चंद्रशेखर आज़ाद, एक ऐसा नाम जिससे अंग्रेज सरकार कांपती थी। 15 साल की उम्र में एक आंदोलन में पकड़े जाने के दौरान जब अंग्रेज जज ने नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम ‘आज़ाद’ बताया था। असल में उनका नाम चंद्रशेखर तिवारी था। इस पर जज ने उन्हें 15 बेंत मारने की सज़ा सुनाई। चंद्रशेखर ने वहीं कसम खाई कि वे कभी अंग्रेज सरकार के हाथ नहीं आएंगे। उन्होंने इस कसम को बखूबी निभाया। 27 फरवरी 1931 को जब वे अपनी उम्र के 25वें बरस में थे, वे पुलिस के साथ भिड़ंत में शहीद हो गए। कहा जाता है कि यह मुठभेड़ इलाहाबाद के अल्फ्रड पार्क में हुई, आज़ाद के पास गोलियां खत्म होने लगी तो अपने पास बची अंतिम गोली उन्होंने खुद को मार ली। पर जीवित अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
इस महान क्रांतिकारी का जन्म 23 जुलाई 1906 को पंडित सीताराम तिवारी के घर हुआ था। वे मध्यप्रदेश के अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते थे। बाद में वे भावरा गांव में बस गए। चंद्रशेखर का बचपन यहीं पर बीता। यहीं वे भीलों के बच्चों के साथ धनुष-बाण खेला करते थे। इस तरह वे बचपन में ही अच्छे निशानेबाज बन गए थे। उस समय देश में आज़ादी के लिए अहिंसक आंदोलन चल रहा था। पर चंद्रशेखर इससे सहमत नहीं थे। इसलिए वे सशस्त्र क्रांति की ओर चल पड़े। उन दिनों बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था। वहां उनकी मुलाकात मम्मथनाथ गुप्त और प्रवेश चटर्जी के साथ हुई और वे क्रांतिकारी दल के सदस्य बन गए। इस दल का नाम ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ था।
जलियांवाला बाग (अमृतसर) की 1919 में घटी घटना ने चंद्रशेखर आज़ाद के ऊपर बहुत असर डाला। उस समय आज़ाद पढ़ रहे थे। 1921 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया तो और युवकों की तरह चंद्रशेखर भी उसमें शामिल हो गए। उसी में वे पहली और आखिरी बार पकड़े गए।
इसके बाद क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए चंद्रशेखर ने झांसी को अपना ठिकाना बना लिया। यहां से लगभग 10 मील दूर ओरखा के जंगलों में आज़ाद निशानेबाजी का अभ्यास करते। उनका अपना निशाना अचूक था, इसलिए वे बाकी साथियों को भी निशानेबाजी का अभ्यास कराते थे। वहां वे पंडित हरिशंकर के नकली नाम से बच्चों को पढ़ाते भी थे। वे धिमापुर गांव में अपने इसी नकली नाम से काफी लोकप्रिय हो गए। झांसी में ही उन्होंने गाड़ी चलानी भी सीख ली।
असहयोग आंदोलन के चलते जब 1922 में चौरी-चौरा की घटना घट गई तो महात्मा गांधी ने यह आंदोलन वापिस ले लिया। गांधी चौरा-चौरी में आंदोलनकारियों द्वारा पुलिस के नौ जवानों को जिंदा जलाने से खिन्न थे यह उनके अहिंसावादी सिद्धांतों के खिलाफ था। लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उनके अलावा और भी कई युवा कांग्रेस से बाहर आ गए। इनमें से रामप्रसाद बिस्मिल, शचींद्रनाथ सान्याल और योगेशचंद्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के कुछ और क्रांतिकारियों को इक_ा करके एक ‘दल हिंदुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ ‘ (एचआरए) का गठन कर दिया। चंद्रशेखर आज़ाद भी इसमें शामिल हो गए। इस दल ने गांवों के अमीरों के घर डकैतियां डालकर संगठन के लिए पैसा इक_ा करना शुरू किया। यह भी तय किया गया किसी भी महिला पर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गांव में चंद्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल के साथ लूट करने गए तो वहां एक महिला ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया, लेकिन आज़ाद ने उस औरत पर हाथ नहीं उठाया। इस दल में कुल आठ क्रांतिकारी थे। इन पर पूरे गांव ने हमला बोल दिया। बिस्मिल अंदर गए और उस औरत को थप्पड़ मार कर पिस्तौल वापिस ली और आज़ाद को खींच कर सुरक्षित निकल आए। इसके बाद यह फैसला लिया गया कि केवल सरकारी खजाने लूटे जाएं।
पहली जनवरी 1925 को दल ने पूरे देश में अपना पर्चा ‘द रेवोल्यूशनरी’ बांटा। इसमें दल की नीतियों के बारे में विस्तार के साथ जानकारी दी गई थी। इसमें सशस्त्र क्रांति की बात की गई थी। इस पर्चे के लेखक के रुप में ‘विजय सिंह’ का नकली नाम छापा गया था। शचींद्र सान्याल इसे बंगाल से पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी बांकुरा में हुई। इस संगठन के गठन के समय से ही इसके उद्देश्यों को लेकर रामप्रसाद बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी के बीच मतभेद थे। संगठन ने नौ अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया। जब शाहजहांपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिए बैठक बुलाई गई तो पार्टी के एकमात्र सदस्य अशफाक उल्ला खां ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके पीछे पड़ जाएगा, और ऐसा ही हुआ। पुलिस आज़ाद को तो नहीं पकड़ पाई पर बाकी बड़े नेता – राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर सिंह को 19 दिसंबर 1927 और इससे दो दिन पहले राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसंबर 1927 को फांसी पर लटका दिया गया। सभी प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के कारण मुकदमे के दौरान यह संगठन पूरी तरह निष्क्रिय ही रहा। इसमें चार क्रांतिकारियों को फांसी और 16 को कड़ी सज़ा सुुना दी गई।
आज़ाद ने बिस्मिल और चटर्जी को छुड़ाने की कुछ कोशिश भी की जो सिरे नहीं चढ़ी। इसे बाद आज़ाद ने आठ सितंबर 1928 को उत्तर भारत के सभी क्रांतिकारियों को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में इक_ा किया। यहां एक गुप्त सभा की गई। सभी ने एकमत से फैसला लिया कि यह लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है हमारी जीत या हमारी मौत। आज़ाद ने भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को कम कराने का काफी प्रयास किया।
27 फरवरी 1931 को आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मिलने पहुंचे। उसी समय सीआईडी का एसएसपी नॉट बाबर भारी पुलिस के साथ वहां आ पहुंचा। दोनों ओर से गोलीबारी हुई। इस मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हो गए। पुलिस ने बिना किसी को सूचित किए उनका अंतिम संस्कार कर दिया।
तहलका ब्यूरो