नीतीश जी, सबसे पहले तो बिहार के उस बदलाव के बारे में कुछ बताएं जिसकी आप सत्ता में आने के बाद से ही बात कर रहे हैं.
बिहार को बैड गवर्नेंस का क्लासिक केस कहा जाता रहा है. लेकिन यह बात को कम करके कहने जैसा है. दरअसल बिहार में गवर्नेंस जैसी चीज थी ही नहीं. लोगों की जरूरतों के हिसाब से न नीतियां बन रही थीं और न काम हो रहे थे. केंद्र सरकार की कुछ योजनाएं जरूर थीं जिन्हें कुछ जगहों पर लागू किया गया था मगर उसके अलावा कुछ था ही नहीं. सोच यह थी कि कुछ करने की जरूरत नहीं है, लोग तो आखिर में जाति के आधार पर ही वोट देंगे. दूसरे, बिहार कभी भी किसी नई चीज का हिस्सा नहीं रहा. कानून का राज दिखता ही नहीं था. एक वक्त था जब रोज बलात्कार हो रहे थे. दुनिया भर से पत्रकार बिहार के गुंडाराज को रिपोर्ट करने के लिए यहां आ रहे थे. अब लोगों में एक सुरक्षा का भाव है. कभी-कभी छोटी-मोटी आपराधिक घटनाएं जरूर होती रहती हैं. भारत में कोई ऐसा राज्य है जहां अपराध बिल्कुल नहीं है? तब और अब में फर्क यह है कि पहले अपराधियों पर लगाम नहीं कसी जाती थी और अब तेजी से कार्रवाई होती है. जब हम सत्ता में आए तो हमारा एजेंडा कानून-व्यवस्था बहाल करना था. अब भले ही वह कोई भी हो, अगर उसने अपराध किया है तो कानून अपना काम करता है. पुलिस आजादी से अपना काम करती है. यह हुआ है. हमने सुनिश्चित किया कि सरकारी गवाह बयान से पलटें नहीं, अपनी बात पर कायम रहें. इसका असर यह हुआ कि दूसरे गवाहों ने भी आगे आना शुरू कर दिया. 2006 से लेकर अब तक 74 हजार अपराधियों को दोषी करार दिया जा चुका है. यह तब हुआ है जब ब्यूरोक्रेट वही हैं, पुलिस वही है और जज भी वही हैं.
तो क्या आप यह दावा कर रहे हैं कि आपने बिहार से गुंडाराज का सफाया कर दिया?
मैं यह दावा नहीं कर रहा कि बिहार हर तरह से अपराधमुक्त हो गया या कल बिहार में कोई वारदात नहीं होगी. मुझे नहीं लगता कि देश का कोई भी राज्य इसकी गारंटी दे सकता है. लेकिन यह जरूर है कि बिहार में कानून का राज स्थापित हो गया है. पहले लोग रात में सड़क पर चलने से डरते थे. इस स्थिति में काफी सुधार हुआ है. कोई सांप्रदायिक तनाव या सामाजिक टकराव नहीं है. और यह बात मैं सहजता से कह सकता हूं.
लेकिन क्या आप ऐसा विकास ला पाए हैं जो सर्वसमावेशी हो? क्या राज्य में अल्पसंख्यक खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं? जद यू सत्ता में अकेला नहीं है. भाजपा के साथ इसका गठबंधन है. मुसलमान अब भी नीतीश कुमार के प्रति सशंकित हैं जो सेकुलरिज्म की बात तो करते हैं लेकिन साथ ही उस भाजपा से भी जुड़े रहते हैं जिससे अल्पसंख्यक अब भी छिटकते हैं.
देखिए, यह उस विकास का एक हिस्सा है जिसकी मैं बात करता हूं. हम इसे सर्वसमावेशी विकास कहते हैं. न्याय के साथ विकास. जब कानून-व्यवस्था स्थापित हुई तो विकास आया. ग्रोथ आई. और इसके साथ ही सर्वसमावेशी विकास आया. पिछले साल चुनाव से पहले अक्टूबर-नवंबर में हम न्याय यात्रा पर निकले थे. हमने ज्यादा बड़े वादे नहीं किए लेकिन कहा कि हम न्याय के साथ विकास देंगे. राज्य में किसी समुदाय के साथ भेदभाव नहीं होगा. इसलिए जब आप कहते हैं कि हमारा भाजपा के साथ गठबंधन है और लोगों के मन में शंका है तो हमने इस पर 2005 में अपने चुनाव अभियान में काम करने की कोशिश की थी. अल्पसंख्यकों की सोच होती है कि जो भी भाजपा के साथ जुड़ता है वह सांप्रदायिक है. उन्होंने हमसे ज्यादा अपेक्षाएं नहीं की थीं. लेकिन जब उन्होंने देखा कि हम तो सबके लिए काम कर रहे हैं, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्गों और समाज के हर वर्ग के लिए योजनाएं बना रहे हैं तो लोगों को समझ में आ गया कि यह सरकार सबके लिए है. मैं दावा कर सकता हूं कि मुझे सबका समर्थन है. हमने शून्य से शुरुआत की थी. हमें पता था कि संसाधनों का उनकी क्षमता के हिसाब से इस्तेमाल नहीं हुआ है. जब हम सत्ता में आए थे तो वित्तीय वर्ष समाप्त होने में बस तीन महीने बाकी थे, लेकिन हमारे पास चार हजार करोड़ रु का योजना आकार था. और आज हमारे पास 28,000 करोड़ रु का योजना आकार है. सड़कें बन रही हैं. पहले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ कागजों पर वजूद में थे. आज वे लाखों लोगों की सेवा कर रहे हैं. पहले औसतन 39 लोग ही एक स्वास्थ्य केंद्र की सुविधा का लाभ उठा रहे थे. आज यह आंकड़ा 9,000 हो गया है. जन स्वास्थ्य व्यवस्था फिर से बहाल हो गई है. आज अल्पसंख्यक हमारे साथ हैं. इसलिए नहीं कि हम किसके साथ चल रहे हैं बल्कि उस काम की वजह से जो हमने उनके लिए किया है.
इतना बदलाव हुआ है तो बड़े कारोबारी बिहार में निवेश क्यों नहीं कर रहे? आलोचक कहते हैं कि बिहार के विकास का बुलबुला फूट चुका है.
देखिए, निवेश एक ऐसी चीज है जो कारोबारी तब करते हैं जब उन्हें कुछ चीजों के बारे में भरोसा हो जाए. पहला मुद्दा तो बिहार में कानून-व्यवस्था का था. कानून-व्यवस्था ठीक हुई तो उन्हें लगा कि देखें यह स्थिति कितने दिन चलती है. अब हम दूसरे कार्यकाल में प्रवेश कर चुके हैं और निवेश शुरू हो चुका है. लेकिन बड़ा निवेश हमारे यहां कैसे आए? मेरा मतलब है कि हमारे पास न खनिज संसाधन हैं और न ही कच्चा माल. जमीन कहां है? आदमी के अनपात में बिहार में जमीन बहुत कम है. अभी जो स्थिति है उसके हिसाब से आबादी का घनत्व देश में सबसे ज्यादा हमारे यहां है. 94 हजार वर्ग किलोमीटर में हमारे यहां स्कूल भी हैं, उद्योग भी हैं और 10 करोड़ 38 लाख लोग भी हैं. जब बिहार का बंटवारा हुआ तो इसके हिस्से मूल इलाके की 52 फीसदी जमीन आई और 75 फीसदी जनसंख्या. हालांकि अच्छी चीज यह है कि जमीन उपजाऊ है. अगर आप झारखंड से लगती पट्टी को छोड़ दें तो हमारी 94 फीसदी जमीन उपजाऊ है. अब अगर कोई हमसे 5,000 हजार हेक्टेयर जमीन आवंटित करने को कहे जो उपजाऊ है और जिसमें इतनी जनसंख्या रहती है तो बताइए हम क्या करें? इसलिए हमारे जैसे राज्य में जो चारों तरफ से जमीन से घिरा हुआ है और जिसके पास कोई समुद्र तट नहीं है, दूसरे राज्यों की तरह बड़े-बड़े उद्योगों की उम्मीद नहीं की जा सकती. तब फिर हमसे इस सवाल के जवाब की उम्मीद कैसे की जा सकती है कि बिहार में बड़े निवेश क्यों नहीं हो रहे? बिहार में कृषि आधारित उद्योग होंगे. हमने सिंगल विंडो क्लीयरेंस के साथ एक औद्योगिक प्रोत्साहन नीति बनाई है जो उन कंपनियों की चिंताओं का समाधान करेगी जो बिहार आना चाहती हैं और यहां अपने कारखाने लगाना चाहती हैं. हम उन्हें रियायतें भी दे रहे हैं. मैंने नए आंकड़े देखे हैं और राज्य में 5,000 करोड़ रु का निवेश हो रहा है. प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इसमें समय लगेगा. चमत्कार एक दिन में नहीं होते.
फिर बिहार से लोग अब भी दूसरे राज्यों में पलायन क्यों कर रहे हैं?
बिहार से लोग आज से नहीं कई साल से दूसरी जगहों पर पलायन करते रहे हैं. लेकिन अब उनकी संख्या में काफी कमी आई है. जो दिहाड़ी मजदूर दूसरे राज्यों में जाया करते थे, उन्होंने अब वापस बिहार आना शुरू कर दिया है. यही वजह है कि मजदूरों पर निर्भर उद्योग जैसे कि चमड़े का सामान बनाने वाली कंपनियां महाराष्ट्र से बिहार आ रही हैं.
कुछ समय पहले रणवीर सेना के ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या हो गई. वाम दलों और कांग्रेस ने आरोप लगाया कि जदयू ने रणवीर सेना को पहले इस्तेमाल किया और फिर फेंक दिया. और यह भी कि यह हत्या एक षड्यंत्र थी. मोदी और संघ ने इसे बिहार में खुल्लमखुल्ला हो रही जाति की राजनीति बताया. आप इस आलोचना पर क्या कहेंगे?
इन सारे मुद्दों की बिहार में कोई अहमियत नहीं है. एक राज्य के रूप में बिहार इन मुद्दों से आगे बढ़ चुका है. ऐसी ताकतें हमेशा रहेंगी जो चाहेंगी कि यह वापस उसी दौर में चला जाए. इसमें उनके निहित स्वार्थ हैं. लेकिन ऐसा नहीं होगा. गंगा से पानी अब ऊपर चला गया है.
क्या ऐसे बयान आपके लिए महत्व रखते हैं?
किसी बयान से फर्क नहीं पड़ता. लोगों से पड़ता है और आखिरकार विकास से फर्क पड़ता है. बिहार के लोग गलत और सही का अंतर जानते हैं. वे खोखले शब्दों पर यकीन नहीं करते. लोग कानून-व्यवस्था की स्थिति देखते हैं. लोग देखते हैं कि गलत करने वाले डीजी और कलेक्टरों की संपत्तियां राज्य में पहली बार जब्त हो रही हैं. पिछले सप्ताह, एक पूर्व डीजीपी गिरफ्तार हुए थे. मैंने सभी ब्यूरोक्रेट्स से कहा है कि वे सरकार के पास अपनी आय और संपत्तियों का ब्योरा जमा करें. पिछले साल हमने सेवा का अधिकार कानून बनाया. इसे ही हम विकास के साथ न्याय कहते हैं. केंद्र महिला आरक्षण की योजना बना रहा है. हम यह कर चुके हैं. महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने वाला बिहार देश का पहला राज्य है. पंचायत चुनाव में 50 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं थीं. बिहार के लोग यह जानते हैं. बिहार के बाहर रहने वाले भी जानते हैं मगर ऐसा दिखाते हैं जैसे नहीं जानते. राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर नहीं बनती. अगर कोई और राज्य होता तो मीडिया ने तारीफों के पुल बांध दिए होते. हमें देखकर दूसरे ‘विकसित’ राज्य भी इस रास्ते पर चल रहे हैं.
क्या आप इसे भाजपा-जदयू की सामूहिक सफलता कहेंगे क्योंकि दबी जुबान में कहा जा रहा है कि आप गठबंधन के प्रदर्शन का श्रेय अकेले ले रहे हैं, यह देखते हुए कि आंकड़ों के हिसाब से भाजपा ने जदयू से बेहतर प्रदर्शन किया है?
अब इस सबमें मत पड़िए. लोग जानते हैं किसकी सफलता की दर बढ़ी है. आंकड़े के विशेषज्ञों और आलोचकों के लिए आसान है कि एक कमरे में बैठिए और बात करते रहिए कि भाजपा ने जदयू से बेहतर प्रदर्शन किया है. आप सड़कों पर निकलिए, गांवों में जाइए और लोगों से मिलिए तो आपको पता चल जाएगा कि आंकड़े और लोकप्रियता क्या होती है. इनके बोलने से कुछ बदल नहीं जाएगा.
क्या यही वजह है कि नीतीश कुमार जो खुद को मैन विद अ विजन कहते हैं, राष्ट्रीय स्तर पर जाना चाहते हैं? क्या यही वजह है कि नीतीश कुमार और 2012 के राजनीतिक परिदृश्य को लेकर चर्चा बढ़ती जा रही है?
राष्ट्रीय स्तर पर जदयू का एनडीए के साथ गठबंधन है और रहेगा. जदयू एनडीए का एक अहम सहयोगी होगा मगर हम गठबंधन का नेतृत्व नहीं कर सकते. हालांकि क्षेत्रीय पार्टी के रूप में भी एक पूरे राज्य को अराजकता से बाहर निकालकर हमने अपना काम कर दिया है.
लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ऐसा नहीं सोचते. आपकी अपनी पार्टी के लोगों ने उनके विचारों का समर्थन किया है और आपको प्रधानमंत्री पद का सक्षम उम्मीदवार बताया है.
हां, मैंने उनका ब्लॉग बढ़ा है. लेकिन उन्होंने मुझे पीएम नहीं कहा है. (हंसते हैं)
हां, लेकिन उन्होंने साफ-साफ कहा है कि एक गैरकांग्रेसी, गैरभाजपाई प्रधानमंत्री की संभावना है.
ठीक बात है. उन्होंने कहा है कि संभावना है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि तीसरा मोर्चा एक व्यावहारिक विकल्प नहीं होगा और यह ज्यादा नहीं चल पाएगा. अब देखिए कि इस ब्लॉग के आखिर में क्या कहा गया है. ऐसा नहीं है कि वे तीसरे मोर्चे का रास्ता खोल रहे हैं. उन्होंने कहा है कि 2014 में सरकार का नेतृत्व भाजपा करेगी और भाजपा ही गठबंधन का भी नेतृत्व करेगी.
तो आप मानते हैं कि तीसरे मोर्चे की बात व्यावहारिक नहीं है.
हम आडवाणी जी के ब्लॉग पर ही बात कर रहे हैं. है न? (हंसते हैं). उन्होंने कहा है कि यह संभव है मगर ज्यादा नहीं चल पाएगा. उन्होंने इतिहास से पांच उदाहरण दिए हैं: चंद्रशेखर जी, चरण सिंह जी, देवगौड़ा जी, गुजराल जी और वीपी सिंह जी. इनमें वीपी सिंह का प्रयोग अलग था. उनका समर्थन सिर्फ भाजपा ही नहीं बल्कि वामदल भी कर रहे थे.
ये लास्ट प्वाइंट आपके फेवर में है?
अरे नहीं.
क्या आप यह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री या तो भाजपा से होगा या कांग्रेस से?
हां, मैं यही कह रहा हूं.
मगर आप यह भी कह चुके हैं कि प्रधानमंत्री का उम्मीदवार धर्मनिरपेक्ष छवि का होना चाहिए.
आधार यही होगा. मैंने कहा है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में प्रधानमंत्री बड़ी पार्टी का होना चाहिए. हमारी मांग यह है कि प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति हो जिसे पिछड़े वर्गों की चिंता हो—एक ऐसा व्यक्ति जो सबको साथ लेकर चले. जो पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष हो, जो हम सबको स्वीकार्य हो, जो समाज के हर वर्ग को स्वीकार्य हो, ऐसा व्यक्ति जिसकी छवि सर्वसमावेशी हो.
अगर आपने पहले ही यह साफ कर दिया था तो फिर आपने नितिन गडकरी से मिलकर उनसे यह वादा क्यों लिया कि नरेंद्र मोदी एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होंगे?
मैं नितिन गडकरी से मिलने नहीं गया था. वे मुझसे बात करना चाहते थे. हमारी उनके साथ नियमित रूप से चर्चा होती रहती है.
लेकिन उन्होंने कहा कि आप नरेंद्र मोदी को लेकर आशंकित थे.
जो भी गडकरी जी ने कहा वह मीडिया में आ चुका है. मैं फिर से किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि हर कोई मेरी छवि एक विवादित व्यक्ति की बनाना चाहता है. जो भी मैंने गडकरी जी या भाजपा से कहा, वह देश के हित में था; हमारे गठबंधन के हित में था. मुझे अपनी नापसंद या इच्छा बार-बार बताने की क्या जरूरत है? मेरी कुछ चिंताएं हैं जिनके बारे में मैं मानता हूं कि वे जायज हैं और वही मैंने बताई थीं.
दबी जुबान में चर्चाएं हो रही हैं कि भाजपा और जदयू की आपस में बन नहीं रही. केंद्र में ही नहीं बल्कि राज्य में भी. राज्य में भाजपा के मंत्रियों ने आपके खिलाफ बयान दिए हैं. क्या गठबंधन में टूट की कोई संभावना है?
नहीं. ऐसी संभावना नहीं है. भाजपा से मुझे जो कहना था मैं कह चुका हूं. और जो भी मैंने कहा है वह सिर्फ मेरा ही नहीं बल्कि मेरी पार्टी का भी रुख है.
तो एनडीए से प्रधानमंत्री पद केmउम्मीदवार संबंधी बयान सुनकर आपको गुस्सा नहीं आता?
नहीं, मुझे गुस्सा नहीं आता. मेरी उकसाने वाले बयान देने की आदत नहीं है. न ही ऐसे बयान मुझे उकसाते हैं. लेकिन हां, एक राजनीतिक पार्टी का नेता होने के नाते मैं अपना और अपनी पार्टी का नजरिया बताऊंगा. लोगों को उकसाने के लिए नहीं, केवल फिर से अपना यह रुख स्पष्ट करने के लिए कि हम झुकेंगे नहीं. और हां, यह बात मैं किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में नहीं कह रहा हूं चाहे वह कोई भी हो.
पिछले कुछ समय से यूपीए के प्रमुख सहयोगियों में एक मोहभंग की स्थिति है. ममता बनर्जी सहयोगियों को सम्मान देने की बात कह रही हैं. शरद पवार ने भी पिछले दिनों तहलका से बात करते हुए कुछ इसी तरह की भावनाएं व्यक्त कीं. क्या आपको भी कुछ ऐसा लगता है खासकर तब जब एनडीए और यूपीए दोनों में ही काफी उलट-पुलट हो रही है?
शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों ही यूपीए के अहम सहयोगी हैं. जिस तरह से यूपीए चल रहा हंै, उससे साफ लगता है कि आपसी भरोसे की कमी हो गई है. इसलिए सहयोगी इस तरह की प्रतिक्रिया दे रहे हैं. वहां घमंड है और कांग्रेस शुरुआत से ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे उसे पूर्ण बहुमत मिला हो. उनके पास सिर्फ 200 सीटें हैं. उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे गठबंधन को एकजुट रख रहे हैं. अगर सरकार में कोई समन्वय नहीं होगा तो ऐसा होना ही है. आप नेताओं को नाराज करेंगे और वे असंतुष्ट होंगे. वे आपके सहयोगी हैं और आपको सहयोगियों और उनके विचारों को साथ लेकर चलना होता है.
आपने प्रणब मुखर्जी का समर्थन क्यों किया?
क्या हमारे पास कोई विकल्प था? पहली बात तो यह है कि हम प्रणब मुखर्जी का सम्मान करते हैं. उनका कद बहुत ऊंचा है. वे कांग्रेस पार्टी की पहली पसंद नहीं थे. वहां कई मुद्दे थे. जदयू राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर कोई विवाद नहीं चाहता था. यह एक गरिमा का पद है. हमें एक आम सहमति के साथ जाना चाहिए था. कांग्रेस ने भी गलती की. कोई उम्मीदवार तय करने से पहले उन्हें सभी पार्टियों के साथ बात करनी चाहिए थी. लेकिन हमने सोचा कि ठीक है. कम से कम उन्होंने उम्मीदवार तय करने के बाद तो हमसे बात की. दूसरी बात यह है कि नतीजा सबको पता था. हमें मालूम था कि चुनाव कौन जीत रहा है. तो फिर अलग क्यों जाना? भाजपा का अपना कोई उम्मीदवार नहीं था. पीए संगमा भाजपा के नहीं थे. हम इस नाम की लड़ाई का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे. अगर यह प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ी ही जानी थी तो मेरा मानना है कि भाजपा से कोई उम्मीदवार होना चाहिए था. प्रणब बाबू एक योग्य उम्मीदवार थे.
भाजपा और इसके सहयोगियों के बीच भी तो कोई खास समन्वय नहीं है. यूपीए से ज्यादा आपके सांसद और प्रवक्ता भाजपा के खिलाफ बयान देते हैं. हाल ही में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मसले पर तो आपने एनडीए को लगभग बंधक बनाकर रखा.
जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस मांग में कुछ भी गलत नहीं है कि हम प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान करने के बाद ही चुनाव में उतरें. इससे जनता का मूड अपने पक्ष में करने में मदद मिलती है. अगर एनडीए अभी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान कर देता है तो इससे उसे फायदा होगा. एनडीए इसी तरह चलता रहा है. वाजपेयी जी ने सभी सहयोगियों को इकट्ठा करके रखा. समन्वय बैठकें होती थीं और सभी अटल जी के कहे पर यकीन करते थे.
लेकिन अब कमान अटल जी के हाथ में नहीं है.
अभी हम सत्ता में नहीं हैं, लेकिन हम कोशिश कर रहे हैं कि गठबंधन काम करे. देखते हैं.
चाहे वह लोकपाल का मुद्दा हो या बाबा रामदेव का, भाजपा खुद भी बंटी हुई दिखती है. आपका क्या रुख है? आपकी पार्टी के अध्यक्ष शरद यादव मंच पर रामदेव के साथ मौजूद थे.
यह शरद यादव और जदयू का फैसला था. और हम लोकपाल या काला धन वापस लाने के खिलाफ नहीं हैं. बिहार में हमारे पास एक बढ़िया लोकायुक्त है और इसकी चयन प्रक्रिया में मुख्यमंत्री की भूमिका नहीं होती. हमें एक मजबूत लोकपाल की जरूरत है. यह सबका अधिकार है. इसलिए जब तक अन्ना और रामदेव सही भावना के साथ यह काम करते हैं, इसमें कोई नुकसान नहीं है. मैं उनके व्यक्तिगत स्वार्थों और एजेंडों पर टिप्पणी नहीं करूंगा. और ईमानदारी से कहूं तो इसकी बजाय मैं बिहार पर ध्यान केंद्रित करूंगा. मुझे लगता है कि हमने जो व्यवस्था यहां बनाई है वह एक उदाहरण है. यह अलग बात है कि मैं हर दिन मीडिया में इसका ढोल नहीं पीटता. यह मेरा चरित्र नहीं है. मुझे यह सब नहीं आता. दूसरे ऐसा कर सकते हैं.
जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोहन भागवत को लगता है कि बिहार गुजरात से आगे है?
(हंसते हैं) अब हम क्या कहें, उनकी राय है.