बिहार में लंबे समय बाद विपक्षी खेमे में सुगबुगाहट हो रही है. लालू प्रसाद मौन व्रत तोड़ सड़क पर उतर चुके हैं. जदयू सांसद उपेंद्र कुशवाहा भी संघर्ष का शंखनाद करने वाले हैं. भाकपा माले आंदोलन की शुरुआत कर चुकी है. बगैर किसी चुनावी सरगर्मी के राज्य की राजनीति में कुछ गरमाहट दिख रही है, लेकिन क्या इससे नीतीश के लिए चिंताएं जगती हैं? निराला की रिपोर्ट
छह अगस्त को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव व उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने पटना के जेपी गोलंबर पर महाधरना का आयोजन किया. पांच सितंबर को फारबिसगंज मार्च की घोषणा हुई. लालू प्रसाद ने 11 अक्तूबर को फिर जेपी गोलंबर पर ही जुटने का आह्वान किया. उस दिन राजभवन मार्च होगा. नवंबर में वे गांधी मैदान में रैली-रैला जैसा भी कुछ करेंगे. इससे एक दिन पहले भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में पार्टी कार्यकर्ताओं ने गांधी मैदान के ही दूसरे छोर पर धरना-प्रदर्शन किया था. उनकी पार्टी अब जेल भरो अभियान में लगी है और नवंबर मंे खेत-मजदूर सभा के बैनर तले प्रदेश भर के पार्टी कार्यकर्ता व उनकी विचारधारा से ताल्लुक रखने वाले किसान-मजदूर गांधी मैदान में जमा होंगे. उधर, बागी बनकर भी जदयू का ही दामन थामे रहने वाले और बिहार नव निर्माण मंच बनाकर नयी राजनीतिक संभावना तलाशने में लगे उपेंद्र कुशवाहा और मंगनीलाल मंडल भी गांधी मैदान के तीसरे छोर पर बने श्रीकृष्ण मेमोरियल हाॅल में चार सितंबर को संघर्ष का शंखनाद करने वाले हैं.
यानी एक लंबे अरसे के बाद बिहार में विपक्षी दलों की अंगड़ाई शुरू हुई है. हार की मार से टूट चुके विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं में कुछ जोश दिख रहा है. विपक्ष ने बियाडा का गड़बड़झाला, फारबिसगंज कांड आदि के मसले पर सरकार को घेरने की कोशिश शुरू की है. अमूमन सभी के मुद्दे एक-से हैं, रास्ते भी कुछ-कुछ एक तरह के लेकिन बिखराव पटना गांधी मैदान के तीनों छोरों पर हुए अथवा होने वाले आयोजनों की तरह बरकरार है. इसी का नतीजा है कि फारबिसगंज कांड, बियाडा गड़बड़झाला जैसे मुद्दों पर भी सरकार इत्मीनान के मूड में दिख रही है. महालेखाकार की रिपोर्ट में अनियमितताओं का पुलिंदा तो तैयार हो रहा है लेकिन सरकार उसे लेकर परेशान नहीं दिखती. यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उस बयान से भी जाहिर हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि विपक्ष आंदोलन करे, धरना-प्रदर्शन करे, यह तो उसका काम ही है लेकिन लालू जी तो दो घंटे में ही धरना समेट कर दिल्ली उड़ जाते हैं.
सवाल यह भी है कि गंभीर मामलों में लालू की अब भी उतनी ही अगंभीरता क्या लोगों को अपील करेगी
यानी विपक्षी दलों की इस सुगबुगाहट से सरकार को तुरंत कोई मुश्किल होगी, ऐसा नहीं लगता. हां, दो वर्ष बाद जब लोकसभा चुनाव की राजनीतिक तैयारी का शंखनाद होगा तो समीकरण बदल सकते हैं. राज्य में हुए पंचायती चुनाव में भी इसके संकेत मिल चुके हैं. ये चुनाव दलीय आधार पर तो नहीं हुए थे लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन समर्थित प्रत्याशियों की भद्द पिटने से इसके संकेत मिले थे. पंचायत के इसी समीकरण को लोकसभा चुनाव में भी बदलने के लिए अभी से कोशिशें हो रही हैं. लेकिन कोशिशों में बिखराव दिखता है. हालांकि राजद नेता रामबिहारी सिंह इससे इनकार करते हुए कहते हैं,’बिखराव की बात करने से पहले यह सोचिए कि चुनाव के बाद ऐसा लगा था जैसे विपक्ष तो कहीं बचा ही नहीं है. न सदन में, न सड़क पर. अब विपक्ष की गतिविधियां तेज होने का एक बड़ा मतलब यह समझिए कि सत्ता पक्ष कहीं न कहीं से कमजोर हो रहा है.’
लड़ाई नयी, फॉर्मूला वही!
छह अगस्त को लालू प्रसाद व उनकी पार्टी ने जिस जेपी गोलंबर पर महाधरना का आयोजन किया वह लालू के लिए बहुत ही खास जगह है. 1990 में जब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो गांधी मैदान की बजाय इसी जगह को चुना था. एक बार फिर लालू ने वही जगह चुनी. तर्क भी दिया कि 20 साल पहले बिहार में सामाजिक बदलाव की बयार बहाने के लिए जेपी के सामने संकल्प लिया था, इस बार सामाजिक न्याय के नाम पर हो रहे अन्याय के खात्मे का संकल्प ले रहा हूं. हालांकि लालू के बारे में उनके कुछ साथी कहते हैं कि लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद उनसे सत्ता की आदत नहीं छूट रही है इसलिए विपक्ष की राजनीति करने में उन्हें तमाम तरह की मुश्किलों से खुद ही जूझना पड़ रहा है. यह बात महसूस भी होती है. फारबिसगंज मामले पर जब प्रदेश की राजनीति गरमाने की स्थिति में थी अथवा उस एक गंभीर व बड़े मसले को लेकर सरकार की घेराबंदी कई तरीके से की जा सकती थी,तब लालू का एक भी गंभीर बयान नहीं आना,उनके ही दल के नेताओं-कार्यकर्ताओं को भी अखर गया था. तब अब्दुल बारी सिद्दिकी ने फारबिसगंज मामले की कमान संभाली हुई थी. लालू दिल्ली अभियान में लगे हुए थे. लालू के बोलने और अब्दुल बारी सिद्दिकी के बोलने में फर्क तो होता ही है. अब जबकि लालू एक बार फिर से बिहार के राजनीतिक मैदान में नयी किस्म की पारी खेलने के लिए कमर कसते हुए दिख रहे हैं तो स्वाभाविक चर्चा हो रही है कि उन्हें जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं मिल सकी तो बिहार की राजनीति की याद आ रही है.
लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि क्या लालू का वही तरीका अब भी कारगर होगा या जो 20 साल पहले उन्हें नायक बनाने में कारगर साबित हुआ था और उसका असर बरसों तक रहा. इन 20 वर्षों में क्या बिहार में काफी बदलाव नहीं आ गया? गंभीर मामलों में अब भी उतनी ही अगंभीरता लोगों को अपील करेगी? और यह सब तब जब लालू को नीतीश जैसे नेता का मुकाबला करना है जो अपनी छवि को लेकर सबसे ज्यादा सचेत रहने वाले नेता माने जाते हैं.
विपक्ष की अंगड़ाई तो दिखती है लेकिन इससे किसी बड़ी लड़ाई के उभरने की संभावना नहीं लगती
छह अगस्त को हुए महाधरने में लालू ने संबोधन के पहले ही बात-बात में पार्टी के महासचिव रामकृपाल यादव को किसी बात पर झिड़की लगाई तो यह कुछ पार्टी नेताओं को ही अच्छा नहीं लगा. रामकृपाल वर्षों से लालू के दायें-बायें रहते हैं, इसलिए संभव है,उन्हें सब कुछ सामान्य व सहज लगता हो लेकिन पार्टी में बड़े नेता की हैसियत रखने के बावजूद यदि सार्वजनिक मंचों पर लालू अब भी झिड़की देते रहते हैं तो कार्यकर्ताओं के बीच में इसका संदेश गलत ही जाता है. बावजूद इसके वे ऐसा बार-बार करते हैं. कुछ कहते हैं कि जान-बूझकर करते हैं ताकि सबको साफ संदेश मिलता रहे कि नेता बस एक ही है, वह खुद लालू प्रसाद यादव. धरना के बाद लालू ने पटना के मौर्य होटल में प्रेस काॅन्फ्रेंस की. वहां भी गंभीर सवालों पर वे बगैर तैयारी के दिखे. विशेष राज्य दर्जा के सवाल पर यह जवाब दे गए कि यह स्थानीय अखबार वाले बताएंगे तो अमिताभ बच्चन का नाम आने पर बोल गए कि वे उनके सबसे नापसंदगी वाले कलाकार हैं. यह सब लालू जैसे नेता की झल्लाहट के रूप में ज्यादा दिख रहा है. दरअसल एक रोज पहले ही अमिताभ ने पटना में नीतीश के नेतृत्व को सराहा था. अलग-अलग शख्सियतें ऐसे जवाब बिहार में रोज ही देती रहती हैं, लेकिन लालू का इस पर आनन-फानन में इस तरह प्रतिक्रिया देना उनकी गंभीरता पर प्रश्न भी लगाता है.
बावजूद इन सभी बातों के लालू विपक्ष की राजनीति करने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं, यही उनके कार्यकर्ताओं व नेताओं के लिए मानसिक संबल प्रदान करने वाला साबित हो रहा है. लालू को भी पता है कि ये सारी तैयारियां आगामी लोकसभा चुनाव के लिए हो रही हैं. तब आज से ही लालू को यह भी तय करना होगा और गांव-गांव में जाएंगे तो यह भी साफ करना होगा कि नीतीश के खिलाफ तो वे हैं ही लेकिन कांग्रेस के प्रति उनका क्या नजरिया है, जिसके हालिया किस्से-कहानियों से गांव-गांव वाकिफ हो चुका है. महंगाई भी कोई कम बड़ा मसला नहीं. लालू खुद कहते हैं कि अगर कार्यकर्ता उनका साथ नहीं देंगे तो वे खुद ही माइक बांधकर जीप से गांव-गांव जाएंगे और नीतीश सरकार की पोल खोलेंगे लेकिन केंद्र सरकार के खिलाफ चुप्पी और राज्य सरकार के खिलाफ बतकही पर लालू प्रसाद क्या सभी जगह जवाब दे पाएंगे?
कैसा है यह बंधन अनजाना
नीतीश सरकार के खिलाफ जब विपक्षी दलों की सक्रियता बढ़ती हुई दिख रही है तो ऐसे में रामविलास पासवान की राह लालू प्रसाद से कुछ अलग-सी है. लालू की तुलना में पासवान आंकड़ों व तथ्यों के साथ बात करने वाले नेता माने जाते हैं. फारबिसगंज कांड पर लालू से पहले उन्होंने पटना में धरना भी दिया. जानकार कहते हैं कि अगर दोनों पार्टियों में चुनाव हारने के बाद एका जैसी बात होती तो इस एक मामले को लेकर भी कुछ और ताकत बढ़ी हुई दिखती लेकिन फारबिसगंज कांड पर अलग-अलग प्रदर्शन के पहले पूर्णिया चुनाव में भी दोनों दलों ने अलग-अलग रास्ते अपनाकर यह संकेत दिया है कि फिलहाल रास्ते अलग ही रहेंगे. दोनों दलों की मुश्किलें भी आजकल एक-सी हंै. पासवान की पार्टी के नेता एकमुश्त नीतीश के पाले में चले गए. लालू के भी पुराने संगी-साथी नीतीश के खेमे में शामिल होने को आतुर हैं और जा भी रहे हैं, फिर भी दोनों पार्टियों में एका नहीं दिख रहा, जो नीतीश सरकार में निश्चिंतता का भाव भरता है.
विकल्प बनने की कोशिश
लालू, नीतीश और रामविलास जैसे तीनों दिग्गजों से अलग एक वैकल्पिक मोर्चे को लेकर जदयू के राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा, मंगनी लाल मंडल जैसे नेता कोशिश करते हुए दिख रहे हैं. नीतीश के खेमे में ही रहकर नीतीश पर लगातार वाकप्रहार कर रहे कुशवाहा ने बिहार नव निर्माण मंच का गठन किया है. चार सितंबर को मंच का एक बड़ा सम्मेलन श्रीकृष्ण मेमोरियल हाॅल में होने वाला है. इस मंच में जदयू के पूर्व सांसद अरुण कुमार, समाजवादी कार्यकर्ता सत्यनारायण मदन, पूर्व सांसद व ऑल इंडिया यूनाइटेड मुसलिम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एजाज अली जैसे लोग शामिल होने वाले हैं. मुजफ्फरपुर में जब रहस्यमयी मौत का सिलसिला चला तो मंच के नेताओं ने वहां कूच किया. फारबिसगंज कांड के बाद वहां भी गए. ये सारी कोशिशें तो ठीक लगती हैं लेकिन एक सवाल ही इतना बड़ा है कि मंच के सारे अभियानों को विपक्षी स्वर की बजाय संभावना तलाशने वाले अभियान में बदल देता है. मंच के नेतृत्वकर्ता उपेंद्र कुशवाहा जदयू छोड़कर यह सब करते तो सवाल खड़े नहीं होते लेकिन वे जदयू में रहते हुए उसके खिलाफ बोल रहे हैं तो सवाल यही उठाया जा रहा है कि पहले उपेंद्र कुशवाहा सांसदी का मोह तो छोडें तब कुछ कहेंगे, करेंगे तो असर होगा वरना यह विपक्षी अभियान तो वैसा ही होगा कि गुड़ खाएं, गुलगुले से परहेज! बिहार नव निर्माण मंच के नेता व पूर्व सांसद डॉ. एजाज अली कहते हैं, ‘अभी यह समय आंदोलन का है. विपक्षी दल आंदोलन कर रहे हैं, सबकी मांगें एक-सी हैं तो समय आने पर सभी विपक्षी दल सरकार के खिलाफ एक मंच पर आएंगे भी. रही बात उपेंद्र कशवाहा के सांसदी छोड़ने की तो जदयू को उन्हें हटाने का साहस दिखाना चाहिए. जदयू क्यों नहीं हटा रही?’
यानी कुल मिलाकर विपक्ष की अंगड़ाई तो दिखती है लेकिन इससे किसी बड़ी लड़ाई के उभरने की संभावना नहीं लगती. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता उपेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं, ‘नीतीश की दूसरी पारी में विपक्ष अब तक तो एक होकर कोई आंदोलन नहीं कर सका है और राजद, लोजपा, कांग्रेस जैसे दलों से इसकी संभावना भी कम बनती है. केंद्र के कारनामों की वजह से कांग्रेस कहीं बोलने की स्थिति में नहीं है, लालू जी का कोई भरोसा ही नहीं है कि आज इधर हैं, कल किधर होंगे.’