अनर्थ व्यवस्था

कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के जीडीपी आँकड़े डराने वाले हैं। इस दौरान जीडीपी विकास दर माइनस 23.9 फीसदी हो जाने से केंद्र सरकार के उन दावों पर सवाल उठ खड़े हुए हैं, जिनमें वह चिन्ता नहीं करने की बात कह रही थी। निश्चित ही इससे मोदी सरकार के आर्थिक प्रबन्धन की पोल खुल गयी है। दुनिया के सभी देशों में कोरोना-काल में भारत की यह जीडीपी दर सबसे खराब है। कोरोना वायरस ने देश में करोड़ों लोगों की नौकरी छीन ली है और बहुत बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र के कर्मचारी आधी-पौनी तनख्वाह में काम कर रहे हैं। विशेषज्ञ साफ संकेत दे रहे हैं कि अगर समझदारी से अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश नहीं की गयी, तो आने वाला समय और कठिन हो सकता है। अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान हालत और भविष्य की चिन्ताओं को रेखांकित करती विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

देश की आर्थिक स्थिति पटरी से उतर रही है, इसके संकेत पिछले साल 27 अगस्त को ही मिल गये थे; जब भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने केंद्र सरकार को 24.8 अरब डॉलर यानी लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपये लाभांश और सरप्लस पूँजी के तौर पर देने का फैसला किया था। तब बहुत-से आर्थिक जानकारों ने अर्थ-व्यवस्था को लेकर सवाल उठाये थे और यह भी कहा था कि केंद्रीय बैंक आरबीआई अपनी कार्यकारी स्वायत्तता खो रहा है। अब ठीक एक साल बाद, जब जीडीपी की पिछले 40 साल की सबसे कमज़ोर और निराश करने वाली -23.9 की विकास दर सामने आयी है; तो चिन्ता बढ़ गयी है। यह चिन्ता इसलिए भी और गम्भीर है कि सीमा पर चीन के साथ तनाव गम्भीर होता जा रहा है, और युद्ध के काले बादल मँडराते दिख रहे हैं। इसका निवेश, खासकर विदेशी निवेश पर विपरीत असर पडऩे की आशंका है; जो विशेषज्ञ पहले से ही जता रहे हैं। ऐसे हालात में कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था अनेक संकटों का एक बहुत बड़ा कारण बन सकती है। बेशक भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम ने कहा है कि कोरोना वायरस महामारी से खस्ताहाल हुई भारतीय अर्थ-व्यवस्था और जीडीपी अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र चुकी है और अगस्त के दौरान कई सेक्टरों में कारोबार बढऩे के संकेत मिले हैं।

पहले से खराब हो रही अर्थ-व्यवस्था पर कोविड-19 ने और कहर ढाया है। केंद्र सरकार पैसा जोडऩे के लिए जिस तेज़ी से निजीकरण के रास्ते पर जा रही है, उससे भी संकेत मिलते हैं कि आर्थिक हालत पर नियंत्रण के लिए सरकार को क्या-क्या करना पड़ रहा है। ये रिपोट्र्स हैं कि काफी कुछ निजी क्षेत्र में देने के बाद अब केंद्र सरकार अपने स्वामित्व वाली कई कम्पनियों के निजीकरण की तैयारी कर रही है। केंद्र सरकार ने 18 क्षेत्रों, जिनमें पेट्रोलियम, बैंकिंग, रक्षा उपकरण, बीमा, इस्पात जैसे महत्त्वपूर्व क्षेत्र शामिल हैं; को निजी हाथों में देने की कोशिश की है।

राजनीतिक रूप से भी यह केंद्र सरकार के लिए बहुत संकट की घड़ी है। गिरती अर्थ-व्यवस्था को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार सरकार पर हमला कर रहे हैं। उनके लगातार इस विषय पर बोलने से जनता का भी ध्यान इस तरफ जा रहा है। कई आर्थिक विशेषज्ञ भी इस हालत को गम्भीर बता रहे हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का तो कहना है कि देश की जीडीपी के आँकड़ों से सभी को अलर्ट हो जाना चाहिए। उनके मुताबिक, जब इनफॉर्मल सेक्टर के आँकड़े जोड़े जाएँ, तो अर्थ-व्यवस्था -23.9 फीसदी से भी नीचे चली जाएगी, जिससे स्थिति और भी बदतर हो सकती है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीडीपी की कमज़ोर दर को कोरोना वायरस के कारण उपजी समस्या बताया है। हालाँकि रघुराम राजन कहते हैं कि भारतीय अर्थ-व्यवस्था को दुनिया में कोरोना वायरस से सबसे ज़्यादा प्रभावित अमेरिका और इटली से भी कहीं ज़्यादा नुकसान हुआ है।

ब्रिकवर्क रेटिंग्स ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि भारत सरकार की वित्तीय हालत काफी नाज़ुक है। रिपोर्ट के अनुसार, आयकर और जीएसटी संग्रह में इस साल ज़बरदस्त गिरावट आयी है। कोविड-19 महामारी और उसकी रोकथाम के उद्देश्य से लागू की गयी तालाबन्दी ने आर्थिक गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित किया है और राजस्व को ज़बरदस्त नुकसान पहुँचा है। इससे राजकोषीय घाटा बढ़ा है। ब्रिकवर्क रेटिंग्स के मुताबिक, लॉकडाउन से आर्थिक गतिविधियों पर प्रभाव चालू वित्त वर्ष के पहले तीन महीने के राजस्व संग्रह में झलकता है।

भारत के महालेखा नियंत्रक (सीजीए) के आँकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार का राजस्व संग्रह चालू माली साल की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में पिछले साल की इसी तिमाही के मुकाबले बहुत कम रहा। आयकर (व्यक्तिगत और कम्पनी कर) से प्राप्त राजस्व जून तिमाही में 30.5 फीसदी और वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लगभग 34 फीसदी कम रहा। आँकड़ों के मुताबिक, इससे राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में बजटीय लक्ष्य का 83.2 फीसदी पर पहुँच गया।

हाल में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 4 सितंबर की के.वी. कामथ समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक की है। इससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के बहुत-से चिन्ताजनक पहलू सामने आते हैं। कोरोना वायरस महामारी से सबसे ज़्यादा मुश्किल वाले 26 सेक्टर के बारे में कामथ समिति ने कर्ज़दारों के कर्ज़ की री-स्ट्रक्चरिंग (पुनर्संरचना) को लेकर कई सुझाव दिये हैं। हालाँकि इसमें जो सबसे चिन्ताजनक पहलू है, वह यह है कि इसमें कोरोना-काल में भी अच्छा बिजनेस करती रहे केमिकल सेक्टर्स और फार्मा में अच्छी ग्रोथ के बावजूद इन सेक्टर्स को भी री-स्ट्रक्चरिंग के दायरे में रखा है। ज़ाहिर है कि कामथ समिति ने कमोवेश सभी सेक्टर्स को नहीं छोड़ा है। कई विशेषज्ञों के मुताबिक, कामथ समिति ने यदि सभी सेक्टर्स को शामिल किया है, तो साफ है कि अर्थ-व्यवस्था की हालत ज़्यादा खराब है।

रिजर्ब बैंक ने समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों को स्वीकार किया है। कामथ समिति ने जिन 26 सेक्टर की री-स्ट्रक्चरिंग की बात की है, उनमें ऑटो, एविएशन, रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, पॉवर, हॉस्पिटलिटी आदि शामिल हैं। समिति का कहना है कि कर्ज़दारों के लिए कोई समाधान को अन्तिम रूप देने से पहले बैंकों को इन 26 सेक्टर के वित्तीय पैरामीटर का खास ध्यान रखना होगा। रिजर्व बैंक ने कहा है कि उसने समिति के सुझावों को व्यापक रूप से स्वीकार किया है।

रिजर्व बैंक का कहना है कि समिति ने वित्तीय पैरामीटर के बारे में सुझाव दिया है, जैसे कर्ज़-इक्विटी अनुपात, नकदी की स्थिति, डेट सर्विस एबिलिटी (ईएमआई चुकाने की क्षमता) आदि। समिति ने 26 सेक्टर की सिफारिश की है, जिनका ध्यान कर्ज़ देने वाली संस्थाओं को किसी कर्ज़दार के लिए समाधान योजना को अन्तिम रूप देने से पहले ध्यान रखा जा सकता है। बता दें आरबीआई ने रेजोल्युशन फ्रेमवर्क फॉर कोविड-19 रिलेटेड स्ट्रेस के तहत ज़रूरी वित्तीय पैरामीटर के बारे में सुझाव देने के लिए 7 अगस्त को कामथ समिति गठित की थी। कामथ आईसीआईसीआई बैंक के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) हैं। समिति में दिवाकर गुप्ता, टी.एन. मनोहरन, अश्विन पारेख, सुनील मेहता (सदस्य सचिव) शामिल थे।

अपनी रिपोर्ट में समिति ने कहा है कि यह ध्यान रखना होगा कि किसी कम्पनी की कुल देनदारी कितनी है? कुल कर्ज़ या अर्निंग बिफोर इंट्रेस्ट (ब्याज से पहले की कमायी), टैक्सेस (कर), डेप्रिसिएशन एंड अमॉर्टाइजेशन (ईबीआईडीटीए) यानी मूल्यह्रास तथा परिशोधन और डेब्ट सर्विस कवरेज रेशो (कर्ज़ सेवा आवृत्ति क्षेत्र अनुपात) कितना है? आरबीआई ने मार्च से अगस्त तक बैंकों को लोन की री-स्ट्रक्चरिंग और उन्हें एनपीए घोषित करने से बचने की छूट दी थी।

कुछ जानकारों का कहना है कि कामथ कमेटी की रिपोर्ट में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलू हैं। कुछ जानकारों का कहना है कि 26 सेक्टर को री-स्ट्रक्चरिंग के दायरे में रखने से कमोवेश पूरी इंडस्ट्री ही नहीं, जीडीपी को भी री-स्ट्रक्चरिंग की ज़रूरत है। हालाँकि कुछ आर्थिक जानकार यह भी कहते हैं कि अगर री-स्ट्रक्चरिंग होगी, तो बैंकों के एनपीए कम होंगे; जिससे जनता को राहत मिलेगी। लेकिन यह देखना ज़रूरी होगा कि री-स्ट्रक्चरिंग किस स्तर तक होगी। यह कब और कैसे होगा? यह भी अभी भविष्य के गर्त में है। यह देखने की बात होगी कि री-स्ट्रक्चरिंग जब होगी, तो कितनी कम्पनियाँ इसमें शामिल की जाएँगी? साथ ही बैंक का स्ट्रक्चर क्या होगा? जानकारों के मुताबिक, इन के लिए अभी वक्त है और यह भी देखना दिलचस्प होगा कि कितने सेक्टर्स को इसका लाभ मिलता है?

तमाम चिन्ताओं के बीच भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यम का दावा है कि भारत में अर्थ-व्यवस्था का बुरा दौर खत्म हो चुका है। उनके मुताबिक, अगस्त में तालाबन्दी के अनलॉक चरण के शुरू होने के बाद कई सेक्टरों में कारोबार बढऩे के साफ संकेत हैं। सुब्रमण्यम के मुताबिक, इस अगस्त का कारोबार पिछले साल अगस्त के लगभग बराबर ही चल रहा है। कई सेक्टर अप्रैल की स्थिति से बेहतर हो रहे हैं, जिसमें कोयला, तेल, गैस, रिफाइनरी प्रोडक्ट, उर्वरक, स्टील, सीमेंट और बिजली आदि शामिल हैं। उन्हें भरोसा है कि जल्द ही अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौट आयेगी।

सुब्रमण्यम का मानना है कि अर्थ-व्यवस्था की यह खराब स्थिति कोरोना वायरस की वजह से हुई है; लेकिन सरकार इससे जल्द ही उभर जाएगी। उनके मुताबिक, भारत की जीडीपी विकास दर मई में -23.9 फीसदी थी, जो जून में सुधरकर -15 फीसदी और जुलाई में और सुधरकर -12.9 फीसदी पर आ गयी। उनके मुताबिक, यह इस बात का संकेत है कि अनलॉक के बाद हालात बदले हैं और बेहतर समय आ रहा है।

हालाँकि आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि भारत में कोविड-19 महामारी आज की तारीख में तेज़ी से बढ़ रही है। लिहाज़ा ऐसे खर्च, जिनके लिए आपको फैसले करने पड़ते हैं; विशेष रूप से रेस्त्रां जैसी जगहों पर जहाँ काफी लोगों से सम्पर्क हो सकता है, तो इससे जुड़ी नौकरियाँ वायरस के खत्म होने तक कम रहेंगी। ऐसे में सरकार की ओर से दी जाने वाली राहत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। हालाँकि उनका कहना है कि मोदी नीत केंद्र सरकार आर्थिक पैकेज देने से शायद इसलिए हिचक रही है; क्योंकि वह सम्भवता भविष्य में पैकेज देने के लिए पैसे रख रही है। रघुराम राजन का साफ मानना है कि जब तक वायरस पर नियंत्रण नहीं हो जाता है, तब तक भारत में विवेकाधीन खर्च की स्थिति कमज़ोर रहेगी। राजन केंद्र सरकार की अब तक दी राहत को भी नाकाफी बताते हैं। आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को लगता है कि सरकार भविष्य में प्रोत्साहन पैकेज देने के लिए वर्तमान में संसाधनों को बचाने की रणनीति अपना रही है। उनके मुताबिक, यह आत्मघाती है। वह कहते हैं कि सरकारी अधिकारी सोच रहे हैं कि वायरस पर काबू पाये जाने के बाद राहत पैकेज देंगे; लेकिन ऐसा करके वह स्थिति की गम्भीरता को कम आँक रहे हैं। राजन के मुताबिक, इस रणनीति से बाद में अर्थ-व्यवस्था का बहुत ज़्यादा नुकसान हो चुका होगा।

वरिष्ठ अर्थशास्त्री रथिन रॉय कह चुके हैं कि ऐसा मानना कि ब्याज दरों में कटौती से अर्थ-व्यवस्था विकास के रास्ते पर लौट रही है; गलत होगा। उनके मुताबिक, यह तरीका काम नहीं कर रहा है। रॉय आरबीआई की मौद्रिक नीति के बयानों से भी सहमत नहीं हैं। याद रहे आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास दो चरणों में ब्याज दरों में 1.15 फीसदी की कमी कर चुके हैं। कई आर्थिक जानकार आर्थिक पैकेज और आरबीआई की ब्याज दरों में कटौती को लेकर सवाल खड़े कर चुके हैं।

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा कहते हैं कि अर्थ-व्यवस्था खराब ज़रूर हुई है, लेकिन यह कोरोना वायरस और उसके कारण लोगों के जीवन को ध्यान में रखते हुए लगायी पाबन्दियों के कारण हुआ है। लेकिन अब इन पाबन्दियों में काफी ढील दी गयी है। वह अर्थ-व्यवस्था को लेकर विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री की निंदा से पूरी तरह असहमत हैं। उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री ने आपूर्ति पर पूरा ध्यान दिया और आर्थिक पैकेज के कारण बाज़ार में नकदी बढ़ी। अर्थात् लोगों और व्यवसायों को कर्ज़ देने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के पास पर्याप्त नकदी आयी। उनके मुताबिक, लोगों के खाते में पैसे भी डाले गये, जिसके सकारात्मक नतीजे निकले। बाज़ार खुलने से धीरे-धीरे अर्थ-व्यवस्था पटरी पर आ जाएगी।

कुएँ में जीडीपी

देश में अर्थ-व्यवस्था को लेकर आर्थिक विशेषज्ञ पिछले एक साल से सरकार को चेता रहे थे। हालाँकि सरकार का बार-बार कहना रहा कि चिन्ता की कोई बात नहीं है और सब कुछ सही चल रहा है। ज़ाहिर है कि सरकार राजनीतिक नुकसान के डर से सही आँकड़ों को छिपाती रही। हाल में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने चालू माली साल (वर्ष 2020-21) की पहली तिमाही (क्यू1) के जो जीडीपी आँकड़े जारी किये हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि इस वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी विकास दर माइनस 23.9 फीसदी रही है।

निश्चित ही पाँच ट्रिलियन अर्थ-व्यवस्था हासिल करने के दावों के लिए यह स्थिति बहुत बड़ा झटका है। इन आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि आने वाले दिन बहुत मुश्किल भरे हो सकते हैं। कोरोना वायरस से पहले ही अर्थ-व्यवस्था को लेकर चिन्ताएँ जतायी जा रही थीं और कोविड-19 के बाद तो यह रसातल में पहुँचती दिख रही है। जो आँकड़े सामने आये हैं, वो अभी तक के अनुमानों से भी बहुत खराब हैं। इस समय जीडीपी की दर माइनस (घाटे) में जाने का अर्थ है देश गरीबी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिस पर तत्काल काबू पाना होगा। यह पिछले 40 साल का अर्थ-व्यवस्था का सबसे कमज़ोर आँकड़ा है। इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि अर्थ-व्यवस्था के क्षेत्र में आने वाले दिन बहुत चिन्ता वाले हो सकते हैं। अभी तक के आँकड़ों के मुताबिक, होटल इंडस्ट्री पर सबसे बड़ी मार पड़ी है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़े बताते हैं कि यदि इसी तिमाही में पिछले साल की बात करें, तो उस समय यह दर उससे कहीं कम है। रेटिंग एजेंसियाँ पहले से इसकी आशंका जता रही थीं; लेकिन यह उनके अनुमानों से भी खराब स्थिति है। बता दें वर्ष 2019-20 की अंतिम तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर 3.1 फीसदी थी। एनएसओ के मुताबिक, जीवीए में 22.8 फीसदी की गिरावट आयी है। वैसे तो अर्थ-व्यवस्था को लेकर आर्थिक जानकार पहले से गहरी चिन्ता जता रहे थे, लेकिन आँकड़ों को देखने से लगता है कि कोरोना वायरस महामारी और लॉकडाउन के कारण औद्योगिक उत्पादन में बड़ी कमी आयी है। रोज़गार के आँकड़ों में भी खासी गिरावट देखने को मिली है।

वैसे तो जुलाई से अनलॉक शुरू होने के बाद मज़दूर, दुकानदार, कर्मचारी और अन्य काम पर लौटने शुरू हुए हैं और व्यापार को भी कुछ गति मिली है। लेकिन अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर आने में अभी बहुत वक्त लगेगा। लॉकडाउन के दौरान करोड़ों लोगों की नौकरियाँ चली गयीं और अभी तक ऐसे संकेत नहीं मिल रहे कि बेरोज़गार हुए लोग दोबारा जल्दी रोज़गार पा सकेंगे। एनएसओ के आँकड़ों के मुताबिक, अप्रैल से जुलाई की तिमाही के दौरान भारत का राजकोषीय घाटा 8.21 लाख करोड़ रुपये रहा। इस अवधि में वर्ष 2019-20 में यह 5.47 लाख करोड़ रुपये था।

यह हैरानी की बात कोरोना वायरस का सबसे पहला और बड़ा संकट झेलने वाले और वर्तमान में सीमा पर भारत के साथ तनाव में उलझे चीन की अर्थ-व्यवस्था दुनिया के अन्य देशों में गम्भीर समस्या के बावजूद प्लस (3.2 फीसदी) में रही है। उसके अलावा वियतनाम ही ऐसा देश है, जहाँ जीडीपी प्लस (0.4 फीसदी) रही है।

बहुत-से आर्थिक जानकार कहते हैं कि तालाबन्दी के दौरान उपजी विपरीत परिस्थितियों में अधिकतर लोगों की जेबों में पैसे नहीं डाले गये, जिसके कारण माँग में बढ़ोतरी नहीं आ सकी। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी इसी मुद्दे को बहुत ज़ोर से उठाते रहे हैं। उनकी बार-बार माँग रही कि जनता की जेब में पैसे नहीं डाले गये, तो स्थिति चिन्ताजनक बन जाएगी; और ऐसा ही हुआ भी है। जानकारों का कहना है कि मई में आम लोगों के बैंक खातों में अगले छ: महीने के लिए हर महीने 10-10 हज़ार रुपये डाले जाने चाहिए थे। छोटे किसानों और महिलाओं को मनरेगा और दूसरी योजनाओं के ज़रिये रोज़गार दिये गये और नकदी भी; लेकिन माँग बढ़ाने के लिए मध्य वर्ग और अच्छे वेतन प्राप्त करने वालों को आर्थिक मदद नहीं दी गयी।

इस दौरान लाखों की संख्या में कर्मचारियों को या तो नौकरी से हाथ धोना पड़ा या उन्हें उनकी कम्पनियों ने काटकर वेतन दिया। हो सकता है कि केंद्र सरकार भविष्य में एक और आर्थिक पैकेज की घोषणा करे; लेकिन इन महीनों में जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करना कठिन है। सरकार के बीच ही पैकेज को लेकर दुविधा है। अनलॉक के दूसरे महीने में भी लोगों के पास पैसे नहीं हैं और जिनके पास कुछ जमा पूँजी है भी, वे उसे खर्च करने से गुरेज़ कर रहे हैं। इसका कारण उनके सामने कई अनसुलझे डर हैं।

कोरोना वायरस के मामले जिस तेज़ी से बढ़ रहे हैं, इसके चलते बहुत-से लोग अभी घरों से नहीं निकल रहे हैं। ज़ाहिर है कि बाहर निकलकर जो पैसा वे खर्च कर सकते थे, वो नहीं खर्च रहे। इसका विपरीत असर व्यवसायों पर पड़ा है। इसी के कारण बहुत-से लोगों को नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा है, या उनके वेतन में कटौती की गयी है। आँकड़ों के मुताबिक, अप्रैल से जून के बीच निजी खपत महज़ 26.7 फीसदी रही। इसलिए रघुराम राजन जैसे आर्थिक विशेषज्ञ और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी लगातार लोगों की जेब में पैसा डालने पर ज़ोर दे रहे हैं। यह सभी लोग कुछ उत्पादों में जीएसटी की दर घटाने और आर्थिक सुधार की कोशिश पर ज़ोर दे रहे हैं। वैसे केंद्र सरकार के निजीकरण को भी एक उपाय के तौर पर देखा जा रहा; लेकिन बहुत-से जानकार इसे आत्मघाती कदम बता रहे हैं।

बाकी तिमाहियों में भी कम उम्मीद : इकोरैप

सितंबर के शुरू में स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिसर्च रिपोर्ट ‘इकोरैप’ भी सामने आयी है। इसमें 2020-21 के माली साल के दौरान भारत के वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में 10.9 फीसदी तक की गिरावट की बात कही गयी है। इसके मायने हैं कि अगली चार तिमाहियों में भी देश की आर्थिक हालत लचर बनी रहेगी। यदि एसबीआई की इकोरैप रिपोर्ट पर नज़र डालें, तो उसने पहले के मुकाबले ज़्यादा गिरावट का अनुमान लगाया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून 2020 में देश की अर्थ-व्यवस्था माइनस 23.9 फीसदी तक नीचे चली गयी है। वित्त वर्ष 2019-20 की समान तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर 5.2 फीसदी रही थी। इससे पहले एसबीआई-इकोरैप में वास्तविक जीडीपी में 6.8 फीसदी की गिरावट का अनुमान लगाया गया था, यानी देश के सबसे बड़े कर्ज़दाता ने इस बार पहले के मुकाबले 4.1 फीसदी ज़्यादा तक की गिरावट का अनुमान लगाया है। बीते वित्त वर्ष की चौथी तिमाही यानी जनवरी-मार्च 2020 में जीडीपी की वृद्धि दर 3.1 फीसदी रही थी। एसबीआई-इकोरैप रिपोर्ट में कहा गया है कि एसबीआई के शुरुआती अनुमान के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 की चारों तिमाहियों में वास्तविक जीडीपी में गिरावट आयेगी। पूरे वित्त वर्ष में जीडीपी में 10.9 फीसदी की गिरावट आयेगी। रिपोर्ट के मुताबिक, चालू माली साल की दूसरी तिमाही में वास्तविक जीडीपी में 12 से 15 फीसदी की गिरावट आ सकती है; जबकि तीसरी तिमाही में यह शून्‍य से 5-10 फीसदी (-5 फीसदी से -10 फीसदी) नीचे रहेगी। रिपोर्ट के मुताबिक, इसी तरह चौथी तिमाही में वास्तविक जीडीपी में दो से पाँच फीसदी की गिरावट आयेगी। इकोरैप में कहा गया है कि कोविड-19 का प्रसार रोकने के लिए देश में 25 मार्च से लॉकडाउन लगाया गया, जिससे जीडीपी में गिरावट आयी। यह गिरावट बाज़ार और बैंक के अपने पहले के अनुमान से ज़्यादा है। बैंक ने जैसा अनुमान लगाया था, ठीक वैसे ही पर्सनल फाइनल कंज्‍यूमर एक्‍सपेंसेस में (पीएफसीई) की वृद्धि में ज़ोरदार गिरावट आयी। कोविड-19 की वजह से ज़्यादातर आवश्यक वस्तुओं का इस्तेमाल घटा और क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं होने से निवेश माँग नहीं सुधर रही है। ऐसे में कुल जीडीपी अनुमान में निजी उपभोग व्यय का हिस्सा ऊँचा रहेगा। ज़ाहिर है कि इकोरैप की यह रिपोर्ट अर्थ-व्यवस्था के लिहाज़ से कोई सुखद संकेत नहीं करती है।

कामथ समिति की रिपोर्ट में मुश्किल सेक्टर

  1. पॉवर, 2. कंस्ट्रक्शन, 3. आयरन एंड स्टील मैन्युफैक्चरिंग, 4. सडक़, 5. रियल एस्टेट, 6. ट्रेडिंग-होलसेल, 7. टेक्सटाइल, 8. केमिकल्स, 9. कंज्यूमर ड्यूरेबल्स/एफएमसीजी, 10. नॉन-फेरस मेटल्स, 11. फार्मास्यूटिकल्स मैन्युफक्चरिंग, 12. लॉजिस्टिक्स, 13. जेम्स ऐंड ज्वैलरी, 14. सीमेंट, 15. ऑटो कम्पोनेंट, 16. होटल, रेस्टोरेंट, टूरिज्म, 17. माइनिंग, 18. प्लास्टिंग प्रोडक्ट्स मैन्युफैक्चरिंग, 19. ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग, 20. ऑटो डीलरशिप, 21. एविएशन, 22. शुगर, 23. पोर्ट ऐंड पोर्ट सर्विसेज, 24. शिपिंग, 25. बिल्डिंग मटीरियल्स और 26. कॉरपोरेट रिटेल आउटलेट्स।

वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में लुढक़ा भारत

ग्लोबल इकोनामिक फ्रीडम इंडेक्स (वैश्विक आर्थिक स्वतंत्रा सूचकांक) 2020 के 10 सितंबर को जारी किये आँकड़ों में भारत 26 स्थान नीचे लुढक़कर कमज़ोर 105वें स्थान पर जा पहुँचा है। कनाडा की एक संस्था हर साल यह रिपोर्ट जारी करती है, जिसमें किसी देश में कारोबार के वातावरण के खुलेपन का पता चलता है। यह रिपोर्ट फ्रेजर इंस्टीट्यूट तैयार करता है। पिछले साल भारत इस रिपोर्ट में 79वें स्थान पर था। यह रिपोर्ट 162 देशों और अधिकार क्षेत्रों में आर्थिक स्वतंत्रता को आँका गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक साल में सरकार के आकार, न्यायिक प्रणाली और सम्पत्ति के अधिकार, वैश्विक स्तर पर व्यापार की स्वतंत्रता, वित्त, श्रम और व्यवसाय के विनियमन जैसी कसौटियों पर भारत की स्थिति खराब हुई है। 10 अंक के पैमाने पर सरकार के आकार के मामले में भारत को एक साल पहले के 8.22 के मुकाबले 7.16 अंक, कानूनी प्रणाली के मामले में 5.17 की जगह 5.06, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की स्वतंत्रता के मामले में 6.08 की जगह 5.71 और वित्त, श्रम और व्यवसाय के विनियमन के मामले में 6.63 की जगह 6.53 अंक मिले हैं। सूची में प्रथम 10 देशों में न्यूजीलैंड, स्विट्जरलैंड, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, मॉरीशस, जॉर्जिया, कनाडा और आयरलैंड शामिल हैं। जापान को सूची में 20वाँ, जर्मनी को 21वाँ, इटली को 51वाँ, फ्रांस को 58वाँ, रूस को 89वाँ और ब्राजील को 105वाँ स्थान मिला है। बता दें कि जो देश प्राप्तांक 10 के जितने करीब होता है, स्वतंत्रा उसी अनुपात में अधिक मानी जाती है। यह रिपोर्ट भारत में दिल्ली की गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर सिविल सोसायटी ने 10 अगस्त को जारी की। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में आर्थिक स्वतंत्रा बढऩे की सम्भावनाएँ अगली पीढ़ी के सुधारों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के खुलेपन पर निर्भर करेंगी। रिपोर्ट में व्यक्तिगत पसन्द का स्तर, बाज़ार में प्रवेश की योग्यता, निजी सम्पत्ति की सुरक्षा, कानून का शासन सहित अन्य मानकों को देखा जाता है। इसके लिए विभिन्न देशों की नीतियों और संस्थानों का विश्लेषण किया जाता है। जिन देशों को सबसे नीचे स्थान मिला है, उनमें अफ्रीकी देश, कांगो, जिम्बाब्वे, अल्जीरिया, ईरान, सूडान, वेनेजुएला आदि शामिल हैं।

केंद्र सरकार ने युवाओं का भविष्य कुचल दिया : राहुल गाँधी

कोरोना वायरस महामारी के शुरू से ही कांग्रेस नेता राहुल गाँधी केंद्र सरकार की तैयारियों और फैसलों के कटु आलोचक रहे हैं। वह बार-बार कह चुके हैं कि जब तक सरकार आम आदमी की जेब में पैसा नहीं डालती, स्थिति सही नहीं हो सकती। वह केंद्र सरकार पर हमले के लिए कांग्रेस की स्पीकअप मुहिम के तहत वीडियो सीरीज भी चला रहे हैं। राहुल केंद्र सरकार को भारत की गिरती अर्थ-व्यवस्था को लेकर ज़िम्मेदार बता रहे हैं। उन्होंने एक वीडियो में कहा है कि केंद्र सरकार ने देश के युवाओं के भविष्य को कुचल दिया है। राहुल कोरोना वायरस के चलते किये गये केंद्र सरकार के लॉकडाउन को गलत बता रहे हैं। उन्होंने कहा है कि भारत की सुस्त अर्थ-व्यवस्था के चलते जीडीपी गिर गयी। तमाम युवा बेरोज़गार हो गये। गाँधी का यह भी कहना है कि केंद्र सरकार की नीतियों से करोड़ों की नौकरियों चली गयीं। जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट आयी है। इसने भारत के युवाओं के भविष्य को कुचल दिया है। आइए, सरकार को उनकी आवाज़ सुनाते हैं। वीडियो में राहुल कहते हैं कि कोरोना वायरस महामारी में बिना सोचे समझे किये गये लॉकडाउन से बड़ा नुकसान हुआ है। जीडीपी में 23.9 फीसदी गिरावट दर्ज हुई है। लाखों की नौकरियाँ चली गयी हैं। मध्यम और छोटे व्यापार तबाह हो गये हैं। केंद्र सरकार गरीब परिवारों और बेरोज़गारों को तुरन्त न्याय दे। राहुल गाँधी लॉकडाउन को असंगठित वर्ग के लिए मृत्युदण्ड के बराबर बता चुके हैं। उन्होंने देश की खराब आर्थिक हालत पर हमला बोलते हुए एक अन्य वीडियो में कहा कि बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन लगाने से भारतीय अर्थ-व्यवस्था को गहरा धक्का पहुँचा है और यह मोदी शासित केंद्र सरकार का असंगठित क्षेत्र पर तीसरा बड़ा हमला है। राहुल के मुताबिक, छोटे, सूक्ष्म और मझौले क्षेत्र में काम करने वाले लोग रोज़ कमाने-खाने वाले हैं। जब आपने बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन की घोषणा की, तो ये गरीबों पर हमला था।

अगर आप अर्थ-व्यवस्था को एक मरीज़ की तरह देखें, तो उसे लगातार इलाज की ज़रूरत है। राहत के बिना लोग खाना छोड़ देंगे। वह बच्चों को स्कूल से निकाल देंगे और उन्हें काम करने या भीख माँगने के लिए भेज देंगे। कर्ज़ लेने के लिए अपना सोना गिरवी रख देंगे; ईएमआई और मकान का किराया बढ़ते जाएँगे। इसी तरह राहत के अभाव में छोटी और मझोली कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाएँगी, उनका कर्ज़ बढ़ता जाएगा, और अन्त में वो बन्द हो जाएँगी। इस तरह जब तक कोरोना वायरस पर काबू होगा, तब तक अर्थ-व्यवस्था बर्बाद हो जाएगी। यह धारणा गलत है कि सरकार राहत और प्रोत्साहन, दोनों पर खर्च नहीं कर सकती है। संसाधनों को बढ़ाने और चतुराई के साथ खर्च करने की ज़रूरत है। ऑटो जैसे कुछ सेक्टर्स में माँग में तेज़ी वी-शेप्ड रिकवरी का प्रमाण नहीं हैं।’

रघुराम राजन, पूर्व गवर्नर, आरबीआई 

‘जब कोरोना वायरस आया था और लॉकडाउन लगाने की बात चल रही थी। उस वक्त पश्चिमी देश लोगों की जान और अर्थ-व्यवस्था को लेकर असमंजस की स्थिति में थे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साफ कहना था कि जान है, तो जहान है। इसलिए प्रधानमंत्री ने देश में लॉकडाउन लगाने में कोई देरी नहीं की, जिसके कारण कोरोना वायरस का कहर भारत में वैसा नहीं दिखा जैसा अमेरिका और कई पश्चिमी देशों में देखने को मिला। अर्थ-व्यवस्था को सँभालने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कई उपाय किये हैं। अर्थ-व्यवस्था के लिए 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज और किसानों के लिए एक लाख करोड़ से अधिक की आर्थिक सहायता की घोषणा की गयी है। प्रधानमंत्री ने अर्थ-व्यवस्था में जान फूँकने के लिए एमएसएमई की परिभाषा में बदलाव लाया। साथ ही किसानों को उनकी खाद्यान्न का उचित मूल्य मिले इसके लिए मण्डियों की व्यवस्था में भी सुधार किया गया। रेहड़ी और फड़ वालों के लिए भी प्रधानमंत्री मोदी ने मुआवज़े की घोषणा की। लोकल के लिए वोकल होने का नारा अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती देने की ही कवायद है।

जेपी नड्डा, भाजपा अध्यक्ष

 

अर्थ-व्यवस्था का ग्राफ/एशिया

* चीन    +3.2 फीसदी

* वियतनाम        +0.4 फीसदी

* ताइवान           -0.6 फीसदी

* दक्षिण कोरिया  -2.9 फीसदी

* इंडोनेशिया      -5.3 फीसदी

* अमेरिका         -9.5 फीसदी

* जापान -9.9 फीसदी

* थाईलैंड           -12.2 फीसदी

* सिंगापुर           -13.2 फीसदी

* मलेशिया         -17.1 फीसदी

* भारत  -23.9 फीसदी

प्रमुख देश/दुनिया

* इंग्लैंड -21.7 फीसदी

* इटली  -17.7 फीसदी

* फ्रांस   -18.9 फीसदी

* कनाडा            -13 फीसदी

* जर्मनी -11.3 फीसदी

* जापान -9.9 फीसदी

(विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध जानकारी के आधार पर)