2020 के शुरुआत ही में मुल्क के लोग बेसब्री से इस साल के आिखरी महीने का इंतज़ार करने लगे हैं। वजह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रमुख द्वारा दी गयी एक अहम जानकारी है। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने हाल ही में बेंगलूरु में मानव अंतरिक्षयान और खोज वर्तमान चुनौतियाँ व भविष्य घटनाक्रम पर आयोजित विचार-गोष्ठी में जानकारी दी कि इसरो इस साल दिसंबर में पहली रोबोट ‘ व्योममित्र ’ को अंतरिक्ष में भेजेगा। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने देश की अंतरिक्ष योजना के बारे में बताया कि दिसंबर 2021में भारत के पहले मानवयुक्त अंतरिक्षयान गगनयान का प्रक्षेपण किया जाएगा। इससे पहले इसरो दिसंबर, 2020 और जून, 2021 में दो मानवरहित मिशन का भी प्रेक्षपण करेगा। वैज्ञानिक सैम दयाल ने बताया कि व्योममित्र इंसान की तरह व्यवहार करेगी और हमें रिपोर्ट भेजेगी। गौरतलब है कि महिला रोबोट व्योममित्र अंतरिक्ष यात्रियों की साथी होगी और उनसे बात भी करेगी। अंतरिक्ष यात्रियों की पहचान करने सहित उनके सवालों का जवाब देगी। वह अंतरिक्ष में जीवन प्रणाली के संचालन पर नज़र रखेगी। इसरो प्रमुख डॉ. के. सिवन ने अंतरिक्ष में महिला रोबेट भेजे जाने बावत कहा कि महिलााएँ सशक्तीकरण का प्रतीक होती हैं।
महिला रोबोट ‘व्योममित्र’ की खबर देश में एक बार फिर से शैक्षाणिक संस्थानों में विज्ञान, शोध में महिलाओं की रुचि व संख्या को और उनके लिए विशेष प्रयासों को बढ़ाने वाले माहौल को बनाने का काम कर सकती है। दरअसल भारत में विज्ञान, गणित से जुड़े विषयों में लड़कियाँ बहुत कम दािखला लेती हैं। बेशक एक रिपोर्ट में यह सम्भावना जतायी गयी थी कि प्राइमरी स्तर पर दािखला लेने वाली लड़कियों की संख्या जल्द ही लडक़ों की संख्या से अधिक हो जाएगी, मगर एक ज़मीनी हकीकत यह भी है कि जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे लड़कियों का अनुपात कम होता जाता है। शिक्षा तक पहुँच की कमी भी महिलाओं की शिक्षा पर असर डालती है। मुल्क में कई ऐसे गाँव हैं, जहाँ उच्च शिक्षा के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है। ऐसे में सबसे पहले युवतियाँ और उसके बाद गरीब युवा शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। 8.3 प्रतिशत भारतीय महिलाएँ स्नातक की पढ़ाई पूरी कर पाती हैं। मुल्क इंजीनियरिंग में महिलाओं की कम संख्या से जूझ रहा है। शीर्ष के संस्थानों में तो महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है। हाल ही में मुल्क के विज्ञान एवं प्रौ़द्यौगिकी मंत्रालय ने मुल्क के शीर्ष के श्ैक्षिणिक संस्थानों व शोध संस्थानों को, जिन्हें यह मंत्रालय फंड देता है, उनके बारे में बताया है कि मंत्रालय उन संस्थानों को इस साल के अकादिमक सत्र से ही लैंगिक समानता के मानक पर ग्रेड देगा। ऐसे 90 से अधिक संस्थान हैं, जो पूरी तरह से या आंशिक रूप से इस मंत्रालय से फंड ले रहे हैं। इस प्रोजेक्ट के तहत बारी-बारी से सभी संस्थान कवर होंगे। गोल्ड, सिल्वर और ब्रांज वाली रेटिंग विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग, गणित और मेडिसिन की पढ़ाई कराने वाले संस्थानों में साइंस फैकल्टी में पढऩे वाली लड़कियों की संख्या के आधार पर दी जाएगी। इसके साथ ही यह भी देखा जाएगा कि संस्थान महिला वैज्ञानिकों के योगदान को कितना महत्त्व देते हैं और इंडियन एकाडमी ऑफ साइंसस और इंडियन नेशनल साइंस एकाडमी में वहाँ से कितनी महिला फैलो इन एकाडमी में जाती है। इसके अलावा अन्य मानकों में पीएचडी की डिग्री लेने वाली महिला वैज्ञनिकों की संख्या और विश्रामकालीन या अध्ययन अवकाश के बाद कितनी महिला वैज्ञानिक लौटती हैं, वाले मानक भी शमिल हैं।
गोल्ड ग्रेड ऐसे संस्थानों के लिए है, जहाँ पहले से ही लैंगिक समानता के प्रकाशस्तम्भ व प्रेरणा स्रोत मौज़ूद हैं, सिल्वर ग्रेड उनके लिए हैं, जिन्होंने अपनी चुनौतियाँ पहचान ली हैं। ब्रांज ग्रेड उनके लिए हैं, जो लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे हैं। 20 संस्थान, जिसमें कुछ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) भी शमिल हैं; ने इस परियोजना का हिस्सा बनने के लिए हस्ताक्षर कर दिये हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि वर्ष 2017 में एनआईटी संस्थानों में प्रवेश लेने वाली लड़कियों की संख्या में कमी के मद्देनज़र 2018 से उनके लिए स्पेशल सीट की व्यवस्था करने की घोषणा की गयी थी। 2020 तक उनका अनुपात 20 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया गया है। इस स्पेशल सीट का मतलब लडक़ों की सीटेंकम करने से नहीं, बल्कि लड़कियों के लिए अतिरिक्त सीट की व्यवस्था करने से है। आईआईटी संस्थानों में भी लड़कियों के लिए 4 प्रतिशत अतिरिक्त सीटें व्यवस्थित करने का फैसला लिया गया था। भारत में विज्ञान में पीएचडी करने वालों में केवल 37 प्रतिशत महिलाएँ हैं, साइंस फैकल्टी पोजीशन में महिलाओं की संख्या महज़ 15 फीसदी ही है, इंडियन नेशनल संाइस ऑफ अकादमी में महिला फैलो केवल 5 फीसदी ही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में दिया जाने वाला प्रतिष्ठित पुरस्कार शान्ति स्वरूप भटनागर अभी तक 461 वैज्ञानिकों को दिया जा चुका है, जिसमें महिलाओं की संख्या औसतन 15 है। आँकड़ें बताते हैं कि महिला वैज्ञानिकों की देश में कमी है। इस अहम विषय पर राष्ट्रीय महिला वैज्ञानिक कांग्रेस में भी चिंता व्यक्त की जाती है और समाधान पर भी चर्चा होती है। भारत में करीब पौने तीन लाख टेक्नोलॉजिस्ट और इंजीनियर रिसर्च और डवलपमेंट के लिए काम कर रहे हैं, इनमें महिलाओं की संख्या करीब 40,000 है। नासा में 50 प्रतिशत फ्लाइट डायरेक्टर्स महिलाएँ हैं। यहाँ तक कि इसरो में भी लैंगिक बराबरी नहीं है। इसरो की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, 2018-19 में इसरो में 20 प्रतिशत महिलाएँ हैं, जिनमें से 12 प्रतिशत वैज्ञानिक या तकनीकी भूमिका में हैं। भारत में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंसी यानी एआई में भी महिलाओं की कमी है।
एआई और नयी तकनीक यानी नये स्किल को जल्दी हासिल कर लेगा, जल्दी सीखकर इस्तेमाल करेगा उसकी उपयोगिता उतनी ही ज़्यादा होगी। अधिक-से-अधिक महिलाओं को नयी तकनीक की पढ़ाई के बाबत प्रोत्साहित करना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों पर कार्यस्थलों में कर्मचारियों के स्तर पर लैंगिक बराबरी को लेकर दबाव बना हुआ है और यह दबाव पूरा करने के लिए ज़रूरी है कि साक्षात्कार में योग्य महिला उम्मीदवार आयें। और यह तभी कुछ हद तक सम्भव है, जब उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विज्ञान सम्बन्धित विषय पढऩे वाली लड़कियों की संख्या में इज़ाफा हो। 8 मार्च, 2008 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने महिला वैज्ञानिकों को उनके अनुसंधान के लिए पुरस्कृत करते हुए कहा था कि क्या देश में मैडम क्यूरी जैसी महिला वैज्ञानिक पैदा की जा सकती हैं। देश की पहली प्रथम महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय अनुसंधान व विज्ञान संकायों में दािखला लेने वाली लड़कियों की बहुत कम संख्या पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए लड़कियों/महिलाओं को इस क्षेत्र में प्रोत्साहित करने सम्बन्धी अनेक कदम उठाने का सुझाव दिया था।
सरकारी स्तर पर किये जाने वाले प्रयासों के साथ-साथ परिवार व समाज को भी महिला वैज्ञानिकों को सपोर्ट सिस्टम मुहैया कराना होगा। इस बात की तस्दीक इसरों में कार्यरत महिला वैज्ञानिक भी करती हैं। यह भी देखा गया है कि कई बार महिला वैज्ञानिक के शादी के रिश्ते के वक्त वर पक्ष वाले उसे वैज्ञानिक वाली टाइम कंजूमिंग जॉब छोडक़र टीचिंग ज्वाइन करने की सलाह देते हैं। लिहाज़ा कई कारणों से महिला वैज्ञानिक अपनी शोध/करिअर बीच में ही छोड़ देती हैं और फिर नहीं लौटती। यह बिन्दु भी विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी मंत्रालय के लिए चिन्ता का विषय है, इसीलिए मंत्रालय ने ग्रेड देने वाले मानकों में एक मानक यह भी जोड़ा है कि कितनी महिला वैज्ञानिक अवकाश के बाद लौटती हैं। विज्ञान एवं प्रौद्यौगिकी मंत्रालय की लैंगिक समानता वाली यह परियोजना कितनी कारगर होगी, आने वाले साल इसका जबाव देंगे।
अनशन पर अत्याचार!
राजनीति और महिलाएँ एक ऐसा विषय है, जिस पर कभी भी चर्चा हो सकती है। यह चर्चा कहीं भी हो सकती है और आजकल भारत देश की दिल्ली में शाहीन बाग और लखनऊ के घंटाघर में सीएए, एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन कर रही युवतियों-महिलाओं के हुजूम ने इस विषय को एक बार फिर से लोगों के सामने रख दिया है। यह विषय बतौर मतदाता भी हो सकता है और यहाँ आने वाली युवितयों-महिलाओं में से कितनी खुद को चुनावी राजनीति में आने वाले वक्त में उम्मीदवार के तौर पर तैयार करेंगी और कितनी लड़कियाँ-महिलाएँ इन्हें प्रेरणा-स्रोत के रूप में देखेंगी, इस बावत अभी कहना शायद जल्दबाज़ी होगा, लेकिन इतना तो साफ है कि इन पर भी आरोप लगने शुरू हो गये हैं। किसी ने कहा कि यह पेड आन्दोलन है, महिलाओं को घरने पर बैठने के एवज़ में रुपये दिये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बयान दिया कि पुरुष घरों में रज़ाई में सो रहे हैं और महिलाओं व बच्चों को धरने पर भेज रहे हैं। दरअसल मुख्यमंत्री का यह बयान उनकी इस खीझ को दर्शाता है कि उनकी पार्टी भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से छुटकारे दिलाने के लिए कानून दिया और आज वही मुस्लिम महिलाएँ उनके िखलाफ प्रदर्शन कर रही हैं। मुख्यमंत्री ने महिलाओं की ताकत को कम आँकने वाला यह बयान देकर फिर उस मुद्दे को सामने रख दिया है कि राजनीति में उतरने वाली महिलाएँ चाहे वह चुनाव लड़े या सत्तारूढ़ पार्टी के विचारों, नीतियों, पारित कानूनों का विरोध करने के लिए सामने आये, तो उसका मनोबल तोडऩे, उसे घर की चहारदीवारी में लौटने के लिए विवश कर दिया जाए। इसके लिए आज के दौर में सोशल मीडिया का इस्तेमाल बहुत किया जा रहा है। पुरुष वर्चस्व वाली राजनीति में सक्रिय महिलाएँ नयी तकनीक के निशाने पर हैं यानी पुरुष नयी तकनीक के ज़रिये महिलाओं को राजनीति से दूर रहने का दबाव बनाने के लिए अपमानजनक, अश्लील भाषा का इस्तेमाल करने से भी गुरेज़ नहीं कर रहे हैं। यह एक वैश्विक विषय है; लेकिन पहले भारत की ही चर्चा करते हैं। हाल ही में एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था ने एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मार्च से लेकर मई यानी तीन महीनों में महिला उम्मीदवारों के लिए किये गये हर साँतवे ट्विट में एक ट्विट समस्यापरक या अपमानजनक था। इस स्टडी में 95 महिला उम्मीदवारों पर किये गये सात लाख ट्विट में से एक लाख ट्विट समस्यापरक या अपमानजनक पाये गये। इस अध्ययन से यह भी सामने आया कि मुस्लिम महिला उम्मीदवारों को अन्य धर्मों की महिला उम्मीदवारों की अपेक्षा प्राजातीय या धार्मिक टिप्पणियाँ 94.1 प्रतिशत अधिक मिली। हाशिये की जाति से सम्बन्ध रखने वाली महिला उम्मीदवारों को अन्य जाति की महिला उम्मीदवारों से 59 प्रतिशत अधिक जाति आधाािरत अपमानजनक ट्विट भेजे गये। गैर भाजपाई महिला उम्मीदवारों को अन्य महिला राजनीतिज्ञों की तुलना में ऑनलाइन अपमानजनक अधिक ट्वीट का सामना करना पड़ा, यह संख्या 56.7 प्रतिशत है। द इकोनॉमिस्ट अखबार ने नवंबर, 2019 में अपने एक अंक में विश्व में राजनीति और अन्य क्षेत्रों में सक्रिय महिलाओं के िखलाफ चलने वाले झूठे प्रचार पर विशेष रिपोर्ट छापी थी। इसमें कहा गया था कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में सक्रिय महिलाओं को अक्सर झूठे प्रचार का निशाना बनाया जाता है। डिजिटल तकनीक ने ऐसी सामग्री के प्रसार को और अधिक व्यापक बनाया है। कृत्रिम बुद्धिमता के माध्यम से तस्वीरों और वीडियों को अपने हितों के मद्देनज़र पेश करना सस्ता व सुलभ हो गया है। झूठा प्रचार अभियानों की संख्या में वृद्धि चिन्ता का विषय है। 2017 में 28 और 2018 में 48 देशों में यह अभियान चलाया गया और 2019 में ऐसे मुल्कों की संख्या बढक़र 70 हो गयी।
यह िफक्र की बात मानवाधिकार संगठनों, महिला कार्यकर्ताओं के लिए हो सकती है मगर सरकारें इसे लेकर िफक्रमंद नहीं नज़र आती। सरकारों और सत्ताधारी दलों को महिलाओं की नकारात्मक छवि गढऩे वाले नये औज़ार काफी भाते हैं। सोशल मीडिया का ऐसा इस्तेमाल यानी ऑनलाइन महिलाओं को धमकाना, उनके लिए अपमानजनक टिप्पणी करना, अश्लील भाषा का इस्तेमाल, लैंगिक टिप्पणियाँ, नस्ली, जातीय, यौनिक व अन्य भद्दी टिप्पणियाँ लिखना, चरित्र पर उँगली उठाने का मतलब उन्हें सार्वजनिक तौर पर इस कदर हतोत्साहित करना कि युवतियाँ-महिलाएँ राजनीति छोडक़र खामोशी ओढ़ लें और घरों में अपनी शेष साँसे लें। 2018 में इराक में चुनाव से पहले दो महिला उम्मीदवारों के अश्लील वीडियो जारी कर अपमानित किया गया। एक महिला चुनाव मैदान से हट गयी। 2019 में इंगलैंड में भी चुनाव हुए और महिला उम्मीदवारों ने महिला उम्मीदवारों को बदनाम करने वाला मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठाया था। एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था का भारत पर किया गया हालिया अध्ययन यह भी खुलासा करता है कि भारत में महिला उम्मीदवारों को यूके व यूएस की महिला उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक ऑनलाइन शोषण का सामना करना पड़ता है।
इस्लामी देश ईरान में चुनाव जीतने वाली एक महिला को अयोग्य घोषित कर दिया गया; क्योंकि उन्हें एक तस्वीर में हिजाब पहने बिना दिखाया गया था। रूस में सरकार समर्थक मीडिया महिला असंतुष्टों को यौन विकृति का शिकार बताता है। हालाँकि ट्विटर ने अपनी सफाई में एमनेस्टी इंटरनेशनल संस्था को कहा है कि उसकी प्रोएक्टिव टेक्नोलॉजी सोल्यूशन ने ऐसी सामग्री को रोकने में काफी प्रगति की है। ट्विटर जो भी दावा करे मगर कड़वी हकीकत यह है कि महिला उम्मीदवारों, महिला राजनीतिज्ञों को बदनाम हतोत्साहित करने के लिए सोशल मीडिया के मंच का इस्तेमाल भरपूर हो रहा है। यह महिलाओं के िखलाफ ऑनलाइन हिंसा का ही एक खतरनाक तरीका है। विश्व में राजनीति से महिलाओं को दूर रखने के लिए हिंसा का इस्तेमाल करने वाला हथकंडा पुराना है। महिला उम्मीदवारों, राजनीति में रुचि ररवने वाली लड़कियों-महिलाओं का मनोबल तोडऩे में यह अहम भूमिका निभाता है। ऐसे माहौल में युवतियाँ-महिलाएँ अपनी राजनीतिक अकांक्षाओं व दावों को परिवारों व राजनीतिक दलों के सामने पुख्ता ढंग से पेश नहीं कर पातीं। अधिकांश की दलीलें राजनीति के मौज़ूदा तेवर और आक्रामक हमलों के आगे टिक नहीं पाते। महिला उम्मीदवार, जो आर्थिक रूप से भी कमज़ोर होती हैं, उन्हें जब ऑनलाइन हिंसा का निशाना बनाया जाता है; उन पर भद्दी टिप्पणिया की जाती हैं; तो वे जल्दी टूट जाती हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी पुरुष इस हालात को अपने पक्ष में भुनाते हैं। राजनीति में महिलाओं की संख्या को बढ़ाने वाली कोशिशों के सामने रोड़े रखने से बाज़ नहीं आते। राजनीति में सक्रिय महिलाओं के िखलाफ हिंसा दक्षिण एशिया का भी एक चिन्ताजनक मुद्दा है। यहाँ का सामाजिक माहौल भी राजनीति में महिलाओं के िखलाफ हिंसा वाले माहौल को बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाता है। डिजिटल तकनीक की पहुँच व्यापक है, किसी भी महिला उम्मीदवार पर चुनाव नहीं लडऩे का दबाव बनाने के लिए सोशल मीडिया पर उस महिला के िखलाफ अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग कर उस महिला परराजनीति से हटने का दबाव बनाया जा सकता है। इस तकनीक का इस्तेमाल आज के संचार युग में सस्ता व प्रभावशाली भी है। चिन्ता का एक पहलू यह भी है कि युवा पीढ़ी डिजिटल तकनीक से अधिक जुड़ी हुई है और उसके ज़ेहन में राजनीति में सक्क्रिय महिलाओं, महिला उम्मीदवारों पर, नस्ली, यौनिक, लैंगिक पूर्वाग्रह वाली भद्दी टिप्पणिओं वाली छवि को गढऩा बहुत ही खतरनाक है। इस आक्रामक हथियार का इस्तेमाल कौन-सी शक्तियाँ करा रही हैं? क्यों करा रही हैं? उन्हें बेनकाब करने की ज़रूरत है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढऩा परिवार, समाज, देश व दुनिया के हित में है। संभवत: इसीलिए अब सोशल मीडिया की व्यापक पहुँच के मद्देनजर इसका प्रयोग महिलाओं के िखलाफ दुष्प्रचार करने में किया जा रहा है।