साहित्य विशेष: अंक धूप में छाया-सा

पिछला साल तहलका की हिंदी पत्रिका के लिए बेहद संतोष देने वाला था. हमने बड़ी-बड़ी स्टोरियां कीं, हमारे रिपोर्टरों को देश और दुनिया के सबसे बड़े, सबसे ज्यादा पुरस्कार मिले और उथली व गुदगुदी करने वाली ज्यादातर हिंदी पत्रकारिता वाले इस दौर में पाठकों ने हमारे प्रयासों की गंभीरता को उतनी ही गंभीरता से लिया. हालांकि साल का अंत हमारे लिए बेहद कष्टकारी रहा- खासकर उन नए-पुराने पत्रकारों के लिए जो हमेशा अपने काम को बहुत महत्वपूर्ण और पवित्र मानते हुए तहलका में काम करते रहे.

साल भर की भागदौड़, दिमागी माथापच्ची और भूसे में से सुई खोजने जैसे प्रयासों की थकावट के बीच यह संस्कृति विशेषांक कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि कुछ अलग संदर्भ में मन्नू जी ने अपने लेख में कमलेश्वर जी के हवाले से लिखा है- आदमी जिंदगी के टेढ़े-मेढ़े, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते-चलते जब थक जाता है तो सुस्ताने के लिए हरे-भरे पेड़ की छाया में बैठ जाता है.

मन्नू जी ने विशेष तौर पर तहलका के लिए जो लिखा है वह इस विशेषांक की उपलब्धि है. उनका चर्चित उपन्यास ‘आपका बंटी’ पहला उपन्यास था जिसे मैंने पढ़ा था. इसलिए उनके इस विशेषांक में लिखने के मायने मेरे लिए कहीं गहरे और बड़े हैं.

छाया में सुस्ताने की बात अपनी जगह है लेकिन कुछ अलग करना भी तो तहलका की प्रकृति में है. इस अंक में एक विशेष तरह का सर्वेक्षण है जिसमें वरिष्ठ साहित्यकारों ने अपनी पसंद के भावी साहित्याक्षरों को चुना है और इन चुने गए कवियों-लेखकों ने अपनी पसंद के मूर्धन्यों का चयन किया है. ऐसे चुनिंदा साहित्यकारों की रचनाएं- जिनमें सर्वश्री केदारनाथ सिंह, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा जैसे कवि-लेखक शामिल हैं- इस अंक की विशेषता हैं.

साथ ही शालिनी माथुर का स्त्री लेखन पर लिखा लेख इतने और ऐसे तथ्यों के आधार पर साहित्य के इस क्षेत्र का आकलन करता है कि वह इस विशेषांक के बजाय हमारे किसी भी सामान्य अंक का एक विशेष हिस्सा हो सकता था.

इस अंक को जैसा है वैसा बनाने में दो अन्य महिलाओं का सबसे बड़ा योगदान है – मेरी सहयोगी पत्रकार पूजा सिंह और तहलका की शिशुमना इलस्ट्रेटर मनीषा यादव. एक ने इस अंक की संकल्पना से लेकर इसके लिए सामग्री जुटाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो दूसरी ने इसे अपने चित्रों के माध्यम से सजीव बनाने में.

तहलका के अधिकतर महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों की तरह इस अंक में भी युवा आलोचक दिनेश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका रही. उनका हृदय से आभार.

एक महत्वपूर्ण बात और. हमने इसे साहित्य के बजाय संस्कृति विशेषांक इसलिए कहा कि इसमें कला और फिल्म जगत आदि से जुड़े आलेख भले ही ज्यादा न हों, लेकिन हैं.

अंत में, हमेशा की तरह इस अंक की आलोचना आपका अधिकार है और उसे सर माथे पर लेना हमारा कर्तव्य.


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