राजनीति में यादें कभी धुँधली नहीं पड़तीं। लेकिन सियासी दाँवपेच की तेज़ रफ्तार कब, किसे फिसड्डी और किसे माहिर साबित कर दे? इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। कब, कौन महारथी गुमनामी की खोह में धकेल दिया जाए, तो अचरज नहीं होना चाहिए। फिलहाल तो भाजपा की धारदार नेता वसुंधरा राजे इन अप्रिय स्थितियों के कुहासे में घिरी हुई हैं। हालाँकि यह कहना मुश्किल है कि राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति में वसुंधरा की स्थिति क्या है? लेकिन राजनीतिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए, तो ढेरों अप्रिय तथ्य लुका-छिपी करते नज़र आएँगे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि हाल ही में पार्टी की राष्ट्रीय मंत्री बनायी गयी अल्का सिंह गुर्जर को तो बिहार चुनाव के स्टार प्रचारकों में शामिल कर लिया गया; लेकिन राजस्थान और राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक केंद्रीय मंत्री से लेकर दो बार मुख्यमंत्री की पारी खेल चुकी राजे को तवज्जो तक नहीं की गयी? इससे पहले भी वसुंधरा को हरियाणा समेत अन्य राज्यों के चुनावी अभियान से दूर रखा गया। साख, लोकप्रियता और रसूख की बात करें, तो वसुंधरा राजे आज भी नूर-ए-नज़र हैं। इसके बावजूद अगर उन्हें सियासी महिफल से दरकिनार किया जाता है, तो साफ इशारा है कि राजे विरोधी लहर एक दुष्चक्र गढऩे में जुटी हुई है। राजनीतिक विश्लेषक सौरभ भट्ट कहते हैं कि राजनीति में कद और पद का बड़ा गहरा रिश्ता होता है। पद जाते ही बड़े-बड़े नेता अज्ञातवास में चले जाते हैं।
वसुंधरा राजे को जिस तरह कॉर्पोरेशन चुनाव समिति और पंचायत चुनाव संचालन समिति से अलग रखा गया। उसके पीछे भी कमोबेश यही विरोधाभासी राजनीति हो सकती है। विश्लेषक कहते हैं कि वसुंधरा राजे की गिनती ऐसे नेताओं में नहीं की जा सकती। उन्हें चुका हुआ मान लेना भाजपा की सबसे बड़ी गलती होगी। राजे सियासत की इस नब्ज़ को बखूबी टटोलना जानती हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम माथुर भी यही बात दोहराते हैं। लेकिन शब्दों की बाज़ीगरी के साथ कि पार्टी में कोई साइड लाइन नहीं होती। सिर्फ भूमिका बदल जाती है। वहीं विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे की चुप्पी ने प्रादेशिक राजनीति में एक खालीपन भर दिया है। उनका जैसा राजनीतिक कौशल, दमखम और प्रतिद्वंद्वियों पर प्रहार करने की क्षमता किसी दूसरे नेता में नहीं है। वैसे भाजपा में इस विरोधाभासी राजनीति ने कितना विध्वंस रचा? इस बारे में भाजपा नेता भवानीसिंह राजावत की प्रतिक्रिया बहुत कुछ कह देती है कि निकाय चुनावों में उनकी अनदेखी का ही नतीजा रहा कि पार्टी की ज़बरदस्त दुर्गति हुई।
बावजूद इसके भाजपा की प्रादेशिक राजनीति में वसुंधरा राजे की हैसियत को कम आँकने का क्या मतलब है? प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया का बढ़ता हौसला और अप्रत्यक्ष रहकर वसुंधरा राजे पर ताबड़तोड़ हमले सारी कहानी कह जाते हैं। गहलोत सरकार में चले अंतर्कलह पर राजे की चुप्पी को लेकर तो पूनिया ने मौका ताड़ते हुए अभियान छेड़ दिया कि राजे ने गहलोत से हाथ मिला लिया है। उनकी निष्क्रियता का सीधा फायदा डावाँडोल होती गहलोत सरकार को मिल रहा है। निश्चित रूप से यह भाजपा और सहयोगी दल आरएलपी की साझा मुहिम रही होगी। अन्यथा आरएलपी सांसद हनुमान बेनीवाल यह कहने का दुस्साहस नहीं करते कि 20 साल से मिला-जुला खेल चल रहा है। वसुंधरा गहलोत के गठजोड़ की वजह से राजस्थान बर्बादी के कगार पर चला गया है। पूनिया की इस सारी कवायद के पीछे गहलोत सरकार गिराकर कुर्सी हथियाने की बेताबी थी। सरकार गिराओ अभियान में जिस तरह पूनिया दिन-रात एक किये हुए थे, उसमें सबसे बड़ी बाधा तो वसुंधरा राजे थीं। राजनीतिक ताकत के रूप में पूनिया का आकलन करें, तो बेशक पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व तक उनकी अच्छी पहुँच है। पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी में भी उनका पूरा दबदबा है और जातिगत समीकरण भी पूरी तरह उनके पक्ष में हैं; लेकिन विधानसभा में गिनती के विधायक ही उनके साथ खड़े हो सकते हैं। राजनीति में बढिय़ा क्षेत्ररक्षण सबसे बड़ा कौशल होता है। इसके लिए एथलीट सरीखी दक्षता अनिवार्य होती है। इस नज़रिये से पहली अहमियत पार्टी में बड़ा गुट होने की होती है। यह ताकत तो सिर्फ वसुंधरा राजे में है। वसुंधरा के पक्ष में विधायकों में गज़ब की एकजुटता है; जो वसुंधरा के इशारे पर कभी भी आक्रामक हो सकते हैं। उसके अतिरिक्त जीतने की जी तोड़ भावना पैदा करने वाली इच्छा को समझें, तो वसुंधरा अकेली राजनेता हैं जो निर्दलियों को भी अपने साथ लाने का चमत्कार कर सकती हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि वसुंधरा जैसा प्रभाव भाजपा के किसी भी नेता में नहीं है। गहलोत के साथ राजनीतिक गठबन्धन के फरेबी आरोपों से आहत राजे ने केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष आदि से मिलकर अपनी राजनीतिक लॉबी को जगाने की कोशिश में कोई कमी नहीं रखी। लेकिन पूनिया ने खट्टे तजुर्बों का इतना डाटा जुटा रखा था कि राजे की उम्मीदों की जड़ों को जमने ही नहीं दिया। नतीजतन राजे की आवाज़ ही अनसुनी कर दी गयी। ज़ाहिर है कि पूनिया को नेतृत्व की पूरी छूट थी।
विश्लेषक कहते हैं कि यह तो सियासी छल-कपट का सर्प है, जो पार्टी की भीतरी सड़ाँध से निकला है। विश्लेषक इस कपट-लीला के लिए भाजपा प्रदेशाध्यक्ष पूनिया के एक साल में आयोजित वर्चुअल कार्यक्रमों के ज़रिये चाटुकारिता से सने जुमलों की भूमिका मानते हैं। कभी वसुंधरा के गुणगान में कीर्तिमान रचने वाले गुलाब चंद कटारिया पूरी तरह पूनिया के पाले में नज़र आये। उन्होंने कहा कि पूनिया श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे उतरे हैं। उनकी प्रशंसा केवल शब्दों में नहीं की जा सकती। केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने पूनिया के रहनुमाई में एक साल को बेमिसाल बताया। विश्लेषकों का कहना है कि पूनिया पार्टी को सिर्फ सपनों के लोक में ले जा सकते हैं। राजनीति में बड़ा खिलाड़ी वही माना जाता है, जो मौकों पर हुनर दिखाये। निगम चुनावों में तो उन्होंने पार्टी को पूरी तरह पराजय की खाई में धकेल दिया।
पिछले दिनों वसुंधरा राजे ने मीडिया से अपना दर्द साझा करते हुए यहाँ तक कहा कि प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया बे-मतलब की राजनीतिक लफ्फाजी पर उतारू हैं। मुझ पर गहलोत के गठबन्धन का आरोप लगा रहे हैं। किसी अध्यक्ष के मुँह से इस तरह की बातें सुनना हैरान करता है। रंजिश में उन्होंने पद की मर्यादा की धज्जियाँउड़ा दीं। सूत्र कहते हैं कि यह तो सीधे-सीधे नेतृत्व को गुमराह करने की साज़िश है। पुरानी सियासत की सबसे बड़ी उलझन है कि उसका अतीत उसकी चुगली खाता है। दूसरी तरफ नयी सियासत की यह मुसीबत है उसके पास ऐसा अतीत नहीं जो उसको भरोसेमंद बना सके। नतीजतन पूनिया के तंज भड़ास बन कर रह गये हैं। राजे भी सम्भवत: सियासत की सनातन इबारत पढ़ चुकी हैं कि सत्ता की राजनीति की लम्बी पारी खेलनी है, तो संगठन के साथ सम्बन्धों में आयी दरारों को भरना होगा। लेकिन संघ उन्हें कोई मौका देने को तैयार ही नहीं है। यह बेखुदी बेसबब नहीं-कुछ तो है, जिसकी परदादारी है। क्योंकि इसके पार भाजपा नेतृत्व की व्यूह रचना साफ नज़र आती है।
नेतृत्व की नज़रें जयपुर राजघराने की राजकुमारी दीयाकुमारी पर हैं। नेतृत्व का मानना है कि दीयाकुमारी अगर वसुंधरा की जगह लेती हैं, तो वह न सिर्फ नया और ताज़ा चेहरा होंगी, बल्कि रॉयल फैमिली से रॉयल फैमिली का बदलाव होने से राजपूत समुदाय को अखरेगा भी नहीं। बताते चलें कि दीयाकुमारी राजसमंद लोकसभा क्षेत्र से सांसद है। उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय वसुंधरा राजे को है। दीयाकुमारी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत सवाई माधोपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर की थी। बाद में राजमहल होटल प्रकरण में सम्पत्ति विवाद को लेकर वसुंधरा राजे और जयपुर राजपरिवार के बीच खटास आ गयी।
भाजपा नेतृत्व के लिए बेशक यह नया प्रयोग हो सकता है; लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राजे को इस बदलाव के लिए रजामंद करना इतना नहीं आसान होगा? बहरहाल विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व के लिए रेतीली राजनीति की ज़मीन पर सबसे बड़ा उलटफेर देखना बड़ा महँगा पड़ सकता है। सवाल है कि वसुंधरा को लेकर प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया की पिरामिड सरीखी खुन्नस की वजह क्या है? सूत्रों की मानें, तो पूनिया की कसमसाहट को समझने के लिए चार साल पीछे लौटना होगा। उन दिनों राजस्थान में वसुंधरा राजे का सूरज तप रहा था। राजे अपने मनपसंद सूबेदार की तैनाती को लेकर एक और एक-एक ग्यारह का आँकड़ा बनाने की जुगत में थी। मुद्दा भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की तैनाती का था। इस अबूझ दौड़ में संघ की पहली पसन्द माने जाने वाले सतीश पूनिया सबसे आगे थे। जबकि इस प्रतिस्पर्धी मुकाबले में वसुंधरा अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की दोबारा ताजपोशी चाहती थीं। इस खेल में राजे का कूटनीतिक कौशल भारी पड़ा और पूनिया को इस तर्क के साथ मैदान से बाहर कर दिया गया कि उनकी तैनाती से सत्ता और संगठन के बीच फासले बढ़ सकते हैं।
दिलचस्प बात है कि कभी इस पटकथा की खिलाफत में तर्क देने वाले राष्ट्रीय संगठन मंत्री वी. सतीश भी पूरी तरह राजे के साथ थे। जबकि वी. सतीश कई बार दोहरा चुके थे कि मुख्यमंत्री आवास को सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए। सूत्र कहते हैं कि अपनी कामयाबी की कहानी में पूनिया ने वसुंधरा राजे को ही रोड़ा समझा और दुश्मनी को भीतर ही भीतर पालते रहे। अब यह दुश्मनी हरी लगाम में बदल चुकी है; जिसका फंदा वसुंधरा राजे को राजनीति से बेदखल करने के लिए कसता जा रहा है। सूत्र कहते हैं कि वसुंधरा राजे किसी के हाथों की खिलौना बन जाएँ, यह तो सोच से परे है। फिलहाल तो शाही चुप्पी ओढ़े वसुंधरा राजे ने ऐसा कवच पहन लिया है, जिस पर हर प्रहार बेअसर है।
राजमहल कांड नहीं भूलीं दीयाकुमारी
राजमहल पैलेस होटल को लेकर वसुंधरा राजे और जयपुर राज परिवार में ठनी जंग का रहस्य क्या था? आखिर नौबत क्यों राजे की गद्दी छिन जाने की दहलीज़ तक पहँुच गयी? महलों से शुरू हुई यह कहानी आखिर कहाँ जाकर पहुँची? उस समय यह अबूझ पहेली भले ही थी, लेकिन देखते-देखते राख में दबी वह चिंगारी अब इस कदर भड़क चुकी है कि वसुंधरा को सत्ता की सियासत से महरूम करने की नौबत आ चुकी है। जयपुर के सिविल लाइंस इलाके में स्थित राजमहल पैलेस राजपरिवार की सम्पत्ति माना जाता रहा है। राजमहल पैलेस होटल को दिवंगत महाराजा मानसिंह ने अपने पुत्र भवानी सिंह को तोहफे में दिया था। सन् 2004 में जयपुर राजपरिवार में लग्जरी होटल गुु्रप सुजान को लीज पर दे दिया; लेकिन सुजान ग्रुप होटल के जैसल सिंह इसे अपनी मिल्कियत समझने का भ्रम पाल बैठे। जैसल सिंह वसुंधरा राजे के करीबी लोगों में गिने जाते हैं। बात का बतंगड़ तब बना, जब राजकुमारी दीयाकुमारी ने राजमहल होटल के नियंत्रण से जैसल सिंह को यह कहते हुए बेदखल कर दिया कि हमें उन पर भरोसा नहीं रहा। अब होटल की बंदोबस्त हम सँभालेंगे। भरोसा खत्म, सौदा खत्म। कहते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इसे अपना अपमान समझा। नतीजतन उन्होंने जयपुर विकास प्राधिकरण को त्वरित कार्रवाई के आदेश देते हुए होटल के प्रवेश द्वार को मलबे के ढेर में बदल दिया। उसके साथ ही प्राधिकरण ने होटल की 50 करोड़ की 12.5 बीघा ज़मीन को कब्ज़े में लेते हुए सड़क की तरफ खुलने वाले चारों दरवाज़े बन्द कर दिये। यह कार्रवाई दीयाकुमारी को भड़काने के लिए काफी थी। इस मामले में मोर्चा खुला, तो न सिर्फ कोर्ट-कचहरी तक दौड़ चली। यहाँ तक कि राजपूत समुदाय भी भड़क उठा। राजे का यही कदम अब दीयाकुमारी के लिए शूल बन रहा है।