सारी जिंदगी मैं समाज सेवा के काम में रही हूं. झारखंड में जनता के लिए काम करने के चलते मेरा हमेशा सरकार, माफिया और बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों से सीधा टकराव हुआ है. व्यवस्था में बदलाव की जरूरत है और इस बदलाव के लिए आपको व्यवस्था के भीतर ही दाखिल होना होगा अब समय आ गया है कि हम जैसे लोग जो जनता के लिए काम करते हैं, न सिर्फ वह काम जारी रखें बल्कि लोकसभा में भी जाएं और वहां ऐसे कानून बदलें जो आदिवासियों का हक मारने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं.
आज हर तरफ विकास की बात होती है. लेकिन इन कथित विकास परियोजनाओं में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है. अगर एक कुआं बनने के लिए तीन-चार लाख रु आते हैं तो उनमें से योजना तक सिर्फ डेढ़ लाख रु ही पहुंचते हैं. बाकी स्थानीय पार्टी कार्यकर्ता, जिला कलेक्टर, विधायक और संबंधित मंत्री खा जाते हैं. आधे से ज्यादा पैसा तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रहा है. आदिवासियों का हक मारा जा रहा है.
सरकार के लिए विकास का मतलब है किसानों और आदिवासियों को विश्वास में लिए बिना राज्य के संसाधनों का दोहन करना. जब स्थानीय लोग विरोध करते हैं तो उन पर माओवादी होने का ठप्पा लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है.
विकास का मतलब झारखंड में एम्स या आईआईटी क्यों नहीं है? क्यों वहां आज भी एक टीचर के भरोसे स्कूल चल रहा है? वहां कोई कृषि केंद्र क्यों नहीं है? जरूरत इस बात की है कि ऐसे विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो टिकाऊ हो और जिससे स्थानीय समाज को भी फायदा हो.
मैं विकास की एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहूंगी जो 40 फीसदी आरक्षित वनभूमि का फायदा उठाकर चले. ऐसे लघु उद्योग क्यों नहीं हो सकते जिनके लिए कच्चा माल जंगल से आए. ऐसी फैक्ट्रियां बनाकर हम नौजवानों को हथियारों से दूर कर सकते हैं और शांति बहाल कर सकते हैं. लेकिन ऐसे विकास के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता क्योंकि बड़े उद्योगों के साथ डील करके तो करोड़ों कमाने की व्यवस्था हो जाती है.
(अवलोक लांगर से बातचीत पर आधारित)