27 अप्रैल की बात है. बिहार के सहरसा में एक चुनावी सभा निबटाकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मधेपुरा के लिए उड़ान भरी ही थी कि अचानक तेज आंधी चलने लगी. चारों तरफ धूल छा गई. हेलीकॉप्टर डगमगाने लगा. मजबूरी में पायलट को वहीं इमरजेंसी लैंडिंग करनी पड़ी जहां से वह थोड़ी ही देर पहले उड़ा था. इसके बाद नीतीश कुमार को सड़क के रास्ते जाना पड़ा.
परेशान करने वाली कुछ ऐसी ही धूल और आंधी इन दिनों नीतीश कुमार के लिए चुनावी सर्वेक्षणों में छाई हुई है. कई सर्वेक्षण और विश्लेषण बिहार में उनकी पार्टी जदयू को चुका हुआ मान चुके हैं. उनके मुताबिक राज्य में भाजपा की लहर है और जदयू, राजद-कांग्रेस गठबंधन से भी पीछे रहने वाला है.
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या सच में नीतीश कुमार और जदयू को चुका हुआ मान लिया जाए? इसी से यह सवाल भी उठता है कि अगर इस लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को करारी शिकस्त मिलती है तो क्या बिहार की राजनीति में भी उनका पराभव शुरू हो जाएगा? क्या अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी वे हाशिये के नेता बन जाएंगे?
इस सवाल को हम कइयों के सामने उछालते हैं. मुख्यतौर पर जदयू, भाजपा और राजद के नेताओं के सामने. जदयू, राजद और भाजपा नेताओं से बात करने का कोई खास मतलब नहीं निकलता. सब रटा-रटाया जवाब देते हैं. एक पंक्ति वाले सवाल का दो-तीन पंक्तियों में संक्षिप्त जवाब. भाजपा खेमे के वाक्य अलग-अलग होते हैं, लेकिन मतलब कुछ ऐसा होता है-‘ अगर-मगर लगाकर काहे पूछ रहे हैं कि अगर नीतीश कुमार की करारी हार हो जाए! वे बुरी तरह हार चुके हैं.’ राजद के नेताओं का जवाब भी कुछ वैसा ही होता है लेकिन वे एक-दो कदम और आगे बढ़कर कहते हैं, ‘ नीतीश कुमार की कहानी खत्म हो चुकी है बिहार में. एक बार फिर राजद की सरकार आने वाली है.’ और इन दोनों के बाद जब जदयू के नेताओं से बात होती है तो वे गुस्से में आ जाते हैं और कहते हैं कि ‘भविष्यवक्ता नहीं बनिए, रिजल्ट आने दीजिए, सब सच सामने आएगा. देख लीजिएगा कि जदयू सबसे बड़ी पार्टी रहेगी.’
चुनाव परिणाम से पहले इस सवाल का जवाब ऐसा ही मिलेगा, इसकी पूरी उम्मीद भी थी. लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद से ही राजनीतिक पंडितों के विश्लेषणों, मीडिया हाउसों के सर्वेक्षणों और शहरी चौक-चौराहों पर जमने वाली चौपालों ने जिस तरह का माहौल बना दिया है, उसमें यह सवाल काल्पनिक होते हुए भी राजनीतिक गलियारों में तैर रहा है कि क्या लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव में भी हाशिये के नेता बन जाएंगे.
इसका जवाब मुश्किल भी है और आसान भी. आसान उनके लिए, जो एकांगी भाव से पॉपुलर मीडिया और एक मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल के आधार पर बिहार की राजनीति का आकलन कर रहे हैं. वे सीधे कह देते हैं कि बिल्कुल, लोकसभा में हार के बाद नीतीश को बिहार की सत्ता से भी बेदखल होना पड़ेगा और अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. जो विश्लेषक पॉपुलर मीडिया की बनाई राय और मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल से अलग अपनी राजनीतिक समझ भी रखते हैं और उस आधार पर गहराई से अध्ययन कर पड़ताल करते हैं, वे कहते हैं कि ऐसा कहना अभी संभव नहीं. उनकी मानें तो लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी की हार का मतलब बिहार की राजनीति में भी उनका अंत कतई नहीं माना जाना चाहिए.
दोनों ही तरह के विश्लेषकों की राय को एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है, नीतीश कुमार की राजनीति पर कितना प्रतिकूल असर पड़ सकता है, इसके बारे में फटाफट राय बनाने की बजाय बिहार की राजनीति में फिलहाल बने समीकरण देखने होंगे, इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे और साथ ही इस बार के लोकसभा चुनाव में तीन प्रमुख दलों जदयू, भाजपा और राजद द्वारा अपनाई गई चुनावी रणनीति को भी देखना-समझना होगा.
कैसी-कैसी मुश्किलें
लोकसभा चुनाव में अगर सच में जदयू को बुरी हार मिली तो क्यों नीतीश कुमार के लिए बिहार में सत्ता को बनाए-बचाए रखना भी मुश्किल हो जाएगा और क्यों वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हाशिये की तरफ जा सकते हैं, इसके पीछे कई तर्क एक साथ दिये जाते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में तो अभी देर है, लेकिन उसके पहले ही कई ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिनसे नीतीश चक्रव्यूह में घिरते नेता जैसे दिखे और कई बार बेहद कमजोर भी. इस लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी अनुमानों-आकलनों के विपरीत जाकर दहाई में भी सीटें लाती है तो भी कुछ चीजें हैं जो उसके लिए विधानसभा चुनाव में परेशानी का सबब होंगी. जैसे हालिया दिनों में पहली बार ऐसा हुआ जब जदयू के भीतर ही नीतीश के खिलाफ बोलने वाले कई नेताओं का उभार हुआ. शिवानंद तिवारी को तो नीतीश ने बाहर का रास्ता दिया दिया, लेकिन कई नेता हैं जो जदयू में रहते हुए ही नीतीश पर निशाना साधते रहे हैं. नीतीश के खासमखास मित्र व राज्य में मंत्री नरेंद्र सिंह से लेकर वृषण पटेल तक उनके खिलाफ बोलते रहे.
दूसरी अहम घटना पार्टी से निकलनेवाले नेताओं के रूप में हुई. नीतीश ने अपने दल से जितने लोगों को मजबूरी में बाहर निकाला, लगभग उतने ही महत्वपूर्ण नेताओं ने उनका साथ भी छोड़ा. उनकी कैबिनेट में महत्वपूर्ण सहयोगी रहीं दो महिला मंत्रियों का चुनाव के पहले ही साथ छोड़ देना प्रतिकूल संदेश देनेवाला रहा. इनमें एक रेणु कुशवाहा थीं और दूसरी परवीन अमानुल्लाह. नीतीश महिलाओं के मजबूत नेता माने जाते रहे हैं. इस हिसाब से कैबिनेट से दो महिलाओं के एक-एक कर निकल जाने से गलत संदेश गए. उसके बाद नीतीश के खास सिपहसालार रहे रणवीर यादव, जिन्होंने बीते साल एक सभा में हवा में कार्बाइन लहराकर सुर्खियां बटोरी थीं, की पत्नी और जदयू विधायक कृष्णा यादव भी पलटी मारकर राजद के टिकट पर चुनाव लड़ने मैदान में आ गईं. बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी व जदयू विधायक अन्नु शुक्ला ने पिछले लोकसभा चुनाव में वैशाली से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़कर राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को कड़ी चुनौती दी थी. उन्होंने भी इस बार टिकट नहीं मिलने पर वैशाली से निर्दलीय लड़ने का फैसला कर नीतीश कुमार को झटका ही दिया.
इन्हें फुटकर बातें भी कह सकते हैं जिनका चुनाव के पहले होना संभावित भी था. लेकिन बड़े नुकसान के भी कुछ संकेत मिले जिनका असर नीतीश कुमार की राजनीति पर अगले कुछ समय में पड़ेगा. परवीन अमानुल्लाह ने साथ छोड़ा तो इसकी धमक राजधानी पटना और परवीन के विधानसभा क्षेत्र साहेबपुर कमाल तक ही सुनाई पड़ी. (हालांकि एक वर्ग है जो मानता है कि इसका थोड़ा बहुत असर मुस्लिम मतदाताओं पर भी पड़ेगा क्योंकि परवीन अमानुल्ला की एक पहचान सैयद शहाबुद्दीन की बेटी के रूप में भी रही है), लेकिन इससे भी बड़ा नुकसान लोकसभा चुनाव शुरू होने के बाद हुआ जिसका असर पूरे बिहार में माना गया और जिसकी भरपाई करने में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को वक्त लग सकता है. यह घटना मुस्लिम बहुल किशनगंज संसदीय सीट से जदयू उम्मीदवार अख्तरुल ईमान द्वारा अचानक ही मैदान से हट जाने के रूप में घटित हुई. अख्तरुल हालिया वर्षों में तेज-तर्रार और वाचाल मुस्लिम नेता के तौर पर बिहार में उभरे हैं. वे कुछ माह पहले ही राजद से पलटी मारकर नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हुए थे. लेकिन किशनगंज से टिकट लेकर उन्होंने ऐन वक्त पर चुनाव न लड़ने का फैसला कर डाला. उन्होंने कांग्रेस-राजद गठजोड़ का समर्थन करके संकेत दे दिया कि भाजपा से लड़ने में और दूसरे शब्दों में कहें तो नरेंद्र मोदी को रोकने में लालू यादव और कांग्रेस ही सक्षम पार्टी है, जदयू नहीं. नीतीश कुमार की पार्टी मंे कई लोग हैं जो ऐसा मानते हैं. जदयू के एक राज्यसभा सांसद कहते भी हैं, ‘ईमान प्रकरण से चुनाव में हमें एक बड़ा झटका लगा और बड़े नुकसान की भी गुंजाइश है.’
जानकार मानते हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार जिस वोट बैंक के सहारे चुनावी मैदान में उतरे हैं उसमें एक अहम फैक्टर मुस्लिम मतदाताओं का ही है. जदयू को पता है कि अगर इस समूह को उनकी पार्टी नहीं संभाल पाएगी तो फिर लालू प्रसाद को मजबूत होने से रोकना आसान नहीं होगा. कारण यह कि लालू प्रसाद कांग्रेस के साथ मिलकर सांप्रदायिकता से लड़ने वाले और भाजपा को रोकन ेवाले नेता के तौर पर फिर से स्थापित होंगे और इसका असर बिहार की राजनीति पर भी पड़ेगा. बिहार में आगे की राजनीति जारी रखने के लिए भी नीतीश को मुस्लिमों का वोट सहेजना जरूरी होगा क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में अचानक ही सवर्णों का एक बड़ा खेमा और विशेषकर भूमिहार जाति उनसे बहुत दूरी बना चुकी है. भूमिहारों का अचानक ही नीतीश से खिसक जाना उनके लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है. इसलिए नहीं, क्योंकि भूमिहारों की आबादी बड़ी है बल्कि इसलिए क्योंकि भूमिहारों और यादवों को बिहार की राजनीति में सबसे मुखर जाति माना जाता है. धारणा रही है कि एक राजनीतिक माहौल बनाने में इन दोनों जातियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. भूमिहारों और उसके जरिये सवर्णों के एक बड़े समूह का नीतीश से मुंह मोड़ना इसलिए भी बुरा साबित हो सकता है, क्योंकि नीतीश कुमार पर अपने आठ-नौ सालों के कार्यकाल में इस जाति विशेष को तरजीह देने का आरोप भी लगता रहा है. कुरमी को ताज, भूमिहारों को राज जैसे नारे उछाले जाते रहे हैं.
इस तरह देखें तो अगर सच में मुस्लिम मतदाताओं ने इस लोकसभा चुनाव में नीतीश से मुंह मोड़ लिया होगा और सवर्णों का एक खेमा यही पैटर्न अपनाए रखेगा तो आगे के दिनों में जदयू की राह बेहद मुश्किल होती जाएगी. इसकी दूसरी वजह यह भी है कि भाजपा बहुत ही चतुराई से नीतीश के कोर वोट बैंक यानी कोईरी-कुरमी गठजोड़ में से कोईरी मतदाताओं के एक बड़े समूह को भी तोड़ने में एक हद तक सफल रही है. ऐसा उसने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से चुनावी गठजोड़ के जरिये किया है.
भाजपा सिर्फ इस समीकरण को तोड़ने में ही सफल नहीं रही बल्कि यह हवा फैलाने में भी कामयाब रही कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में लालू 12-14 प्रतिशत की आबादी वाली यादव जाति के नेता हैं, जबकि नीतीश कुमार 3-4 प्रतिशत की आबादी वाली जाति कुरमी के नेता रह गए हैं. भाजपा इस कोशिश में रही कि लड़ाई राजद और भाजपा के बीच शिफ्ट हो ताकि आगे बिहार की राजनीति करने में आसानी हो. दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव इस संदेश को बार-बार फैलाते रहे कि सांप्रदायिकता से लड़ने में वे और उनकी पार्टी ही सक्षम हैं. नीतीश कुमार इन दोनों अफवाहों के बीच फंसे नेता की तरह दिखे और रोजाना चुनावी सभाओं में मंचों से सफाई देते रहे कि प्रोपेगेंडा वार चल रहा है. साथ ही यह भी कहते रहे कि वे लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जा सकते. नीतीश इसलिए यह संदेश देते रहे, क्योंकि वे जानते हैं कि भाजपा और राजद यह अफवाह फैलाने में सफल रहे हैं कि नीतीश इस चुनाव के बाद स्थितियों की दुहाई देकर कभी भी भाजपा के साथ जा सकते हैं.
नीतीश कुमार के पुराने सहयोगी रहे पूर्व राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘मैं खुद आश्चर्यचकित हूं. इस तरह का ट्रेंड विकसित होगा बिहार में, ऐसा माहौल बनेगा और नीतीश कुमार की पार्टी की ऐसी हालत होगी…इतना नहीं सोचा था.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘लालू यादव कांग्रेस के साथ जाकर एक बार फिर नए किस्म का सामाजिक समीकरण बनाने में सफल रहे और भाजपा ने घेरेबंदी करके नीतीश के अपने ही वोट बैंक में संेधमारी कर दी. अगर भाजपा और राजद को बड़ी जीत हासिल होती है, जिसकी पूरी संभावना है तो फिर बिहार में नीतीश कुमार के लिए विधानसभा चुनाव में भी बड़ी मुश्किलें होंगी.’ तिवारी समेत कई लोग यह मानते हैं कि इससे एक किस्म का मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा और भाजपा-राजद मतदाताओं के मनोविज्ञान को बदलने की कोशिश करेंगे. अगर संयोग से केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं या भाजपा की सरकार बन जाती है तो भाजपा के नेता बिहार में यही माहौल बनाएंगे कि केंद्र में जिसकी सरकार है, अगर उसकी ही सरकार राज्य भी में हो तो यह विकास के लिए महत्वपूर्ण होगा. उसके पहले ही नरेंद्र मोदी जैसे नेता यह एलान करके कि अगर वे पीएम बनते हैं तो बिहार पर विशेष ध्यान रखेंगे, नीतीश को उनकी ही बिसात पर मात देने की कोशिश कर चुके हैं. दूसरी ओर लालू प्रसाद यह बताने की कोशिश करेंगे कि जैसे लोकसभा चुनाव में भाजपा से लड़ने में वे और कांग्रेस ही सक्षम रहे, उसी तरह बिहार में भाजपा को रोकना है तो वे ही सक्षम हो सकते हैं. तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश सबसे कड़ी चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं और सवर्णों का विशेषकर एक जाति विशेष का उनका अचानक साथ छोड़कर जाना यह भी संदेश देगा कि नीतीश का कोई ठोस सामाजिक समीकरण नहीं था.’
नीतीश के दूसरे पूर्व संगी और विधान पार्षद रहे प्रेम कुमार मणि एक चौंकाने वाली संभावना जताते हैं. वे कहते हैं ‘अगर भाजपा की बड़ी जीत हो जाती है तो फिर हो सकता है कि सामाजिक न्याय की दोनों शक्तियां लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक ही खेमे में आ जाएं. दोनों दलों और नेताओं के लिए भाजपा ही चुनौती होगी इसलिए दोनों को साथ आने के लिए स्थितियां भी मजबूर करेंगी.’ मणि आगे कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने यह मान लिया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव या 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने सिर्फ अपने बूते इतनी बड़ी जीत हासिल की जबकि दोनों ही बार जीत मूल रूप से भाजपा की थी. नीतीश कुमार की पार्टी के पास अपना कोई संगठन नहीं था, कार्यकर्ता नहीं थे. भाजपा के कार्यकर्ता ही मतदाताओं को बूथ तक लाने का अभियान चलाते रहे. नीतीश कुमार तो महज उत्प्रेरक रहे. भ्रम में पड़कर नीतीश ने खुद को ही मुख्य ताकत मान लिया.’
शिवानंद तिवारी या प्रेम कुमार मणि, लगभग एक भाव में ही बात करते हैं. दोनों की बातों को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता. लेकिन इसके इतर दूसरे तर्क भी दिए जा रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ नीतीश के लिए कड़ी चुनौती जरूर है, लेकिन अभी से सीटों की घोषणा करना ठीक नहीं. हां, यह जरूर होगा कि नीतीश कुमार जितने कमजोर होंगे, लालू प्रसाद यादव उतने ही मजबूत होंगे. सामाजिक न्याय की धारा में विश्वास करने वाले मतदाता तुरंत नीतीश से छिटककर भाजपा के पाले में नहीं चले जाएंगे बल्कि वे कांग्रेस या राजद के साथ जाना चाहेंगे.
सबके अपने तर्क होते हैं और ये सारे तर्क चुनाव के बाद परिणाम आने के बाद की संभावनाएं बताते हैं. वैसे नीतीश के लिए एक दूसरी मुश्किल तो चुनाव के फौरन बाद ही खड़ी हो सकती है. उनके जो विधायक बगावत करके लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं उन्हें चुनाव बाद पार्टी की साख के लिए निष्कासित करना होगा. अगर ऐसा हुआ तो सरकार के तुरंत अल्पमत में भी आ जाने का खतरा होगा. भाजपा और लालू प्रसाद यादव अगर मजबूत होते हैं तो इन दोनों दलों का दांव तुरंत विधानसभा में विश्वासमत पेश करने का होगा. इस बार विश्वास मत में पास हो जाना नीतीश के लिए उतना आसान नहीं होगा. कांग्रेस लोकसभा चुनाव राजद के साथ लड़ रही है, लेकिन वह विधानसभा में नीतीश को समर्थन दिए हुए है. लोकसभा चुनाव बाद लालू को अगर अपेक्षित सफलता मिलती है तो वे तुरंत कांग्रेस पर समर्थन वापसी का दबाव बनाएंगे. भाजपा को अगर अपार सफलता मिलती है तो वह भी चाहेगी कि नीतीश कुमार की सरकार गिरे ताकि जदयू में भगदड़ की स्थिति बने और नीतीश कुमार एक साल और सरकार में बने रहकर नई घोषणाओं के जरिये खुद को और अपनी पार्टी को मजबूत न कर सकें.
यह सब संभावनाएं चुनाव के बाद की हैं जो वर्तमान विश्लेषणों, आकलनों, अनुमानों, सर्वेक्षणों आदि को सच मान लेने और आने वाले परिणाम के बाद की स्थितियां बयां करती हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सच में यह सब आसानी से होगा और लोकसभा चुनाव में नीतीश करारी हार का सामना करेंगे. और अगर करारी हार का सामना करेंगे तो फिर बिहार में भी औंधे मुंह गिरेंगे?
शायद यह इतना आसान नहीं होगा. दरअसल बिहार के राजनीतिक इतिहास में ऐसे कई पन्ने हैं जो बताते हैं कि यहां की जनता लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बड़ा फर्क करती रही है.
क्यों नीतीश को चुका बताना संभव नहीं?
कई जानकारों के मुताबिक पहली बात तो यह है कि बिहार में सीटों का आकलन अब तक सिर्फ मीडिया द्वारा बनाए गए माहौल के आधार पर किया जा रहा है. जातीय गणित और सामाजिक समीकरण क्या कहते रहे हैं, क्या कह रहे हैं, इस पर बहुत बात नहीं की जा रही. दूसरी बात यह है कि अगर नीतीश कुमार की सीटें कम होती ही हैं तो वह पहले से ही तय-सा भी है, क्योंकि वह तब भी होना संभावित था, जब वे भाजपा के साथ मिलकर लड़ते. वजह साफ है. 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और भाजपा ने साथ मिलकर बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत हासिल की थी. यानी 80 प्रतिशत सीटों पर इन दोनों पार्टियों ने कब्जा जमाया था. उसमें भी 40 में से 20 सीटों पर जदयू को जीत हासिल हुई थी. यानि आधी सीटों पर. यह नीतीश कुमार की पार्टी के लिए करिश्माई जीत थी. एक तरह से यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का संभावित चरम भी था. एक बार चरम पर पहुंचने के बाद स्वाभाविक उतार का दौर आता है. इसलिए यह भाजपा के विपक्ष में गए बिना भी बहुत हद तक संभव था कि नीतीश कुमार 20 सीटों के आंकड़े से नीचे उतरते.
अब सवाल यह है कि आखिर नीतीश की पार्टी कितनी सीटों पर सिमटेगी. इसका जवाब इतना आसान नहीं और न ही जितनी आसानी से अनुमान लगाकर नीतीश के ध्वस्त होने की भविष्यवाणी की जा रही है, वह सही है. लेकिन अगर ऐसा हुआ भी और नीतीश कुमार की बड़ी हार हो भी जाती है तो भी क्या उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगले साल विधानसभा चुनाव में भी उनकी हालत पतली रहेगी? इसका सीधा सा जवाब यह है कि ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता. वर्तमान स्थितियों के अनुसार भी और इतिहास को देखकर भी.
मौजूदा हालात देखें तो व्यक्तित्व के आधार पर नीतीश बिहार में सबसे कद्दावर नेता हैं. बिहार के चार-पांच प्रमुख नेताओं में कोई अभी वैसा नहीं दिखता जिसकी राज्य में अपनी एक खास छवि हो और जिसे राज्य का राजपाट चलाने के लिए संभावनाओं से भरा नेता माना जाए. भाजपा के नेता और राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भाजपा की ओर से बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार हो सकते हैं. लेकिन बेदाग नेता होते हुए भी उनकी अपील पूरे राज्य में नहीं मानी जाती. राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव खुद चुनाव लड़ने से वंचित हो चुके नेता हैं और इस बार के लोकसभा चुनाव में अपनी पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती के जरिये अपना राजनीतिक भविष्य संवारने की कोशिश में हैं. मीसा को पाटलीपुत्र से उतारने की कीमत वे रामकृपाल जैसे नेता को खोकर चुका चुके हैं. राबड़ी को सारण से चुनावी मैदान में उतारकर वे अपने ही दल में विरोध का स्वर झेल चुके हैं. राबड़ी बीते विधानसभा चुनाव में भी सारण से ही सटे दो यादव बहुल विधानसभा क्षेत्रों राघवपुर और सोनपुर से मैदान में उतरी थीं, लेकिन दोनों जगहों से हार गईं. जाहिर सी बात है कि जब लालू प्रसाद को अपनी बेटी और पत्नी को चुनाव मैदान में उतारने से ही पार्टी के अंदर बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी तो अपनी जगह उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की भी सोचेंगे तो पहले उनकी पार्टी में ही बवाल मचेगा. दूसरा, बिहार अब शायद उस प्रयोग के लिए आसानी से तैयार नहीं होगा.
इन दोनों बड़े दलों के बाद रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा आदि जैसे नेता बचते हैं. लेकिन जानकारों के मुताबिक अब उनमें वह संभावना नहीं दिखती. ऐसे में बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार ही पहली पसंद के तौर पर बने रहेंगे. वैसे यह बात भाजपा भी जानती है कि लोकसभा में भले ही नरेंद्र मोदी की लहर के भरोसे वह अधिक सीटें हासिल कर ले, लेकिन विधानसभा में नीतीश कुमार का विरोध करना और राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए विकल्प के तौर पर किसी दूसरे नाम की चर्चा करना इतना आसान नहीं होगा. शायद इसीलिए सुशील मोदी जैसे नेता लोकसभा चुनाव शुरू होने के पहले से ही यह कहते रहे हैं कि बिहार की जनता समझदार है. वह लोकसभा में मोदी को चुनेगी, नीतीश कुमार बिहार के लिए ठीक हैं.
यह तो फिर भी बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में व्यक्तित्व के आधार पर लड़ी जाने वाली लड़ाई का अनुमान हुआ. उससे इतर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो नीतीश की पार्टी की लोकसभा चुनाव में बुरी हार हो भी जाए तो इसका मतलब यह नहीं है कि विधानसभा चुनाव में भी उन्हें इतनी आसानी से खारिज कर दिया जाए. इतिहास में बहुत पीछे गए बगैर हालिया दो लोकसभा चुनावों और उसके आगे पीछे हुए विधानसभा चुनावों का ट्रेंड देखें तो दूसरे संकेत मिलते हैं.
2004 के ही लोकसभा चुनाव की बात करें तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद, रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. तीनों मिलकर बिहार की 40 में से 29 सीटों पर कब्जा जमाने में सफल हुए थे. राजद को 22, लोजपा को चार और कांग्रेस को तीन सीटें मिली थी. यानी लालू प्रसाद बहुत मजबूत होकर उभरे थे. लेकिन अगले ही साल फरवरी 2005 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ तो वही लालू प्रसाद भारी नुकसान का सामना करते हुए 75 सीटों पर ही सिमट गए. फिर उसी साल नवंबर में जब दुबारा विधानसभा चुनाव हुआ तो लालू यादव की पार्टी और गिरते हुए 52 सीटों तक आ गई.
2009 के लोकसभा चुनाव आते-आते लालू यादव की पार्टी चार सांसदों वाली पार्टी हो गई, लोजपा सांसदविहीन पार्टी बन गई और कांग्रेस तीन से दो पर आ गई.
2009 के लोकसभा चुनाव में तो ऐसे नतीजे आए,, लेकिन कुछ ही महीने बाद जब बिहार में करीब 19 सीटों पर विधानसभा चुनाव हुए तो लालू प्रसाद का अचानक उभार हुआ. नीतीश कुमार की पार्टी की करारी हार हुई. उसके अगले ही साल 2010 में विधानसभा चुनाव का मौका आया. चुनावी विश्लेषक और पंडित फिर से उप चुनाव के नतीजों का हवाला देते हुए यह भविष्यवाणी करने लगे कि इस बार नीतीश कुमार की पार्टी की करारी हार होनेवाली है. लेकिन हुआ उल्टा. उपचुनाव में करारी हार का सामना कर चुके नीतीश कुमार, उनकी पार्टी और साथ में भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. चुनावी पंडितों का विश्लेषण एक सिरे से धराशायी हो गया.
कुछ ऐसा ही 1994 में हुए एक संसदीय उपचुनाव के बाद हुआ था. 1994 में बिहार की वैशाली सीट पर किशोरी सिन्हा जनता दल की उम्मीदवार बनी थीं. वे कोई मामूली उम्मीदवार नहीं थीं. बिहार के सबसे चर्चित व बड़े रसूख वाले कांग्रेसी परिवार की बहू थीं. बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा की बहू, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी, निखिल कुमार की मां. लालू तब उफानी दिनों में थे, लेकिन जनता दल की उम्मीदवार किशोरी सिन्हा तब एक निर्दलीय प्रत्याशी आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद से चुनाव हार गई थीं. उस समय के चुनावी विश्लेषकों के विश्लेषण अब भी अखबारों के पन्नों में दर्ज हैं. एक संसदीय सीट पर लालू प्रसाद की पार्टी की हार के बाद पूरे बिहार में माहौल बनाने की कोशिश हुई कि अब लालू प्रसाद के राज का अंत होगा. 1995 में बिहार में विधानसभा चुनाव होना था. चुनाव हुआ. लालू ने तब के अविभाजित बिहार की 324 सीटों में से 167 सीटें जीतकर तमाम अनुमानों और आकलनों को ध्वस्त कर दिया था. लेकिन विधानसभा चुनाव में ऐसा प्रदर्शन करने वाले वही लालू प्रसाद यादव जब 1999 में लोकसभा चुनाव हुआ तो अविभाजित बिहार की 54 लोकसभा सीटों में से सात पर सिमट गए थे.
मतलब साफ है कि बिहार की राजनीति में लोकसभा चुनाव के आधार पर विधानसभा चुनाव की परिणति और विधानसभा चुनाव के आधार पर लोकसभा में प्रदर्शन के अनुमान पिछले दो दशक से लगातार ध्वस्त होते आ रहे हैं. इसलिए बिना चुनाव परिणाम आए अभी से ही लोकसभा चुनाव में नीतीश की करारी हार की घोषणा और उसके बाद बिहार में भी हाशिये के नेता बन जाने का पूर्वानुमान शायद एकांगी भाव से की जा रही व्याख्या है और हड़बड़ी में सतही विश्लेषण जैसा भी.