300 करोड़ रु सालाना खर्च वाले जिस मौसम विभाग की जिम्मेदारी देश को हवा का ठीक-ठीक रुख बताना है उसकी भविष्यवाणियां खुद हवा के रुख के हिसाब से बदलती रहती हैं. राहुल कोटियाल की रिपोर्ट.
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में ‘हरेला’ नाम का एक त्योहार मनाया जाता है. इस दौरान घर में ही किसी बर्तन में सात तरह के बीज बोए जाते हैं और फिर लगातार नौ दिन तक उन्हें पानी से सींचा जाता है. बीजों से जो हरियाली उग आती है उसे ही हरेला कहते हैं. नवें दिन हरेला काटा जाता है और उसे श्रद्धापूर्वक सबमें बांट दिया जाता है. इसी हरेला से लोग उस साल की फसल का अंदाजा भी लगाते हैं. मान्यता है कि अगर हरेला लंबा है तो फसल भी अच्छी होगी. यानी फसल बोने से पहले ही लोग अनुमान लगा लेते हैं कि मौसम साथ देगा या नहीं. मौसम का अनुमान लगाने के ऐसे कई पारंपरिक तरीके विज्ञान के इस युग में भी देश के हर हिस्से में मिल जाएंगे. वैसे तो इसी दौर में मौसम का अनुमान लगाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक से लैस भारतीय मौसम विज्ञान विभाग भी है, लेकिन उसकी भविष्यवाणियों का यह हाल है कि उनसे ज्यादा लोगों को एक बड़ी हद तक अपने पारंपरिक तरीकों पर ही भरोसा है.
भारत जैसे कृषिप्रधान देश में अन्न के उत्पादन और जल स्रोतों की पुनः पूर्ति के लिए यह जरूरी है कि बरसात समय पर हो. देश में 80 प्रतिशत बारिश चौमासे यानी मानसून के दौरान ही होती है. सकल घरेलू उत्पाद में14 फीसदी योगदान करने वाला और करीब 65 प्रतिशत आबादी को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र मुख्य रूप से वर्षा पर ही निर्भर है. भारत में हर साल जल उपलब्धता और फसल की पैदावार सामान्य या कम होना भी मानसूनी वर्षा पर निर्भर होता है. 2009 का भयंकर सूखा बताता है कि मानसून में देरी या अपर्याप्त वर्षा से देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है. इसलिए कुछ महीनों पहले होने वाली मौसम की भविष्यवाणी का मकसद यह होता है कि भारतीय कृषि को मानसूनी अनिश्चितता से कुछ हद तक सुरक्षा मिले.
लेकिन रंग बदलने की वह बदनामी अब मौसम विभाग पर भी चस्पा हो गई है जिसके लिए खुद मौसम हमेशा से बदनाम रहा है. इस साल अप्रैल में विभाग का अनुमान था कि औसत बरसात के 99 फीसदी के साथ मानसून सामान्य रहेगा. फिर जून में विभाग ने अपना अनुमान घटाते हुए कहा कि बरसात 96 प्रतिशत होगी. इसके बाद भी जब मौसम अनुमानों के विपरीत ही बना रहा तो हारकर अगस्त में भविष्यवाणी हुई कि बरसात 90 प्रतिशत से कम ही रहेगी. यह कहने भर की ही देर थी और मानसून जमकर बरस गया. शायद यही वजह थी कि हाल ही में मानसून सत्र के दौरान विज्ञान एवं तकनीक राज्य मंत्री अश्विनी कुमार ने भी मौसम विभाग पर उंगली उठाई. उनका यह भी कहना था कि पिछले कई वर्षों से विभाग लगातार गलत भविष्यवाणी कर रहा है.
वैसे इस साल कई निजी और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भारत के मानसून का अनुमान लगाते हुए पहले ही कम बरसात के संकेत दे दिए थे, लेकिन मौसम विभाग इन सभी अनुमानों को ठुकराता रहा. इस बारे में बात करने पर विभाग के वैज्ञानिक डॉ. डीएस पई बताते हैं, ‘मौसम विभाग की क्षमताएं मानसून का अनुमान लगाने वाली अधिकतर निजी और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बहुत बेहतर हैं.’ वे आगे कहते हैं कि इस साल किसी भी ऐसी संस्था ने कम बारिश का अनुमान नहीं लगाया था जिसकी प्रक्रिया और क्षमताएं उनके विभाग से बेहतर और विश्वसनीय हों.
यह कोई पहली बार नहीं था जब मौसम विभाग के अनुमान गलत साबित हुए हों. 2009 में भी उसने बताया था कि मानसून सामान्य रहेगा, लेकिन उस साल भारत को पिछले लगभग चार दशकों का सबसे भीषण सूखा झेलना पड़ा था. इसके अलावा 1994 में आई बाढ़ और 1987, 2002, 2004, 2007 और 2009 में पड़े सूखे का भी विभाग को कोई अनुमान नहीं था. इसके बाद भी डॉ. पई अपने विभाग के बचाव में कहते हैं, ‘मौसम का अनुमान लगाने की हमारी क्षमताएं उतनी ही बेहतर हैं जितनी कि किसी भी अन्य देश की. वर्तमान में इस्तेमाल होने वाली प्रक्रिया ज्यादा बेहतर साबित हो रही है. हालांकि इसमें भी कुछ हद तक सुधार की गुंजाइश है जिसके प्रयास भी किए जा रहे हैं.’
मौसम विभाग की वेबसाइट बताती है कि उसका काम है मौसम से प्रभावित होने वाली कृषि और सिंचाई जैसी गतिविधियों के लिए मौसम संबंधी पूर्वानुमान तथा जानकारी मुहैया कराना. इसके साथ ही उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों, धूल भरी आंधी, भारी बारिश और बर्फबारी, गर्म और ठंडी हवाओं आदि को लेकर जरूरी चेतावनी जारी करना. विभाग कृषि, जल संसाधन प्रबंधन, उद्योग जगत, तेल उत्खनन और राष्ट्र निर्माण की अन्य गतिविधियों के लिए मौसम संबंधी जरूरी आंकड़े भी मुहैया कराता है. विभाग की अगुवाई एक महानिदेशक, पांच अतिरिक्त महानिदेशक और 20 उपमहानिदेशक करते हैं. विभाग के पास एक सुपर कंप्यूटर और कई अत्याधुनिक उपकरण हैं. लेकिन उसे लेकर जो आम धारणा है वह इस पूरे ढांचे का मखौल उड़ाती लगती है.
अपनी सफाई में मौसम विभाग का एक तर्क यह भी होता है कि सन 1989 से 2000 तक उसके अनुमान लगातार 11 साल तक सही रहे हैं. इन वर्षों में भी मौसम विभाग ने हर बार की ही तरह लगभग सामान्य मानसून का अनुमान जारी किया था. अब यदि पिछले 100 साल के दौरान मानसून की प्रवृत्ति देखी जाए तो पता चलता है कि 85 प्रतिशत मौकों पर मानसून सामान्य ही रहा है. यानी सामान्य मानसून की संभावनाएं हमेशा ही ज्यादा होती हैं. आलोचकों के मुताबिक ऐसे में यह अनुमान कि मानसून सामान्य रहेगा, ज्यादातर मौकों पर सही ही होगा. एक वर्ग तो यह भी कह देता है कि मौसम विभाग का अनुमान वैसा ही होता है जैसा अखबारों में छपने वाला राशिफल जिसे न तो पूरी तरह झुठलाया ही जा सकता है और न यह उपयोगी या विश्वसनीय होता है.
केंद्र से करीब 350 करोड़ रु सालाना बजट पाने वाले विभाग के अनुमान अगर किसी के लिए भी सहायक साबित न होकर महज औपचारिकता ही बने रहें तो उनकी प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाजिमी है. मौसम विभाग के गलत अनुमानों से जो वर्ग सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं उनमें से एक है किसान. पिछले कई सालों से किसान वर्ग को मौसम विभाग के गलत अनुमानों का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है. भारतीय किसान संघ के सचिव मोहिनी मोहन शर्मा कहते हैं, ‘पिछले 23 सालों में मौसम विभाग सिर्फ नौ बार ही मानसून का सही अनुमान लगाने में कामयाब हुआ है. गलत अनुमानों के चलते हर साल किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ता है. इससे खाद्य पदार्थों की कीमत में उछाल आता है और अंततः भुगतना तो जनता को ही पड़ता है.’ अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव पुरुषोत्तम शर्मा कहते हैं, ‘गलत अनुमानों से तो किसान प्रभावित होते ही हैं, समय-समय पर मौसम विभाग द्वारा अपने अनुमानों में जो सुधारात्मक परिवर्तन किए जाते हैं वे कभी भी किसानों तक नहीं पहुंच पाते.
मौसम विभाग के अनुमानों को सीधे किसानों तक पहुंचाने की कोई भी व्यवस्था नहीं है. यदि किसानों तक सुधारात्मक या अल्पकालीन अनुमान भी पहुंच जाएं तो कुछ खतरों से तो बचा जा ही सकता है. पहाड़ी क्षेत्रों में बरसात सिर्फ खेती को ही प्रभावित नहीं करती बल्कि पूरे खेत को ही बहा ले जाती है. ऐसे में यदि क्षेत्रीय स्तर पर अल्पकालीन चेतावनियां भी किसानों तक पहुंच जाएं तो नुकसान कम किया जा सकता है.’ किसानों तक मौसम की अल्पकालीन चेतावनियां और अनुमान कैसे पहुंचाए जाते हैं, यह पूछे जाने पर डॉ. पई बताते हैं कि इंटरनेट और एसएमएस के माध्यम से. यानी मौसम विभाग का एक अनुमान यह भी है कि इन्टरनेट और एसएमएस भारत में किसानों को सूचना पहुंचाने के उचित माध्यम हैं. बेहतरीन क्षमताओं का दावा करने वाले मौसम विभाग द्वारा पिछले कुछ वर्षों में मौसम का अनुमान लगाने की प्रक्रियाओं में बदलाव भी किए गए हैं. नई प्रक्रियाओं को 2003 और 2007 से शुरू किया गया. लेकिन आरोप लगते हैं कि इन दोनों ही प्रक्रियाओं में से एक भी ऐसी नहीं जिससे मौसम के अनुमान कुछ खास उपयोगी साबित हो सकें.
मौसम विभाग के अनुमानों और मौसम के मिजाज के बीच वर्षों से चल रही इस नोक-झोंक के पीछे कुछ राजनीतिक कारण भी बताए जाते हैं. मौसम की जानकारी देने वाली एक निजी संस्था स्काईमेट के मुख्य कार्याधिकारी जतिन सिंह कहते हैं, ‘मौसम विभाग के हाथ बंधे हुए हैं. विभाग चाह कर भी कम बरसात या सूखे का अनुमान नहीं लगाता क्योंकि उस पर राजनीतिक दबाव होता है. कम बरसात होने की संभावना से बाजार पर प्रभाव पड़ता है और इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश करने वाले पूंजीपति नहीं चाहते कि ऐसा कोई भी पूर्वानुमान जारी किया जाए. इसीलिए मौसम विभाग हर साल सिर्फ सामान्य मानसून या उसमे 1-2 प्रतिशत के बदलाव की ही घोषणा करता है.’हालांकि मौसम विभाग ऐसे किसी भी दबाव के होने से इनकार करता है.
डॉ. पई कहते हैं, ‘मौसम की जानकारी जारी करते वक्त ऐसा कोई भी राजनीतिक दबाव नहीं होता. हमारा विभाग अपनी प्रक्रिया और मौसम के हालात देखकर ही अनुमान जारी करता है. बहरहाल कारण चाहे जो भी हों परंतु हकीकत यही है कि इस विभाग की असफलताएं इसकी सफलताओं पर हावी रही हैं. सिर्फ खेती ही नहीं बल्कि सिंचाई, बाढ़-नियंत्रण, जल-परिवहन और बिजली उत्पादन जैसे दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसा मुश्किल से ही देखने को मिलता है कि उसके अनुमान बहुत मददगार साबित हो रहे हों. अस्सी के दशक में एक चुटकुला सुनने को मिलता था कि किसी सज्जन ने मौसम का हाल जानने के लिए मौसम विभाग के कार्यालय में फोन किया. विभाग में बैठे अधिकारी ने पर्दा हटा कर खिड़की से बाहर देखा और सारा अनुमान बता दिया. मौसम की भविष्यवाणी के बारे में विभाग की छवि आज भी कमोबेश ऐसी ही है.