अनदेखी का काला दिवस


केंद्र के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आन्दोलन के 26 मई को छ: माह पूरे हो गये, जबकि केंद्र सरकार की इस दिन सातवीं वर्षगाँठ थी। 26 मई, 2014 को ही केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा सरकार का गठन हुआ था। किसान इसे काले दिवस के तौर पर मना रहे हैं। संयुक्त मोर्चा के आह्वान पर दिल्ली की सीमाओं के अलावा पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका असर देखने को मिला। किसानों का यह विरोध केंद्र सरकार की कृषि नीतियों के ख़िलाफ़ है। लेकिन पंजाब में यह विरोध वहाँ की कांग्रेस सरकार, विशेषकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के ख़िलाफ़ भी हो रहा है। भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) ने 28, 29 और 30 मई को मुख्यमंत्री के पटियाला आवास के बाहर धरना देने की बात कही। आन्दोलन के प्रमुख चेहरे और भाकियू के प्रवक्ता राकेश टिकैत दो टूक कहते हैं कि कोरोना की वजह किसान नहीं, बल्कि ख़ुद सरकार है। सरकार अपनी नाकामी कोरोना की आड़ में आन्दोलन पर थोपकर देश को गुमराह कर रही है। विदित हो कि पंजाब में अगले वर्ष के शुरू में विधानसभा चुनाव हैं। लिहाज़ा राज्य में कैप्टन सरकार के ख़िलाफ़ किसानों का बढ़ता विरोध उसके लिए संकट खड़ा कर सकता है।

पूर्व मंत्री नवजोत सिद्धू ने तो अपने पटियाला और अमृतसर आवास पर काले झंडे लगाकर बता दिया है कि वह किसानों के साथ हैं। कैप्टन वैसे भी अपनी पार्टी के नेताओं-विधायकों से घिरे हैं। अब वह किसान नेताओं के निशाने पर हैं, जिससे लगता है कि आने वाले दिनों में उनकी सरकार के लिए मुश्किलें बढऩे वाली हैं। हरियाणा भी इसका अपवाद नहीं है। वहाँ हिसार में 16 मई को कोविड अस्पताल का शिलान्यास करने आये मुख्यमंत्री मनोहर लाल को किसानों का विरोध सहना पड़ा। उनके जाने के बाद पुलिस ने किसानों पर आँसू गैस के गोले दा$गे और लाठीचार्ज किया, जिसमें किसानों के साथ-साथ कई महिलाएँ भी घायल हो गयीं। इसके बाद पुलिस ने उलटा सैकड़ों किसानों के ख़िलाफ़ ही प्राथमिकी दर्ज कर ली। इसके विरोध में किसान संगठन एकजुट हुए और हज़ारों किसान लघु सचिवालय का घेराव करने पहुँच गये। हालात बेक़ाबू होते देख राज्य सरकार ने किसान नेताओं से बातचीत करके समस्या का हल करना ठीक समझा। समझौते में मु$कदमे वापस लेने और आन्दोलन दौरान हृदयाघात (हार्ट अटैक) से मरे किसान के परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना तय हुआ। इसे किसानों ने अपनी जीत माना, वहीं सरकार ने स्थिति सँभाल लेना माना। आन्दोलन कब तक चलेगा? यह न किसान संगठन जानते हैं और न केंद्र सरकार। दोनों पक्षों के लिए स्थिति बड़ी विकट है, जिससे पूरा देश प्रभावित है। केंद्र के सामने हालत है ऐसी कि न उगलते बने, न निगलते; यानी न वह तीनों क़ानूनों को वापस लेने को तैयार है और न इसे लागू करने की हालत में है। वह 18 माह (डेढ़ साल) तक तीनों क़ानूनों को निलंबित कर चुकी है और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर मौखिक गारंटी देने को तैयार है। लेकिन लिखित में गारंटी नहीं दे रही है और न ही क़ानूनों पर खुलकर चर्चा को तैयार है। बस शुरू से एक ही रट लगाये हुए है कि क़ानून किसानों के हित में हैं और इससे उनका फ़ायदा होगा। संयुक्त किसान मोर्चा को कुछ समय के लिए क़ानूनों का निलंबन मंज़ूर नहीं, वे तीनों क़ानूनों को सीधे-सीधे रद्द करने की बात शुरू से ही स्पष्ट तौर पर कह रहे हैं। वैसे भी केंद्र की 18 माह की शर्त में काफ़ी समय बीत चुका है।
निश्चित तौर पर संयुक्त किसान मोर्चा 18 माह के बाद भी कृषि क़ानूनों को किसी भी हालत में मंज़ूर नहीं करेगा और केंद्र को यह गवारा न होगा। मतलब बातचीत से हल निकलने की भी कोई सम्भावना नहीं लगती। क्योंकि दोनों पक्षों में 12 दौर की बातचीत से भी कोई हल नहीं निकल सका है। इसके बाद कई राज्यों के उप चुनाव, पंचायत चुनाव और एक केंद्र शासित प्रदेश समेत पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव भी हो गये। कोरोना की दूसरी लहर आ गयी। राज्यों में लॉकडाउन और कफ्र्यू लगे। लेकिन किसानों ने हिम्मत नहीं हारी। अब लड़ाई आर-पार की है।
देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर किसान संगठनों से बातचीत करने का आग्रह किया। बावजूद इसके सरकार ने बातचीत की कोई पहल नहीं की। दरअसल सरकार की ऐसी कोई मंशा है भी नहीं; क्योंकि इससे उसका पक्ष कमज़ोर होगा। यह बात तो किसानों पर भी लागू होती है; लेकिन उन्होंने पहल तो की! संयुक्त किसान मोर्चा का बातचीत के लिए केंद्र को पत्र लिखना अच्छा $कदम कहा जा सकता है। लेकिन केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने वही पुराना प्रस्ताव रखा, जिसे किसान संगठन पहले ही नामंज़ूर कर चुके हैं।
हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक सीधे तौर पर इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया है। तीनों कृषि क़ानूनों के भविष्य में होने वाले फ़ायदों के बारे में वह बहुत बार बोल चुके हैं। लेकिन इसका असर किसानों पर नहीं हुआ है। किसान उनकी बार-बार वादा ख़िलाफ़ी को इसकी वजह बता रहे हैं। हमारे ख़याल से इस भरोसे को वापस पाने के लिए प्रधानमंत्री को एक बार संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं को बुलाना चाहिए। हो सकता है कि इससे कोई रास्ता निकले। क्योंकि संवादहीनता और संवेदनहीनता से तो कोई बात नहीं बनने वाली। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता सीधे प्रधानमंत्री से वार्ता करके इस मसले के समाधान के इच्छुक हैं। भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत कई बार कह चुके हैं कि अगर प्रधानमंत्री से सीधे बातचीत हो जाए, तो निश्चित तौर पर समाधान हो जाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री को किसानों की समस्याओं से ज़्यादा चुनावों की चिन्ता रही और उन्होंने किसानों की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया। किसान आन्दोलन में अब तक 400 से ज़्यादा किसानों की जान जा चुकी है। इस समय भी अपनी जान हथेली पर लेकर किसान दिल्ली की सीमाओं पर मौसम की मार सहते हुए अपनी खेती-बाड़ी बचाने के लिए जद्दोज़हद कर रहे हैं; लेकिन सरकार के कान पर जूँ नहीं रेंग रही। हालाँकि अब दिल्ली की सीमाओं से केंद्र सरकार पर आन्दोलन का पहले जैसा दबाव नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि किसान ढीले पड़ गये या आन्दोलन कमज़ोर पड़ गया है।
इधर राजनीतिक दल भी नहीं चाहते कि आन्दोलन ख़त्म हो जाए, फिर तो उनके पास कोई बड़ा मुद्दा ही नहीं रह जाएगा। लेकिन इसमें सरकार की भी कमी है। क्योंकि वह अगर चाहे, तो किसानों के हित में काम करके उन्हें विश्वास में लेकर उन्हें इस महामारी में आराम से अपने घर रहने का रास्ता निकाल सकती है। संयुक्त मोर्चा की बातचीत की पेशकश बताती है कि किसान समस्या का समाधान चाहते हैं। केंद्र सरकार को इसे गम्भीरता से लेना चाहिए। जैसी बेरुख़ी सरकार दिखा रही है, उससे तो कोई हल निकलना सम्भव नहीं है।

धारा-144
26 मई को बड़ी संख्या में ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर काला दिवस मनाने पहुँचे किसानों को रोकने के लिए पुलिस बल पहुँच गया। जैसे ही किसानों ने सरकार का पुतला फूँकना चाहा, पुलिसकर्मियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, जिससे वहाँ धक्का-मुक्की का माहौल बन गया। लेकिन बाद में राकेश टिकैत की दख़लंदाज़ी से मामला शान्त हो गया। लेकिन यहाँ धारा 144 लगा दी गयी है। पुलिस ने दिल्ली की सभी सीमाओं पर बैरिकेड लगा दिये हैं। इधर भारतीय किसान यूनियन (चढ़ूनी) के प्रदेश अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने संयुक्त किसान मोर्चा से अलग भारतीय किसान मज़दूर फेडरेशन का गठन करने के संकेत दिये हैं।

ख़रीद का खेल
सरकारी आँकड़े बताते हैं कि इस बार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूँ की ख़रीद पिछले साल के मुक़ाबले 58 लाख मीट्रिक टन ज़्यादा हुई है। पिछले सल यह ख़रीद 324 लाख मीट्रिक टन थी, जबकि इस बार यह 382 लाख मीट्रिक टन अब तक हो चुकी है। सरकार बताना चाहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी ख़रीद पहले ही तरह होती रहेगी। गेहूँ पर तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी आँकड़ें ठीक बात है, लेकिन अन्य फ़सलें अब भी पहले की तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकतीं। ऐसे में सभी फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर किसानों की माँग काफ़ी हद तक सही है। सभी फ़सलों के लिए केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर रखे हैं, लेकिन उनकी सरकारी ख़रीद नहीं हो पाती। ऐेसे में निजी कारोबारी उन्हें अपने भाव में ख़रीदते हैं, जो काफ़ी कम होता है। लेकिन कम भाव में खाद्यान्न बेचना किसानों की मजबूरी होती है।