुल 543 लोकसभा सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 79 और अनुसूचित जनजाति के लिए 42 सीटें आरक्षित हैं. शेष 422 सामान्य सीटें हैं. वर्तमान नियमों के हिसाब से आरक्षित सीट से सामान्य वर्ग का कोई उम्मीदवार नहीं लड़ सकता. लेकिन सामान्य सीट से किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के उम्मीदवार के चुनाव लड़ने पर कोई पाबंदी नहीं है. गडबड़झाले की शुरुआत यहीं से होती है. संविधान की इसी छूट के कारण अमूमन देश की हर तीसरी सीट पर दलित और आदिवासी वर्ग के उम्मीदवार भी चुनाव लड़ रहे होते हैं. इससे उस सीट पर किसी विशेष जाति या समुदाय का वोट बैंक सीधे तौर पर प्रभावित होता है. इसका खामियाजा सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार उठाते हैं क्योंकि कई बार जीत और हार का अंतर महज कुछ ही वोटों का होता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण भी हम छत्तीसगढ़ से ही ले सकते हैं. बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का गढ़ कहलाने वाली लोरमी सीट भाजपा प्रत्याशी तोखन साहू महज 6,241 वोटों से जीते हैं. इस अनारक्षित सीट पर साहू को 52,302 वोट मिले. वहीं इलाके में अच्छी पकड़ रखने वाले कांग्रेस उम्मीदवार धरमजीत सिंह को 46,061 वोट पाने के बाद भी शिकस्त का सामना करना पड़ा. दरअसल धरमजीत सिंह के विजय रथ को अनुसूचित जाति वर्ग (सतनामी समुदाय) के उम्मीदवार गुरु सोमेश ने रोक दिया. चुनाव परिणाम में तीसरे स्थान पर रहे अखिल भारतीय सतनाम सेना के उम्मीदवार सोमेश को 16,649 वोट मिले. यह संख्या जीत-हार के अंतर से काफी ज्यादा है. सोमेश ने जो वोट काटे वे सतनामी (दलित) समुदाय के थे और इन्हें कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है. चूंकि सोमेश खुद सतनामी थे इसलिए उनके समुदाय ने कांग्रेस के बजाय उन्हें ही वोट देना वाजिब समझा.
लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के बारे में बात करते हुए अखिल भारतीय सतनाम सेना के राष्ट्रीय महासचिव लखमू सतनामी तहलका को बताते हैं, ‘पूरे प्रदेश में 70 से 80 लाख सतनामी निवास करते हैं. छत्तीसगढ़ में हमने पांच प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं. जिन लोकसभा सीटों पर हमने अपने उम्मीदवार उतारे हैं वे भी सतनामी बहुल सीटें हैं. अब यह अलग बात है कि वे अनारक्षित हैं.’ लखमू सतनामी जिन पांच क्षेत्रों रायपुर, बिलासपुर, कोरबा, दुर्ग और राजनांदगांव की बात कर रहे हैं, वे सभी सामान्य लोकसभा सीट हैं. दिलचस्प बात है कि सेना ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित प्रदेश की एकमात्र जांजगीर चांपा से भी पहले प्रत्याशी घोषित किया था लेकिन बाद में उसे मुकाबले से हटा लिया. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? इसका कोई ठोस जवाब लखमू सतनामी के पास नहीं है. लखमू कहते हैं कि जांजगीर चांपा से खड़े सारे उम्मीदवार उनके ही समुदाय के हैं इसलिए उनकी पार्टी ने उन्हें चुनौती देना ठीक नहीं समझा. जबकि महासमुंद सीट से घोषित हुमन बंजारे के नाम वापस लेने के बारे में लखमू कहते हैं, ‘ उन्होंने दबाव में आकर अपना नाम वापस ले लिया.’ किसने दबाव बनाया? यह पूछने पर वे कहते हैं, ‘ छोड़िए ना, सबको तो पता है. हमारे साथ धोखा हो गया. अब अगली बार हम ऐसी परिस्थितियों के लिए सतर्क रहेंगे.’ ध्यान देने वाली बात है कि महासमुंद से कांग्रेस ने अजीत जोगी को टिकट दिया है. राज्य में जोगी और सतनामी समुदाय एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं. ऐसे में सतनाम सेना के उम्मीदवार हुमन बंजारे का नाम वापस लेना, इस बात का इशारा करता है कि उन्होंने जोगी के समर्थन में हथियार डाल दिए. यदि ऐसा नहीं होता तो जोगी के लिए मुश्किल हो सकती थी क्योंकि महासमुंद सीट पर सतनामियों की अच्छी-खासी (15 फीसदी) आबादी निवास करती है.
छत्तीसगढ़ में ज्यादातर नेता अनारक्षित सीटों पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों के खड़े होने को एक समस्या की तरह देखते हैं. भाजपा की प्रदेश उपाध्यक्ष प्रभा दुबे कहती हैं ‘जब संविधान के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवारों के लिए सीट आरक्षित की गई हैं तो उन्हें इस तरह सामान्य सीट से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. इससे उम्मीदवार से नाता रखने वाले समुदाय अपना वोट जाति के आधार पर देकर परिणामों को प्रभावित करते हैं. बात एक या दो सीट की हो या महज संयोग की हो तब तो ठीक है. लेकिन योजनाबद्ध तरीके से अनारक्षित सीटों से आरक्षित जातियों का चुनाव लड़ना पूरी प्रक्रिया को प्रभावित करता है.’ वहीं कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता रविंद्र शुक्ला कहते हैं, ‘ इस पर कुछ कहना ठीक नहीं होगा. लेकिन इतना जरूर है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’
हालांकि नेता इस मसले पर चाहे जो सोचें चुनाव आयोग की इसपर स्पष्ट और तटस्थ राय है. छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर कहते हैं, ‘चुनाव आयोग ने हर सीट को लेकर अपनी परिभाषा तय कर रखी है. ऐसे में यदि सामान्य सीट से कोई दलित या आदिवासी उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं तो इसमें हम क्या कर सकते हैं. यह तो राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों पर निर्भर करता है कि वे सामान्य सीट से किसे टिकट दे रहे हैं.’