दिल्ली फिर बच गई, तकरीबन सत्तरह हज़ार अच्छे मजबूत और लगभग तीस-चालीस साल पुराने हरे पेड़ों से मरहूम होने से। मेट्रो ट्रेन की विकास योजनाओं में हजारों हजार पेड़ दिल्ली और आसपास काट दिए। प्रेरणा प्रसाद और प्रदीप कृष्ण की तरह दिल्ली के सक्रिय नागरिकों के जनमुहिम छेडऩे और एनजीटी और दिल्ली हाईकोर्ट की बदौलत दिल्ली में सांस लेने के लिए हरे फेफड़े हाल-फिलहाल बच सके हैं। अन्यथा अफसर शाही और मंत्री अपनी सुविधाओं के लिए इन्हें कटवाते और दिल्ली में और तबाही ला ही देते। इस मुहिम में सक्रिय प्रेरणा प्रसाद से ‘तहलकाÓ संवाददाता परी सैकिया की बातचीत के कुछ अंश।
क्या आप पेड़ों को काटे जाने की मुहिम को दिल्ली का ‘चिपको आंदोलनÓ कहना चाहेंगी?
दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की यह योजना थी कि पुनर्विकास के बहाने सेंट्रल दिल्ली के पेड़ काट डाले जाएं। यह एक बड़ा फैसला था। हमने तय किया कि पानी, वायु और गंदगी से प्रदुषित इस दिल्ली को इसके हरे पेड़ों को न काटने दिया जाए। हमने सिटिजेन फार ट्रीज और ईको प्लोर डॉट.काम के जरिए अपनी बात दिल्ली के तमाम विद्यालयों और नागरिकों के सामने रखी। देखते-देखते हमने देखा कि हमारा आंदोलन इस शहर के नागरिकों का यहां के बच्चों और छात्रों का अपना आंदोलन बन गया है। नगर की हरियाली बनी रहे, जितनी भी है वह बची रहे कम से कम अगली पीढ़ी के लिए यह हमारा मकसद था। यह हम सब की नैतिक जि़म्मेदारी है इसलिए हर नागरिक पेड़ों को काटने से बचाने के लिए हमसे जुड़ा। सब इस बात से सहमत थे कि हम यदि हरियाली की चिंता आज नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा?
और हम सबने 17 जून (रविवार) से अपना आंदोलन शुरू किया। हमारे साथ लोग जुड़ते रहे और कारवां बनता गया। हम सब पेड़ों के काटे जाने से रोकने की मांग पर अड़े रहे। इस आंदोलन को चलाए रखने के लिए दिल्ली के नागरिकों ने हर तरह का सहयोग किया। पहले दिन हमने डीएमएस बूथ सरोजिनी नगर पुलिस स्टेशन पर प्रदर्शन किया। लोगों में खासा उत्साह दिखा और पूरे आंदोलन में साथ देने के लिए एकजुट भी रहे। आज भी वे हमारे साथ हैं। पर्यावरण की रक्षा के लिए इतनी बड़ी तादाद में लोगों का जुटना एक बड़ी बात थी।
आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय तो यह दावा कर रहे हैं कि वे कालोनी के पुनर्विकास की प्रक्रिया में जुटे हैं और उनकी कोई योजना नहीं है कि एक भी पेड़ न काटने पड़े। दिल्ली हाईकोर्ट ने 26 जुलाई तक पेड़ों के काटे जाने पर रोक लगा दी। लेकिन ठेकेदार तो तैयारी में ही नज़र आ रहे हैं।
दरअसल सरकार कहती कुछ है और करती कुछ है। सरकार और उसके लोग पूरी कोशिश पहले दिन से करते रहे हैं कि कैसे प्रर्दशनकारियों में फूट डाली जाए। ये अपने घरों को जाएं और इस बात सोचें कि अब पेड़ नहीं कटेंगे। लेकिन हमने देखा, हाईकोर्ट की और एनजीटी की रोक के बावजूद पेड़ों का कटना जारी रहा। हमने संघर्ष जारी रखा कि जब तक हाईकोर्ट, एनजीटी और सरकार साफ-साफ यह नहीं कहती कि हम अपना फैसला लेेते हैं। हम यहीं डटे रहे।
यह आंदोलन जो 17 जून से शुरू हुआ इसमें बाद में राजनीतिक दलों के लोग भी शामिल हो गए। आपका क्या कहना है?
कुछ राजनीतिक दलों ने ज़रूर इस आंदोलन को अपनी राजनीति का मोहरा बनाया है। उन्हें इस आंदोलन से लाभ ही है वे हमारे प्रति हमदर्दी दिखाते हैं। हम वह तो नहीं चाहते कि वे सिर्फ इस आंदोलन में इसलिए आएं कि वे दिखा सकें कि हमारे बीच वे भी हैं और टीवी चैनेल को अपनी वाइट देकर लौट जाएं। लेकिन हमारी यह इच्छा ज़रूर है कि पेड़ों को कटने से रोकने के लिए ये लोग एक ज़रूरी हल ढूंढें। यह सिर्फ दिल्ली नहीं बल्कि तमाम गांवों और शहरों के लिए यह एक ज़रूरी मामला है। इस पर रोक की मांग हर कहीं होगी लेकिन वे ऐसा समाधान निकालें कि उनकी विकास परियोजना की अवधि के भीतर ही मजबूत, हरे और उपयोगी पेड़ भी तैयार हुए।
आपने सिटिजन आंदोलन से कैसे सोशल आरगेनाइजेशन को जोड़ लिया?
इसके लिए मुझे क्रेडिट नहीं मिलना चाहिए। मैंने सुना कि सत्ररह हज़ार से भी ज्य़ादा मजबूत और हरे-भरे पेड़ काट दिए जाएंगे तो कई सामाजिक संगठन इसका पहले से विरोध कर भी रहे थे। मैंने एवाट्सएप ग्रुप बनाया और हर किसी से इस आंंदोलन से जुडऩे का अनुरोध किया। हमने एकता जताई और हम सभी लड़े और जीते भी।
यह मुद्दा महत्वपूर्ण क्यों था?
हर किसी को साफ शुद्ध हवा सांस लेने के लिए चाहिए। हम बिना साफ शुद्ध हवा के कैसे जीवित रह सकेंगे। इस साफ शुद्ध हवा की ज़रूरत राजनीतिक, नौकरशाह और मजदूर को भी है। पेड़ हवा की शुद्धता और सफाई में सहयोग करते हैं।
आप देश के किसी भी गांव- शहर में भीषण गर्मी, बेहद बारिश, और बेहद सर्दी पर किसी से भी बात करें तो वह यही कहता है कि पूरे देश से पेड़ों को अंधाधुंध काट डालने से ऐसा हुआ है। पूरे देश का पर्यावरण चौपट हो गया है इसके लिए हम कम लेकिन मंत्री, नौकरशाह और नेता ज्य़ादा जिम्मेदार हैं। पूरे देश में पेड़ बचाने का आंदोलन होना चाहिए।
क्या आप इस आंदोलन को पूरे देश में तेज़ करेगी?
हां, ज़रूर। हाई वे बनाया जाना है चारधाम को आपस में जोडऩे के लिए। कमज़ोर पहाडिय़ों क्या हाईवे का वज़न सह सकेंगी। जब पेड़ कट जाएंगे तो पहाडिय़ों को कौन संभालेगा जब धंसने लगेंगी।
क्या था एनजीटी का आदेश
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने शुरू में ही अपने आदेश में कहा था कि दक्षिण दिल्ली की सात कालोनियों में जो पेड़ हैं वे कतई न काटे जाएं। यह आदेश नेशनल बिल्डिंग्स कांस्ट्रक्शन कारपोरेशन (एनवीसीसी) और सेंट्रल पब्लिक वक्र्स डिपार्टमेंट को दिए गए हैं। साथ ही यह ताकीद की गई हैकि अगले आदेश तक यथा स्थिति रहे। एनजीटी की बेंच की अध्यक्षता जस्टिस जावेद रहीम कर रहे थे। वे एनजीटी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने गृह और शहरी मामलों के मंत्रालय को इस संबंध में नोटिस भी जारी किए हैं। ये नोटिस सेंट्रल पाल्युशन कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी) और दक्षिण दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन को भी जारी किए गए हैं। उनसे 19 जुलाई तक अपनी बात रखने को कहा गया है। चूंकि यह मामला हाईकोर्ट में भी है इसलिए यदि प्रस्तावित तौर पर 17 हजार पेड़ काटे जाते हैं तो इसका पर्यावरण पर गहरा असर पड़ेगा। एनजीटी ने सभी संबंधित महकमों से मांग की वे बताएं कि कितने पेड़ काटने की उनकी योजना है। उधर दिल्ली में सरकार चला रही आप के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने केंद्र पर आरोप लगाया है कि इसने एनजीटी को यह जानकारी नहीं दी है कि नए सिरे से परियोजना पर कार्य किया जा रहा है। उन्होंने शहरी विकास मंत्री हरदीप पुरी के बयान का हवाला दिया कि उन्होंने वादा किया था कि एक भी पेड़ नहीं काटा जाएगा। उन्होंने कहा कि अदालत में एनबीसीसी के वकीलों का कहना था कि वे अपनी परियोजना को रि-डिजाइन कर रहे हैं। लेकिन वे तो याचिका का ही विरोध करते रहे और रि-डिजाइन की बात ही नहीं की। केंद्र से आप का यही अनुरोध भी रहा है। दिल्ली में यों भी मेट्रो और अन्य हाउसिंग कार्यक्रमों के चलते पेड़ों की तादाद बेहद कम हो गई है। अच्छे मजबूत पेड़ों को इतनी बड़ी तादाद (1700 से ऊपर) काटने पर अमल रूकवाने के लिए गैर सरकारी संस्था सोसाइटी फार प्रोटेक्शन ऑफ कल्चरल हैरिटेज, पर्यावरण, ट्रैडीशनस एंड प्रमोशन ऑफ नेशनल अवेयरनेस, ग्रीन सर्किल और शहर के सक्रिय कार्यकर्ता उत्कर्ष बंसल ने प्रस्तावित 17000 पेड़ों को गिराने और दक्षिण दिल्ली की कालोनी का परिदृश्य बदलने की योजना पर अमल का विरोध किया। इसमें तर्क दिया गया था कि जनरल पूल की सात रेजिडेंशियल कालोनीज से बिना पर्यावरण पर संभावित असर पर बात किए बगैर ही काम शुरू कर दिया गया। याचिका दायर करने वालों को कहना था कि किसी और जगह पौधे लगा देने से वनीकरण की संभावना नहीं बनती। यों भी बड़े पैमाने पर दिल्ली शहर के फेफड़ों की तरह काम कर रहे हरे और मजबूत पेड़ जो बीस -तीस साल के होंगे उनके न रहने पर पर्यावरण विनाश ही होगा। |