आगे-आगे युवराज, पीछे-पीछे न्यूज चैनलों की कतार. युवराज ग्रामीण पर्यटन, माफ कीजिएगा, किसानों का हालचाल पूछने निकले हैं. यात्रा का आंखों देखा हाल बताने के लिए चैनल भी उनके लाव-लश्कर में साथ हैं. बिलकुल ‘हम साथ-साथ हैं’ की तर्ज पर. युवराज अपनी किसान प्रजा का हालचाल ले रहे हैं. चैनल युवराज का हालचाल लेने में लगे हैं. युवराज किसानों की चिंता में परेशान दिख रहे हैं. चैनलों को युवराज की चिंता सता रही है. युवराज गांव-गांव घूमकर पसीना बहा रहे हैं. चैनल युवराज का पसीना दिखाने के लिए पसीना बहा रहे हैं.
चैनल युवराज यानी राहुल गांधी की अदाओं पर फिदा हैं. वे पल-पल का हाल बता रहे हैं. युवराज ने किस किसान के घर चाय पी, क्या खाया, उनके लिए क्या खास बना था, रात कहां और किस खाट पर गुजारी, कहां नहाए…यह भी कि उनमें कितना जबरदस्त स्टैमिना है, कैसे वे बिना थके दर्जनों किलोमीटर चल रहे हैं, कैसे उनके साथ के कांग्रेसी नेता गर्मी-उमस-थकान के कारण बेहोश तक हो जा रहे हैं जबकि राहुल फुर्ती के साथ आगे बढ़े जा रहे हैं.
युवराज जल्दी में हैं. उनकी जल्दबाजी समझी जा सकती है. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं. कहते हैं कि दिल्ली जाने का रास्ता लखनऊ होकर गुजरता है. इसीलिए युवराज के एजेंडे में लखनऊ फतह सबसे ऊपर है. जाहिर है कि इस चुनाव पर उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. वे कोई भी कसर नहीं उठा रखना चाहते हैं. यही कारण है कि वे ‘नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे’ की खाक छान रहे हैं. वे कभी दलितों का हालचाल लेने उनके घर पहुंच जा रहे हैं और कभी बुंदेलखंड में सूखे का जायजा लेने निकल पड़ रहे हैं.
इसी कड़ी में इन दिनों उनका किसान प्रेम उफान मार रहा है. निश्चय ही, राहुल गांधी और उनके रणनीतिकारों को किसानों का राजनीतिक महत्व पता है. वे जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में जातियों की दलदली राजनीति में किसानों के कंधे पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार की जा सकती है क्योंकि किसान को आगे करके जातियों के विभाजन को ढका जा सकता है. मायावती सरकार की मनमानी भूमि अधिग्रहण नीति ने उन्हें यह मौका दिया है. उन्होंने उसे भुनाने में देर नहीं की है.
लेकिन राहुल गांधी की इस ‘राजनीतिक सफलता’ में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के उदार योगदान को अनदेखा करना मुश्किल है. याद रहे, न्यूज मीडिया को ‘मैजिक मल्टीप्लायर’ माना जाता है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज चैनलों के अति उदार और भरपूर कवरेज ने राहुल की पदयात्रा के प्रभाव को कई गुना बढ़ा दिया. राहुल जितने गांवों में नहीं गए और जितने किसानों से नहीं मिले, उससे अधिक गांवों और किसानों तक वे अख़बारों और न्यूज चैनलों के जरिए पहुंच गए.
समाचार चैनलों की ओबी वैन और उनके स्टार रिपोर्टर शायद ही कभी गांवों की धूल और कीचड़ भरे कच्चे-पक्के रास्तों का रुख करते होंवैसे भी भारतीय राजनीति में जैसे-जैसे मीडिया खासकर टीवी की गढ़ी हुई छवियों की भूमिका बढ़ती जा रही है, आश्चर्य नहीं कि आज राजनीतिक पार्टियां और उनके नेता चैनलों को ध्यान में रखकर अपने बयानों, फैसलों और राजनीतिक कार्रवाइयों की टाइमिंग तय करते हैं. राहुल की पदयात्रा और किसान महापंचायत की योजना और टाइमिंग में भी न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का पर्याप्त ध्यान रखा गया था. वैसे भी चैनल हमेशा सेलेब्रिटीज, ‘घटनाओं’ (इवेंट), टकराव (कनफ्लिक्ट) और कार्रवाई (ऐक्शन) की तलाश में रहते हैं. इस पदयात्रा में वह सारा आकर्षण था. लेकिन सबसे बढ़कर यह युवराज की पदयात्रा थी. नतीजा, चैनलों पर इस पदयात्रा को अति उदार और मुग्ध कवरेज मिली. ऐसा लगा जैसे चैनल राहुल की पदयात्रा के साथ नत्थी हो गए हैं. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो उन्हें पूरी यात्रा में राहुल के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था.
यह और बात है कि खुद राहुल इस पदयात्रा को किसानों और उनकी समस्याओं को समझने का माध्यम बता रहे थे. उनके मुताबिक, किसानों और गांवों की समस्याएं दिल्ली या लखनऊ में पता नहीं चलती हैं. यह भी कि जितना उन्होंने लोकसभा में नहीं सीखा, उससे ज्यादा किसानों के बीच जाकर सीखा है. लेकिन अफसोस कि चैनल इस यात्रा से भी नहीं सीख पाए. वजहें कई हैं. पहली यह कि उन्हें राहुल के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. आखिर वे किसानों के दुख-दर्द और उनकी समस्याएं देखने-सुनने और समझने गए भी नहीं थे. दूसरे, चैनलों की खुद गांवों, किसानों और उनकी समस्याओं में कोई दिलचस्पी नहीं है. अगर होती तो वे उन गांवों और किसानों के बीच पहले जाते. लेकिन चैनलों की ओबी वैन और उनके स्टार रिपोर्टर शायद ही कभी गांवों के कीचड़ भरे कच्चे-पक्के रास्तों का रुख करते हों. उनकी दिलचस्पी दिल्ली और लखनऊ में है. वे वहीं से देश को देखते और दिखाते हैं या कहें कि उनका देश वहीं तक सीमित है.
यह और बात है कि चैनलों को मजबूरी में राहुल के पीछे-पीछे जाना पड़ा. लेकिन जब चले ही गए थे तो कम से कम इतना तो कर सकते थे कि इस यात्रा के दौरान युवराज को मिल रहे समय में से कुछ समय किसानों के दुख-दर्द और उनकी समस्याओं को भी देते. इससे दर्शकों को भी राहुल से इतर गांवों और किसानों की तकलीफों का कुछ अहसास होता.
क्या हमारे गांव और किसान इतने के भी हकदार नहीं हैं?