राजस्थान में बाराँ ज़िले के बीलखेड़ा गाँव के 30 वर्षीय धनराज को देखकर नहीं लगता कि दो जून की रोटी भी उसे मयस्सर होगी। जंगल के छोर पर बनी उसकी फूस की झोंपड़ी गिर रही है। उसके तीन बच्चे अधनंगे घूम रहे थे। सम्पत्ति के नाम पर गिलट के टूटे-फूटे बर्तन और एक कुल्हाड़ी है। लेकिन सरकारी रिकॉर्ड कुछ और ही बताते हैं कि धनराज समेत गाँव के सभी बाशिंदों के लिए सरकार ने पक्के मकान बनाकर दे रखे हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत भी मकान बनाये गये हैं। सरकारी दस्तावेज़ों में उनके नाम खेत और ज़मीन भी दर्ज है। नियमित रूप से राशन भी मिल रहा है। लेकिन हँसमुखी यह कहते हुए सरकारी आँकड़ों के झूठ को बेपरदा कर देती है कि राशन के दर्शन तो कोर्ई तीन-चार महीनों में ही हो पाते हैं, और वो भी कभी-कभी। कोर्ई 15 साल पहले मकान बनवाये गये भी होंगे, तो अब वहाँ सिर्फ खण्डहर नज़र आते हैं। प्रधानमंत्री आवास येाजना के तहत मकान बनाये जाने की शुरुआत भर की ही तस्दीक होती है। आधी-अधूरी दीवारों को मकान कहने का दावा किया जाए, तो बात अलग है। उनके नसीब में फूस की झोंपडिय़ाँ ही हैं। रोज़गार के सवाल पर तो गाँव वाले यह कहते हुए कन्धा झटक देते हैं कि मनरेगा कोर्ई ज़माने में रहा होगा, लेकिन अब कहाँ है?
राजस्थान में उदयपुर, बाँसवाड़ा, चित्तौड़ और बाराँ आदिवासी बहुल इलाकों में गिने जाते हैं। सरकारी योजनाओं का नुमाइशी नज़ारा तो हर कहीं है। लेकिन सबसे बदतर हालात में अगर कोर्ई जी रहा है, तो वे हैं- बाराँ ज़िले के सहरिया आदिवासी है। ज़िले के केलवाड़ा और शाहबाद समेत 60 पंचायत हलकों में कोर्ई डेढ़ लाख की सहरिया आबादी है। लेकिन जीवन यापन के नाम पर सहरिया डेढ़ ज़िन्दगी जी रहे हैं। इलाके का हर शख्स सरकारी योजनाओं के हाशिये पर खड़ा बेचारगी, बदहाली और बदनसीबी की मुकम्मल कहानी बयान करता है। वह आसमानी ख्वाब बुनता है, तो दारू के नशे में, …और यही इसे चाट रही है। नशे की नशीली ज़िन्दगी बरकरार रखने के लिए आदिवासियों ने ज़मीन खेत तो क्या राशन कार्ड भी बेच खाये हैं। राशन कार्ड भी सभी के बन गये हों या बनकर उन्हें मिल गये हों? कहना मुहाल है। सरकारी सूत्रों के दावे की बात करें तो राशन कार्ड से गेहूँ ही नहीं, घी-तेल तक दिया जाता है; तो फिर जाता कहाँ है? हरिनगर गाँव का धुआँलाल कभी-कभी गेहूँ मिलने की तो तस्दीक करता है। लेकिन घी-तेल के सवाल पर तो दायें-बायें झाँकने लगता है। आदिवासियों के हालात पर पैनी नज़र रखने वाले और उनके अधिकारों के मुहािफज़ बने मुकंदीलाल का कहना है कि सहरिया (आदिवासी) तो दोनों ही हाथों लुट रहे हैं। अव्वल तो राशन सामग्री मिलने का कोर्ई ठिकाना ही नहीं है; अगर मिलता भी है, तो इन तक पहुँचने का सवाल ही नहीं। शराब की गिरफ्त में गले-गले तक डूबे आदिवासी खुद इस बात से बेखबर है कि दारू की खातिर राशन कार्ड किसे बेच आये? मुकंदीलाल यह कहते हैं कि इनसे बड़ा बदनसीब कौन होगा, जो अपने ही खेतों में मज़दूरी करते हैं? मुकंदीलाल कहते हैं कि खेतों के कागज़ातों पर तो साहूकारों ने ओने-पोने दामों के अँगूठे लगवा लिए। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि आदिवासियों की ज़मीनों की दीगर नामों से रजिस्ट्रियाँ क्यों कर हुई? जबकि यह तो कानूनी जुर्म है। फिर खतावार कौन हुआ? क्यों सरकार ने ऐसे जालसाज़ों के कान नहीं उमेठे? लेकिन सूत्रों का कहना है कि इन ज़मीनों केा खरीदा ही दबंगों ने है तो फिर कौन इनसे उलझने का दुस्साहस करेगा? ज़मीनों पर वनोपज की भरमार है। आदिवासी चाहे तो इन दरख्तों से लक्ष्मी की बारिश करवा सकते हैं। लेकिन शराब की मस्ती में उन्होंने अपनी ज़मीनों की कद्र ही नहीं की। केलवाड़ा, शाहाबाद, समेत सभी इलाके सघन वन क्षेत्र है। यहाँ पेड़ों की कटाई का एक पूरा तंत्र फैला हुआ है। लेकिन सब कुछ दबंगई के चलते निर्वाध चल रहा है।
आदिवासियों के डरे हुए चेहरे इस बात की तस्दीक कर देते हैं कि उनका एक लफ्ज़ भी उन्हें साँसत में डाल सकता है। ‘बँधुआ मज़दूरी’ के जाल ने तो इनकी मुश्कें बुरी तरह कस रखी है। गज़ब तो यह है कि इन्हें जल, जंगल और ज़मीन की नेमतें हासिल हैं; लेकिन घर छोडक़र बँधुआ बनने के लिए अभिशप्त है। उज्ज्वला और शौचालय सरीखी योजनाओं का फेरा तो यहाँ भी पड़ा होगा। लेकिन गैस उपलब्ध नहीं होगी और शौचालयों में पानी नहीं मिलेगा, तो ऐसी हज़ार योजनाएँ भी क्या करेगी? सूत्रों की मानें तो राशन सामग्री पर सरकार 30 करोड़ सालाना खर्च करती है। फिर राशन कहाँ जाता है? 25 करोड़ रुपये हर साल शिक्षा से जुड़ी योजनाओं पर खर्च होते हैं। लेकिन शिक्षा की तो यहाँ झलक भी नहीं मिलती। जिन गाँवों में पहुँचने के लिए सडक़ें ही नहीं है, वहाँ इन योजनाओं का लाव-लश्कर कैसे पहुँचा होगा? पानी तो इंसान की पहली ज़रूरत है। लेकिन इसकी मुकम्मल तस्वीर क्या है? कुछ लोगों के लिए सिर्फ एक हैंड पम्प है। लेकिन कितने पम्प चालू स्थिति में है? एक शिक्षा कर्मी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि बजट तो साब हर चीज़ के लिए खूब आता है। लेकिन पता नहीं कहा जाता है। किसी को कुछ मिल ही नहीं रहा। बजट की हेराफेरी का खुलासा, तो इस एक ही घटना से हो जाता है। पिछले दिनों जनजाति विकास के लिए आवंटित बजट का एक बड़ा हिस्सा कलेक्ट्रट परिसर में एयर कंडीशनर लगाने पर खर्च कर दिया गया। आदिवासी तो यह सोच भी नहीं पाते कि उनके लिए दिया गया बजट कौन हड़प जाता है? भले ही सरकार ने आदिवासियों के विकास के लिए जनजाति क्षेत्रीय विकास महकमा अलग से बना रखा है। लेकिन महकमें के अफसर तो अपना ही विकास करने में लगे हैं। शाहाबाद, केलवाड़ा समेत पूरा आदिवासी इलाका कुपोषण और रक्त की कमी की सबसे ऊँची दरों वाले इलाकों में से एक है। लेकिन इन्हें कुपोषण से बचाने के लिए सरकार चाहे, तो छत्तीसगढ़ से सबक ले सकती है। सूबे के आदिवासी बहुल सूरजपुर ज़िले में ग्रामीण महिलाओं ने प्रशासन की मदद से अनूठी पहल की है। करीब 125 महिलाएँ मोङ्क्षरगा और सहजन की फलियों से तैयार पाउडर ‘मुनगा’ से ब्रेड टोस्ट, समोसा, कुकीज और लड्डू बना रही है। आँगनबाडिय़ों के माध्यम से यह चीज़े बच्चों को दी जा रही है। इसके नतीजे उत्साहवद्र्धक रहे। महज़ तीन महीने में तीन से छ: साल की उम्र के बच्चे कुपोषण के दायरे से बाहर हो गये। आयुर्वेदिक विशेषज्ञों का तो यहाँ तक कहना है कि मुनगा पाउडर कैंसर, डायबिटिज और ब्लड प्रेशर ठीक करने की अचूक दवा है। राज्य मंत्रिमंडल में प्रमोद भाया बाराँ का प्रतिनिधित्व तो करते हैं; लेकिन आदिवासियों की खैर खबर लेने का खयाल इन्हें क्यों नहीं आया? कोर्ई तीन साल पहले ज़रूर प्रमोद भाया राहुल गाँधी को आदिवासी इलाकों में ले गये थे। चुनाव पूर्व तो उन्होंने भी खूब वादे किये थे। लेकिन उसके बाद तो इधर मुडक़र भी नहीं देखा। गिने-चुने स्कूल, डिस्पेंसरियाँ हैं भी, तो वो सब लोगों की पहुँच से बाहर हैं। फिर अध्यापक, नर्स और डॉक्टर कहाँ पहुँच पाते हैं अपनी डयूटी पर। जब उनकी निगरानी करने वाला तंत्र ही नहीं होगा, तो क्यों जाएँगे ड्यूटी पर? चोराखड़ी गाँव की कल्लूबाई कहती है कि गर्भवती औरतों के लिए अलग से कुछ मिलना तो दूर की बात, यहाँ तो न उनकी कोर्ई जाँच होती है और न ही किसी तरह के इलाज की कोर्ई सुविधा ही मिल पाती है। भला यह भी कोर्ई ज़िन्दगी है?
क्या कहते हैं पूर्व उप ज़िलाधिकारी?
सहरिया बेल्ट के पूर्व उप ज़िलाधिकारी राम प्रसाद मीणा बड़े पते की बात कहते नज़र आते हैं। उनका कहना है कि सरकार चाहे जो दे। लेकिन ये खुद लेना नहीं चाहते। शराब की एवज़ में सब कुछ साहूकारों के हवाले कर देते हैं। उनका मशविरा है कि पहली ज़रूरत तो इनको शराब की लत से मुक्त कराने की है। राशन कार्ड पर सामग्री इस पाबंदी के साथ दी जाए कि केवल महिलाओं को मिले। तभी गेहूँ, तेल, घी आदि खाद्य सामग्री घरों में पहुँच सकेगी; नहीं तो सब कुछ शराब की भट्टी में राख हो जाएगा। मीणा कहते हैं कि यहाँ के आदिवासियों की नयी पीढ़ी को शिक्षित करने की भी ज़रूरत है, ताकि इनके परिवारों को बुराइयों से बचाया जा सके। इसके लिए सरकार को नवोदय विद्यालय खोलने होंगे। शिक्षा का महत्त्व इन लोगों को बताना होगा। बच्चों को पढ़ाई के लिए आकॢषत करने के लिए आँगनबाड़ी को बढ़ावा देना होगा। पूर्व उप ज़िलाधिकारी मीणा बताते हैं कि आदिवासियों के हितों के लिए किशनगंज-शाहाबाद में स्वयंसेवी संस्थाएँ भी काम कर रही हैं। इसके लिए सरकार की अनुदान भी हासिल करती है। फिर भी उनका काम नज़र क्यों नहीं आया? यह कहना मुश्किल है।
वह बताते हैं कि मार्च में जब महुआ खिलता है, तो पूरा इलाका महक उठता है। महुए के ढेर हाट-बाज़ारों में दिखायी दें या नहीं; इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। लेकिन देशी शराब की भट्टियाँ ज़रूर तपने लगती हैं। इसकी तीखी गन्ध आदिवासियों को अपनी तरफ न खींच पाये, यह सम्भव ही नहीं है। क्योंकि शराब का नशा अधिकतर आदिवासी पुरुषों के मुँह लग चुका है और उन्हें ज़िन्दगी की बेहतरी से कोर्ई सरोकार नहीं रह गया है।