मनुवादी प्रैस में पैसा बनिए का और बुद्धि ब्राहमणों की होती है। दोनों ही जहर हैं। यह कथन है बसपा नेता कांशीराम का। नब्बे के दशक में जब क्षेत्रीय दलों का भारतीय लोकतंत्र में उभार हुआ तो वे और उनकी पार्टी भी उभरी। हालांकि आज भी श्रमिक संगठन और कुछ ग्रामीण इलाके आज भी अखबारों में जाति बाहर ही समझे जाते हैं।
इस पहेली को जरा समझिए। बिजली बिल से परेशान निवासियों की बिजली नहीं रोकी जा सकती। लेकिन कारपोरेट मीडिया, श्रमिक संगठनों, दूसरे राजनीतिक दलों और समूहों की खबरें छापने से इंकार कर सकता है। मीडिया हाउस पर कोई भी नियम कारगर नहीं होता?
कोई दिलचस्प खबर है? ब्यूरो चीफ ने पूछा।
‘उन लोगों ने अखिल भारतीय बंद की घोषणा की है।’ रिपोर्टर ने कहा। ठीक है। ज़्यादा नहीं। दो पैरा खबर बना दो न चाहो तो, खबर रोक भी सकते हो।’
यह सवाल उस फैसले का है जिसे ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रीय कमेटी ने संयुक्त तौर पर एक कार्यक्रम के तौर पर लिया था। आरएसएस और वामपंथी संगठनों के दरम्यान चल रही बातचीत के दौर के बाद यह समझौता हुआ था। पहली बार वैचारिक तौर पर परस्पर विरोधी गुट मिल कर किसी संयुक्त कार्यक्रम पर एकजुट हो रहे थे। राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण इस खबर को दबा देने का फैसला उस क्रांति ने लिया जो बाद में अंग्रेज़ी के तीन बड़े अंग्रेज़ी दैनिकों में किसी एक का संपादक बना। यह फैसला उसका भी नहीं कहा जा सकता। यह पत्रकारिता की मुख्यधारा की जानी-मानी संपादकीय नीति ही बन गई है। कुछ दूसरे समसामयिक अखबारों में भी ऐसी स्टोरी को पेज तीन पर सिंगल कालम में दबा देने की बाते सुनाई देती हैं।
बहरहाल जो हो दो दिन बाद वही स्टोरी उसी दैनिक के पहले पेज पर सेकंड लीड बतौर छपी दिखी क्योंकि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने यह घोषणा की थी। ध्यान रखें यह वाकया है जब का जब वामपंथियों के 40 सांसद थे लोकसभा में। जबकि भाजपा के मात्र दो सांसद। यह घटना बताती है कि मीडिया परंपरागत तौर पर किस तरह अपनी पसंद और नापंसद जताता था। मुख्यधारा के दैनिकों को कांशीराम तब ब्राहमण – बनिया प्रैस कहते थे। जो हमेशा अपने ऐसे स्वप्न जाल में ही रहता है।
क्या आपने उसकी कॉपी देखी है। समाचार संपादक ने मुख्य संवाददाता से पूछा। मैं मध्य पाली की शिफ्ट के बाद समाचार संपादक के केबिन में ही बैठा था।
उस प्रशिक्षु संवाददाता ने तीन पेज की एक साइड स्टोरी मूल्य वृद्धि के खिलाफ आयोजित विपक्ष की अखिल भारतीय रैली पर बनाई थी। इंट्रो में नेताओं के भाषणों के अंश थे और भारी भीड़ का ब्यौरा भी। मुख्य संवाददाता ने उसे एक नजर देखा और मुस्कराया। प्रशिक्षु संवाददाता को यह जानकारी नहीं थी कि जब अछूत पार्टियां बड़ी रैली आयोजित करें तो संवाददाता का फोकस इस बात पर होना चाहिए कि रैली से जनता को कितनी परेशानी हुई। किस तरह स्कूली बच्चे परेशान हुए और भीड़ का रुख कितना हिंसक था। यह कहीं अच्छा होगा यदि आज बता सकें कि इन बाधाओं के चलते उत्पादन को कितना नुकसान हुआ। यह तरीका रहा है उस अलिखित नियम का जिसका पालन हर किसी को करना ही होता है।
यदि आप मुख्य उपसंपादक या संवाददाता बतौर नियुक्ति पाते हैं तो पहली ज़रूरत है कि आप अखबार में कामकाज का जो ढर्रा है उससे भी परिचित हों। अलग-अलग अखबारों और संस्थनों में एक अलिखित सूची होती है। कुछ को आप न माने छोड़ दें या फिर मानें। मुख्य उपसंपादक रहते हुए मैंने भी ऐसे व्यक्तित्वों और संस्थानों की सूची बनाई थी जिन्हें वक्त- ज़रूरत मैं देख लेता था।
सभी कामयाब संपादकों में यह गुण होना चाहिए कि वे अखबार के मालिकों का दिमाग पढ़ सकें, क्योंकि बहुत ही सीधा और अस्पष्ट संदर्भ कभी बताए नहीं जाते। बस उनकी और इशारा किया जाता है। सारी दुनिया में उन अखबारों में एक स्थाई अलिखित सूची है। इन अछूत चीजों की जिनसे बचना उचित ही होता है। मसलन- श्रमिक संगठन, वामपंथी दल, बीएसपी, और ग्रामीण मुद्दे। ऐसे ही और भी मुद्दे होंगे जो ऐसे ही जुड़ते जाएंगे। यह सब अखबारों की अपनी आंतरिक सेंसरशिप की सूची में ही आते हैं। ऐसी ही हैं सुधार विरोधी टिप्पणियां। शुरू के दौर में सुधार की पताका फहराते हुए, उसके खिलाफ कुछ भी बोलना ईश्वर की निंदा करने सा माना जाता था। भारत आए- आलोचक अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्स और नोएम चोम्सकी आदि पर तब तो थी ही आज भी रोक लगती है। काली सूची में आए इन सभी गुटों के साथ पत्रकार सौतेली मां का सा व्यवहार मुख्यधारा की पत्रकारिता में करते हैं।
आप किसी बनिए के अखबार से क्या उम्मीद करते हैं? जबलपुर में अंबेडकर मेले की आयोजन सभा में कांशीराम ने श्रोताओं से पूछा था।फिर खुद ही जवाब दिया, ‘मनुवादी प्रैस में बनिए का पैसा और ब्रहामण का दिमाग होता है। ये दोनों ही जहर हैं’।
और वे सही भी थे। प्रिंट मीडिया तबकी सरकारों टीवी और रेडियो में पूरी तौर पर तो बी एस 1 उसके डीएस -4 (दलित, शोषित समाज संघर्ष समिति) जो बीएस पी का हरावल दस्ता था उसका संपादकीय बैठकों और समाचार पत्रों में हमेशा उपहास और कटाक्ष के साथ ही जि़क्र होता। वामपंथी दलों, बीएसपी और टे्रड यूनियन को नियमित कवर करने वाले रिपोटर्स से हमेशा मुख्य उपसंपादक और संपादक मजाकिया लहजे में पूछते,’क्या है कुछ रोचक’?
‘कुछ भी है रोचक’ का मतलब होता है कि क्या कुछ है जिसे उभारा जा सकता है। यानी कुछ ऐसा जिसमें कुछ समूह उपेक्षापूर्ण तरीके से आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हों। संवाददाताओं को खासतौर पर इस तरह की झलकियों को देखने-समझने -लिखने के लिए कहा भी जाता था। अखिल भारतीय बंद की खबरों पर मुख्य उपसंपादक को यह कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी कि उसे यह खबर नहीं लेनी है, या लेनी है तो अंदर के पेज पर और उसे काफी छोटा करके। एक नए संवाददाता ने 1990 में स्टैटसमैन में श्रमिकों की मांगों के पक्ष में एक बड़ी खबर बना दी। अखबार के डाक संस्करण में वह खबर छप भी गई। दोनों को दूसरे ही दिन प्रबंधन से ‘मेमो’ मिल गया। इन लोगों ने उस ‘मेमो’ को डीयूूजे की कार्यकारिणी को दिखा दिया। नतीजा यह हुआ कि उन्हें बाहर का रास्ता फिर दिखा दिया गया।
जेेएनयू की पढ़ी एक लड़की रिपोर्टर हिंदुस्तान टाइम्स में बनी। उसने एक दिन रेलवे कालोनी में रह रहे उन उदास परिवारों की हालत पर एक स्टोरी लिख डाली जब देश भर में अखिल भारतीय ट्रेन हड़ताल चल रही थी। यह बात तब की है जब एलएन मिश्रा रेलमंत्री थे। मुख्य संवाददाता ने उसकी कॉपी पढ़ी और कूड़ेदान में डाल दी। विरोध में उसने इस्तीफा दे दिया और एक एनजीओ में चली गई।
उप दशक में चर्चित श्रमिक संगठनों के मीडिया बॉयकाट में गुडग़ांव के मारूति कारखाने का भी नाम है। ‘हिंदू’ को छोड़ दिल्ली के सभी अंग्रेज़ी अखबारों ने श्रमिकों के हवाले से हड़ताल, गिरफ्तारी और उन्हें यातना दिए जाने के ब्यौरे नहीं छापे। यह फैसला बताता है कि मीडिया किस तरह सामूहिक तौर पर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर मुख्य खबरों की ओर से आंख मंूद लेता है जो उसके लिए अछूत हैं।
मीडिया मालिकों यानी अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय अखबारों के मालिकों में भी बहुत साफ वर्ग का अलगाव दिखता है। अखबारों की दुनिया में पैसे का खासा बोलबाला है। मालिकों में संगठित श्रमिकों के खिलाफ हमेशा पूर्वग्रह रहता है। दो दशक पहले अखबारों में श्रमिक संगठनों का खासा बोलबाला था। सामूहिक बातचीत, धीरे चलो, धरना,हड़ताल और लॉकआउट आम बात थी। ज़्यादातर अखबारों के श्रमिक संगठन केंद्रीय श्रमिक संगठनों से जुड़े थे। इस कारण प्रबंधन उनसे घृणा करते थे। ‘स्टेट्समैन’ में चली एक लंबी हड़ताल में आर ईरानी ने तो श्रमिकों से मुकाबले के लिए बाहुबलियों को बुला लिया था। अरुण शौरी ने तो एक बार हड़ताल के समय एक्सप्रेस बिल्डिंग में ‘गूजर बाहुबलियों’ के बारे में लिखा भी था। एक बार तो यह अफवाह उड़ी थी कि बाहर हड़ताल कर रहे लोग इमारत के अंदर के लोगों के खाने-पीने में जहर डलवा रहे हैं। इस तरह का तनाव, तब के प्रबंधन मालिकों और अखबार श्रमिकों के बीच रहा करता था।
मुख्यधारा की मीडिया का पारंपरिक पूर्वाग्रह वामपंथियेां के प्रति भी है। जो रिपोर्टर वामपंथी पार्टियों, श्रम संगठनों आदि की कवरेज करते वे अमूमन यही बताते और कुछ भी उनके खिलाफ ही लिखने में जुटे रहते। मीडिया के लिए ‘लाल’ यों भी 70 के दशक तक पूर्वाग्रह युक्त ही रहा। तब के अखबरों में शीर्षक में ‘रेड्स’ इस्तेमाल किया जाता। इसकी अनेकों वजहें होती। तब अमूमन लेखक बतौर उपसंपादक इस पेशे में आते। दरअसल भारतीय मीडिया ने अमेरिकी और ब्रिटिश मीडिया से वामपंथियों से विरोध को अपना लिया था। जबकि इसकी भारत में कोई खास वजह नहीं थी।
वामपंथ को लेकर गहरा अछूतवाद भारत में अपनाया गया, क्योंकि यहां अमेरिकी और अंगे्रजों की प्रचार सामग्री काफी आती। तब वामपंथियों को ‘समाज विरोधी’ और ‘हिंसा भड़काने वाला’ माना जाता था।
याद करें 1960 के मध्य तक तो यह हाल था कि कम्युनिस्टों के प्रति सहानुभूमि रखने वालों को सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी। पुराने वामपंथी भी मुख्यधारा के भारतीय अखबारों को पसंद नहीं करते थे। उनके पास उनका अपना प्रचार तंत्र था जिसके जरिए वे समाज में और अपने पदाधिकारियों से नियमित संपर्क रखते। भाकपा और माकपा ने तो नियम बना लिया था कि वे अपनी बैठकों के बाद बयान जारी करते। ऐसा इसलिए वे करते जिससे वक्तव्यों की गलत रिपोर्टिंग न हो और गलत उदाहरण न दिए जा सकें। कुछ दोस्त संवाददाता तो खबरें पहले ही लिखते लेकिन अखबार के विभिन्न स्तरों पर खबरों की इतनी कड़ी पहरेदारी होती है कि वामपंथी दलों के नेता भी ज़्यादा जोर प्रकाशन पर नहीं देते थे। तब के माकपा महासचिव ईएमएस नंबूदिरीपाद कहते भी थे कि,’हम नहीं जानते कि कल आपके अखबारों में क्या छपेगा। ‘स्टेट्समैन’ के एस बनर्जी उनसे कहते,’हमने अपनी रिपोर्ट फाइल कर दी है। बाकी हमारे हाथ में कुछ नहीं है। इस पर सभी हंस पड़ते।
कम्युनिस्टों के बड़े नेता कभी मीडिया के दुलारे नहीं बने। पीटीआई के संवाददाता केपी श्रीवास्तव ने एक बार भूपेश गुप्त से पूछा था कि भाकपा क्यों इंदिरा के समर्थन में है। इस पर भूपेश ने कहा कि आप पहले राज्य और क्रांति पर लेनिन की किताब पढ़ें फिर मेरे पास आएं। पुराने वामपंथी नेता चाहते थे कि संवाददाता भी माक्र्सवाद पढ़े। समाज में माक्र्सवादी समझौतों की ज़रूरत पर सोचें और फिर वामपंथियों की आलोचना पूरे आधार के साथ करें।
भाकपा को थोड़ी इज्जत और मीडिया में कवरेज तब मिली जब यह इंदिरा गांधी से जुड़ी। विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री दौर में देश की मुख्यधारा की पत्रकारिता ने वाम दलों को क्षेत्रीय दलों की बराबरी में रखना शुरू किया।
मुख्यधारा की मीडिया में सबसे ज़्यादा गैर जिम्मेदारी और पूर्वग्रह 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार में इंद्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्री दौर में दिखी। यह क्लासिक केस कहलाता है जब खबरों की परिभाषा बदल गई, प्राथमिकता बदल गई और नई इच्छाएं जगीं।
जब भारत की आज़ादी का स्वर्ण जंयती समारोह था। करीब 50 लोगों को आयोजन समिति ने चुना था। तब राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने अपने बीज भाषण में कई अच्छी बातें कहीं और इस समारोह का महत्व भी बताया। लेकिन उनका कहा एक भी शब्द मीडिया में नहीं छपा। इसकी जगह ली लालू के भ्रष्टाचार और संयुक्त मोर्चा सरकार में उठापटक ने। एक अंग्रेज़ी अखबार ने तो गुजराल पर अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक आरोपों को विस्तार से प्रकाशित किया। एक दूसरे अखबार ने आज़ादी के उत्सव में धन की बर्बादी पर खबर छापी। उसने बताया कि नौ अगस्त के भारत छोड़ो आंदोलन के नाम पर पांच करोड़ रुपए मात्र की लागत से ‘भारत छोड़ो आंदोलन को मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में गिरीश करनाड और श्याम बेनेगल के निर्देशन में प्रस्तुत किया गया इसमें यह रकम
खर्च की गई।
मीडिया के लिए बहुजन समाज पार्टी वामपंथियों की तुलना में कहीं ज़्यादा अछूत थी। कांशीराम ने तब 1980 की शुरूआत में कहा था कि ‘मनुवादी’ प्रेस ब्राहमण और बनिया प्रणाली के ही पक्ष में है। मायावती जब यूपी में भाजपा के सहयोग से राजकाज संभाल रही थी तो भी मायावती ने दूसरी पार्टियों मसलन समाजवादी, तेलुगु देशम और बीजू जनता दल की तरह विधायकों की खरीद या उन्हें जबरन अपने साथ जोडऩे की कोशिश नहीं की। चुनावों के दौरान बहुजन समाज पार्टी चुनाव प्रचार के दौरान सभाएं करतीं। इसमें लाउडस्पीकर पर लोकगीत बजते साइकिल रैलियां होती, पोस्टर बाजी होती। सबसे ज़्यादा लोकप्रिय तरीका था लोक गान और नाटिका मंचन का। यह कोशिश की जाती थी कि इससे मनुवादी टीवी और मीडिया से मुकाबला किया जाए। इसी कारण बीएसपी बहुत कम प्रेस कांफ्रेंस करती और दूसरे मीडिया प्रयोगों से भी बचती। यह पार्टी आधिकारिक बयान जारी करती और इसकी कतई इस बात की चिंता नहीं करती कि मीडिया में उसकी कैसी प्रस्तुति होगी। बीएसपी के प्रेस नोट ज़्यादातर स्थानीय मीडिया में ही प्रयोग में आते। मीडिया के ‘कंटेंट कंट्रोलर’ यह मान कर चलते कि बीएसपी के लोग ‘हमारी तरह के लोग’ नही हैं ऐसा जान पड़ता मानो दोनों ही तरफ एक सी जिद भरी सोच थी।
वैश्वीकरण के बाद ‘न्यू मीडिया; सोशल मीडिया की शुरूआत हुई। इसका अपना व्यवसायिक महत्व था। मीडिया हमेशा अपने सर्वे में अंग्रेज़ी पाठकों को बताते कि ‘बहुजन’ महत्वहीन है। इस तरह बीएसपी की घटनाओं की बाजार में भी पूछ कम रहती।
अंग्रेज़ी मीडिया के प्रचार क्षेत्र में आमतौर पर विशाल ग्रामीण भारत और पिछड़े हुए इलाके नदारद ही रहे हैं। इसके पाठक भी ज़्यादातर शहरी और उपनगरीय लोग ही रहे हैं।
इन सारी बातों से गंभीर तौर पर एक नैतिक सवाल यही उठता है कि प्रेस का धर्म क्या है। प्रेस के लोगों का हड़ताल पर जाना, अखबारों के गेट पर नारेबाजी करना और उनसे निबटना एक अलग बात है। लेकिन यह सारे पूर्वाग्रहों और आपसी द्वेष का नतीजा यही होना चाहिए कि सारे श्रमिक और किसान जगत की अनदेखी न हो।
दूसरे प्रेस आयोग की रिपोर्ट में ऐसे तमाम संकेतों के लिए अखबारों के मालिकों और संपादकों को जिम्मेदार ठहराया गया है। अमेरिका के एक प्रेस पैनेल की रिपोर्ट के अनुसार एक अखबार को ‘लोकसेवा’ और जनसेवा का काम करना चाहिए। क्या पाठकों को जानकारी पाने के उनके अधिकार से वंचित कर देना ठीक है वह भी अपने पूर्वाग्रहों के चलते’।
सोचिए जरा, एक बिजली कंपनी के खिलाफ बिजली उपभोक्ता इसलिए प्रदर्शन करते हैं क्योकि वह अंधाधुंध बिल बढ़ा देती है। लेकिन क्या बिजली कंपनी बिजली के उन उपभोक्ताओं को बिजली कनेक्शन देने से इंकार कर सकती है। क्योंकि वे उसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। तमाम तरह के उद्योगों में तरह-तरह के कानून हैं। गुणवत्ता से लेकर उपभोक्ता अदालतों तक। इन सभी को तमाम तरह के कानूनों का पालन करना पड़ता है। यदि मीडिया को पूरी तौर पर निजी उद्योग और खबरों को उत्पाद मान लें तो क्या किसान भी तैयार होगा रोजमर्रा के कानूनों को मानने के लिए। वाकई न्यू मीडिया के दर्शन और पत्रकारिता के उसूलों और संकेतों में कोई संबंध होगा जिस पर प्रेस परिषद और प्रेस कमीशन जोर देते भी रहे हैं। पी.रमन इस समय उम्र के 80 वें दशक में होंगे। उन्होंने जिंदगी का आधे से भी ज़्यादा दशक प्रिंट मीडिया को दिया। प्रिंट मीडिया में उपसंपादक के पद से उन्होंने काम शुरू किया। तकरीबन एक दर्जन से भी ज़्यादा पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने काम किया। इकॉनॉमिक टाइम्स और बिजिनेस स्टैंडर्ड में वे राजनीतिक संवाददाता और टिप्पणीकार रहे। उनकी एक नई पुस्तक ‘द पोस्ट ट्रूथ: मीडिया ज सरवाइबल सूत्र, ए फुट सोल्जर्स वर्सन’ आई है। आकार प्रकाशन से छपी यह किताब प्रिंट मीडिया में काम करने वाले युवा पत्रकारों के लिए एक ज़रूरी किताब मानी जाती है।