ताइवान को अपना बताने वाला चीन उसे दिखा रहा आँखें
चीन ताइवान को तबसे आँखें दिखा रहा है, जबसे अमेरिका की प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी ताइवान की यात्रा पर गयी हैं। यहाँ सवाल उठता है कि क्या चीन ताइवान को यूक्रेन बनाने की तैयारी में है? क्या अमेरिका ताइवान की मदद से वैसे ही पीछे हट जाएगा, जैसा उसने यूक्रेन के मामले में किया था; या नैंसी पेलोसी ने ताइवान के साथ खड़े रहने का जो वादा वहाँ की यात्रा के दौरान किया था, उसे अमेरिका पूरी शक्ति से निभाएगा?
यहाँ बता दें कि कुछ समय पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन को एक चिट्ठी लिखी थी। लेकिन ताइवान की स्वतंत्र पहचान की प्रवल समर्थक वेन ने उसे कूड़ेदान में फेंक दिया था। सख़्त मिज़ाज की वेन ताइवान के लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं और कोरोना की महामारी के दौरान अपने देश में उसके प्रबंधन को दुनिया ने एक मॉडल के रूप में अपनाया था। चीन ताइवान पर तुरन्त हमला करेगा, इसकी सम्भावना कम है। क्योंकि फ़िलहाल कई दशक से चीन ने कोई युद्ध नहीं लड़ा है। चीन ने ज़मीन पर आख़िरी युद्ध सन् 1979 में लड़ा था, जब उसने वियतनाम पर हमला किया था।
हालाँकि चीन के लिए चीज़ें इतनी आसान नहीं हैं; भले वह आक्रामक रुख़ दिखा रहा हो। नैंसी पेलोसी के वापस अमेरिका लौटते ही चीन ने अमेरिका को अपना सख़्त रुख़ दिखाने और ताइवान को दबाव में लाने के उद्देश्य से ताइवान के चारों तरफ छ: जगह पर युद्ध अभ्यास किया। हालाँकि हफ़्ते भर बाद ही ताइवान ने भी चीन के मुक़ाबले अपनी ताक़त का शक्ति प्रदर्शन करने का ऐलान कर चीन को भौचक्का कर दिया। यह तब हुआ जब चीन जल्दी ही दूसरा युद्ध अभ्यास करने की धौंस दिखा रहा था।
चीन के लिए इस दौरान ख़राब बात यह भी हुई कि चीन के सैन्य अभ्यास का असर ताइवान के साथ-साथ जापान पर भी पड़ा है। इसके चलते आसियान देशों ने चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। आसियान देशों के विदेश मंत्रियों ने ताइवान द्वीप के समीप चीनी सैन्य अभ्यास की कड़ी निंदा की। यही नहीं, आसियान देश नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को शान्तिपूर्ण बता चुके हैं। ज़ाहिर है आसियान देशों के ख़िलाफ़ खड़े होने का मतलब होगा हिन्द प्रशांत क्षेत्र में चीन का अकेले पड़ जाना।
चीन पहले ही पेलोसी की ताइवान यात्रा से बौखलाया हुआ है; क्योंकि उसे इससे दुनिया के सामने नीचा देखना पड़ा है। कारण है चीन का ताइवान को अपना हिस्सा बताना। ताइवान ख़ुद को स्वतंत्र देश कहता है। ताइवान का दावा है कि चीन ने युद्धाभ्यास के दौरान उसके द्वीप पर क़ब्ज़े और ताइवानी नौसेना पर हमले का मॉक टेस्ट भी किया था। अपनी तैयारी के लिए ताइवान की युद्धाभ्यास की घोषणा का चीन को नापसन्द करने वालों और ताइवान से सहानुभूति रखने वाले देशों ने स्वागत ही किया। जहाँ तक दुनिया की बात आज की तारीख़ में सिर्फ़ 13 देश ताइवान को एक अलग और सम्प्रभु देश मानते हैं। चीन का दबाव इसका एक बड़ा कारण है, जिससे वह ताइवान को एक अलग राष्ट्र मान्यता देने से कतराते हैं। चीन नहीं चाहता कि दूसरे देश ताइवान को अलग पहचान वाला देश बताएँ; क्योंकि इससे उसके ताइवान का अपना हिस्सा होने के दावे पर सवाल उठेंगे। ताइवान की अलग सरकार है। चीन को यही बात बहुत खलती है। हाल में रक्षा मंत्री ने कहा था कि चीन के साथ उसके सम्बन्ध पिछले 40 साल में सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहे हैं।
अमेरिका ने भले ताइवान को हर हालत में समर्थन का ऐलान किया है; लेकिन उसके ताइवान के साथ आधिकारिक राजनयिक रिश्ते नहीं हैं। यही नहीं, भारत ही की ही तरह अमेरिका भी चीन की ‘एक चीन नीति’ का समर्थन करता है। इसके बावजूद अमेरिका ताइवान के साथ अपने रिश्तों के क़ानून के चलते उसे हथियार बेचता है। यह क़ानून कहता है कि अमेरिका ताइवान की आत्मरक्षा में उसका मददगार रहेगा।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चीन ने योनागुनी और सेनकाकस द्वीपों के पास युद्धाभ्यास किया। यह माना जाता है कि चीन ताइवान को सबक़ सिखाने के लिए ताइवान के कुछ द्वीपों पर क़ब्ज़ा करना चाहता है। वैसे सेनकाकस जापान शासित द्वीप है। हालाँकि चीन और ताइवान दोनों इस पर अपने-अपने दावे करते हैं। यही कारण है कि चीन के इस द्वीप में अभ्यास करने के साथ-साथ जापान ने भी कड़ा विरोध किया। अभ्यास के दौरान चीन की मिसाइलें इस क्षेत्र में गिरीं थीं।
ताक़त और कमज़ोरी ताइवान की ताक़त उसकी राष्ट्रपति साई इंग वेन की भी हैं, जिन्हें बहुत मज़बूत नेता माना जाता है। क़रीब 2.36 करोड़ आबादी वाले ताइवान को लेकर चीन भले आक्रामक रहता है। लेकिन वेन कभी झुकती हुई दिखायी नहीं दीं। सन् 2016 में वेन ताइवान की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं, तो इसका बड़ा कारण देश की स्वतंत्र पहचान का उनका मज़बूत इरादा था। अमेरिका से क़ानून की मास्टर डिग्री और ब्रिटेन के लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी करने वालीं वेन ने क़ानून और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की पढ़ाई भी की है। चीन के ख़िलाफ़ उनका रुख़ ही देश में उनके जबरदस्त समर्थन का आधार है। भले ही वेन ताइवान की मज़बूत इरादों वाली महिला राष्ट्रपति हों; चीन की सैन्य ताक़त के मुक़ाबले ताइवान कहीं नहीं ठहरता। अमेरिका की मदद के बिना ताइवान लम्बे समय तक चीन का सैन्य विरोध करने की क्षमता नहीं रखता। इस साल आयी ग्लोबल फायर पॉवर इंडेक्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ताइवान जहाँ दुनिया की 21वीं सबसे बड़ी सैन्य ताक़त है, वहीं चीन इस मामले पर तीसरे नंबर पर है। चीन के पास 20 लाख, जबकि ताइवान के पास महज़ 1.70 लाख सक्रिय सैनिक हैं। इसी तरह चीन के पास 3,285 एयर क्रॉफ्ट हैं; जबकि ताइवान के पास 751 एयर क्रॉफ्ट हैं। इसके अलावा चीन के पास 281 लड़ाकू हवाई जहाज़, जबकि ताइवान के पास महज़ 91 ही हैं। चीन की बेड़े में 79 पनडुब्बियाँ हैं, जबकि ताइवान के पास सिर्फ़ चार ही हैं। ज़ाहिर है ताइवान के लिए चीन का सैन्य मुक़ाबला करना बहुत आसान नहीं होगा। हाँ, यदि अमेरिका खुलकर ताइवान के साथ आये, तो तस्वीर कुछ अलग हो सकती है।
यहाँ एक और बात है। यदि चीन ताइवान पर युद्ध थोपता है, तो इसका बहुत बुरा असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कम्पनी, दुनिया के 92 फ़ीसदी एडवांस सेमीकंडक्टर बनाती है। दुनिया भर में सेमीकंडक्टर से होने वाली कमायी का 54 फ़ीसदी हिस्सा ताइवान की कम्पनियों के पास है। युद्ध की स्थिति में दुनिया में मोबाइल फोन, लैपटॉप, ऑटोमोबाइल, हेल्थ केयर, हथियारों का उत्पादन संकट में पड़ जाएगा। इस तरह यूक्रेन युद्ध के कारण पैदा हुए खाद्यान्न संकट और इससे उपजी महँगाई में समस्या भी जुड़ जाएँगी।
अतिक्रमणवादी सोच
चीन ने आख़िरी बार सन् 1999 में मकाउ पर क़ब्ज़ा किया था। वैसे सन् 1949 में जब कम्युनिस्ट शासन आया, तो चीन ने तिब्बत पर सन् 1951 में, पूर्वी तुर्किस्तान पर सन् 1949 में, तिब्बत पर सन् 1950 में और इनर मंगोलिया पर सन् 1949 में ही क़ब्ज़ा कर लिया; या कहें कि उन पर अपना दावा जता दिया। इसके बाद सन् 1997 से हॉन्गकॉन्ग और सन् 1999 से मकाउ उसके क़ब्ज़े (दोनों चीन के विशेष प्रशासनिक क्षेत्र) में हैं। चीन ने छ: देशों को अपने नक्शे में रखा है और उसका इन पर क़ब्ज़ा है या उन्हें अपना हिस्सा बताता है और इसमें ताइवान भी शामिल है।
ताइवान और चीन के बीच यह जंग 70 साल लम्बी है। ज़मीन ही नहीं चीन 35 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले दक्षिणी चीन सागर पर न सिर्फ़ अपना दावा करता है, बल्कि उसने वहाँ आर्टिफिशियल आइलैंड तक बना लिया है। चीन ने दक्षिण चीन सागर में स्प्रेटली चेन के पास यह आर्टिफिशियल आइलैंड बनाये हैं।
चीन का दावा कि दक्षिणी चीन सागर से उसका ताल्लुक़ 2,000 साल से भी ज़्यादा पुराना है। यही नहीं, चीन ने कुछ साल पहले हिमालय पर्वत को भी अपना बताया था। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि कुल 97,6,961 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले चीन की सीमा 22,117 किलोमीटर तक है और दुनिया में वह सबसे ज़्यादा 14 देशों के साथ सीमा साझा करता है। लेकिन ख़राब चीज़ यह है कि इन सभी से उसका कोई-न-कोई विवाद है। दिलचस्प यह है कि इन देशों का कुल क्षेत्र 41,13,709 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक है, जो चीन के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है।