1960 के आसपास लिखी अपनी प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ में मुक्तिबोध ने कहा था – ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब.’ लेकिन जैसा कि कविताओं के साथ अक्सर होता है, उन्हें पढ़ाने वाले और उन पर बहस करने वाले लोग कई बार उनके वे अर्थ भी निकाल लेते हैं जिसके विरोध में कविता खड़ी थी. मुक्तिबोध की इस कविता को भी हिंदी साहित्य की दुनिया ने शायद इसी तरह पढ़ा है और जो मठ और गढ़ टूटने चाहिए थे, उन्होंने अपनी दीवारों पर सीमेंट और महंगे पेंट की एक-एक परत और चढ़ा ली. आज उनके बाहर वे महंगी गाड़ियां खड़ी मिलती हैं, जिनके नीचे गोदान का होरी महतो कभी का कुचला जा चुका है और उन मठों में वे सब लोग हाजिरी बजाते पाए जाते हैं जो हिंदी साहित्य के आसमान में सितारे बनकर चमकना चाहते हैं.
आजादी के बाद पत्रिकाओं के संपादकों ने रचनात्मकता को तरजीह देने की जगह अपने चेले-चमचों को छापना शुरू कर दिया
दरअसल आजादी के बाद के हिंदी साहित्य का इतिहास एक तरह से मठों और गढ़ों की आपसी टकराहट और इस प्रक्रिया में इनके बनने-बिगड़ने का ही इतिहास रहा है. इसीलिए यह हुआ है कि हिंदी की साहित्यिक दुनिया रचनाकारों की न रहकर गिरोहों और गुटों की दुनिया में तब्दील हो गई है. कहीं-कहीं अंडरवर्ल्ड के डॉनों या हिन्दी फिल्मों के शक्तिशाली कैंपों या धर्मगुरुओं की तरह, जिसमें आप एक जगह माथा नवाते हैं और दूसरी जगह को गाली देते हैं या गोली मारते हैं. हिंदी के लेखक अपनी रचनाओं से बाहर अब अक्सर उन्हीं लड़ाइयों में खड़े दिखाई पड़ते हैं जिनका अंत किसी सत्ता को उखाड़ने और अपनी सत्ता को जमाने से ही होता है और साहित्य की इस महाभारत में शकुनि बहुत ज्यादा हैं और कृष्ण एक भी नहीं. अगर है भी तो उसे हिंदी के संस्थानों में घुसने की इजाजत नहीं है.
दौर सबसे बुरा है, इसे कई बातों से समझा जा सकता है. एक ओर जहां हिंदी साहित्य आज पाठकों की कमी से जूझ रहा है तो लेखकों की दुनिया सिर्फ कुछ सैंकड़ा लोगों तक सिमट गई है. एक ठीक-ठाक स्थापित लेखक बताते हैं कि इनमें से बमुश्किल 50 ही ऐसे होंगे, वे भी दिल्ली, लखनऊ, बनारस, भोपाल जैसे शहरों में रहने वाले लेखक, जो कभी अपने काम से तो कभी अपनी फोन कॉलों के नेटवर्क से मुख्यधारा में बने रहते हैं. इन 50 में से भी 10 लोग ही मिलेंगे जिनका ज्यादा जिक्र होता है और जिन्हें दूसरे या जो स्वयं को कालजयी घोषित करते हैं. और इन 10 में से तीन-चार ही ऐसे हैं जिनकी हिंदी में ‘स्टार वैल्यू’ है. बहुत बार तो लेखक के रूप में इनके काम से इनकी इस ‘स्टार वैल्यू’ का कोई लेना-देना भी नहीं है.
सवाल यह उठता है कि समाज के इतना करीब रहने वाले साहित्य में कुछ व्यक्तियों के हाथ में सत्ता सौंपने की यह प्रवृत्ति कैसे बढ़ी? वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर इस प्रवृत्ति की पहली वजह पर रोशनी डालते हैं, ‘दरअसल हिंदी साहित्य में जो आंदोलन हुए वे व्यक्ति केंद्रित अधिक हो गए थे. लेखक अपनी मान्यता के लिए उनके इर्द-गिर्द जमा होने लगे. इससे लगातार माहौल बिगड़ता गया और रचना की जगह व्यक्ति महत्वपूर्ण होता गया.’ जब दुनिया के अधिकतर आंदोलन मूलतः व्यक्ति को शक्ति का केंद्र बनाने के विरोध में ही होते हैं, तब हिंदी साहित्य में प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, नयी कहानी आदि जितने भी साहित्यिक आंदोलन हुए, सभी ने व्यक्ति केंद्रीयता को बढ़ावा ही दिया. मतलब यह कि हिंदी के साहित्यिक आंदोलन शुरू कहीं से भी हुए हों, जब वे खत्म हुए तो उन्होंने एक और सत्ता केंद्र बनाने के अलावा कुछ नहीं किया.
हिंदी में स्वतंत्र पाठक वर्ग के नहीं रहने के कारण जो लोग सत्ता से जुड़े रहे वे महत्वपूर्ण हो गए
वरिष्ठ कवि विष्णु नागर एक और बेहद महत्वपूर्ण कारण के बारे में बताते हैं, ‘हमारा लेखक तमाम कारणों से पाठकों से कटता गया. पाठकविहीनता की स्थिति में जिनके पास ताकत होगी, वे महत्वपूर्ण हो जाते हैं. आज हिंदी में लेखकों का पाठकों से सीधा रिश्ता खत्म हो जाने के कारण एक छोटा-सा सत्ता समूह निर्णायक स्थिति में है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि ये सत्ता केंद्र रचनात्मक रूप से कुछ भी नया नहीं दे रहे हैं. ये अपनी रचनात्मकता के कारण नहीं बल्कि इतर कारणों से साहित्य पर काबिज हैं. पिछले कई सालों से अशोक वाजपेयी ने क्या लिखा? कुछ भी सृजनात्मक नहीं किया. इसी तरह राजेंद्र यादव ने पिछले कई वर्षों में रचनात्मक रूप से क्या दिया? अब तो पत्रिका भी खराब निकाल रहे हैं. ऐसे माहौल में जो सचमुच कुछ नया और सृजनात्मक काम कर रहे हैं वे उपेक्षित रह जाते हैं.’
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय एक दूसरी बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘हिंदी के बहुत सारे साहित्यकार और अधिकांश आलोचक विश्वविद्यालयों के अध्यापक होते हैं. ये प्रोफेसर और विभाग के अध्यक्ष बनते हैं. इस पद पर रहते हुए वे कई लिहाज से लाभ और हानि पहुंचाने की स्थिति में होते हैं. ऐसे में, वे एक सत्ता केंद्र बन जाते हैं. अब अगर कोई आलोचक है और उसके हाथ में सत्ता भी है तो वह साहित्य को निर्धारित करने की स्थिति में आ जाता है. इसमें जो जितना सफल होता है वह साहित्य को उतना ही भटकाता है. इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता आजादी के बाद पूरी तरह भटक गई. पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने रचनात्मकता को अधिक तरजीह देने की जगह अपने चेले-चमचों को छापना और ‘प्रमोट’ करना शुरू कर दिया. ये दो तरह के सत्ता केंद्र हिंदी में बने जिन्होंने हिंदी साहित्य का जबर्दस्त नुकसान किया.’
लगभग इसी तरह की राय प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव और ‘वसुधा’ के संपादक रहे स्वर्गीय कमला प्रसाद की भी थी. अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले इस लेखक के साथ बातचीत में उनका कहना था, ‘साहित्य का काम समाज के अंतर्विरोधों और बुराइयों से पार पाना है. मगर साहित्य की यह क्षमता क्रमशः घटती गई और उलटा वही बुराइयां साहित्य में भी आ गईं. अपना हित, अपना प्रकाशन, अपना ‘रिव्यू’, और इस तरह उनके सब सरोकार और चिंतन अपने तक ही सिमटकर रह गए. आज अगर एक ही लेखक चार समीक्षाएं लिखता है तो चारों में एक मूल्य न होकर अपने हित और जरूरत के हिसाब से अलग-अलग मूल्य दिखाई देते हैं. दरअसल, अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार से अधिक हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ रोकते हैं. ऐसे माहौल में विकलांग चित्तवृत्तियां विकसित हुईं जिनके कारण कुछ सत्ता केंद्र उभर आए. इन सत्ता केंद्रों का एक ही काम है – प्रतिभा और साहस को रोकना. इसका एक उदाहरण हाल में तब देखा गया जब विभूतिनारायण राय प्रकरण के दौरान महिलाओं की लड़ाई में बड़े लेखक अपने खोल से बाहर ही नहीं निकले.’
नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी जैसे लोग हिंदी साहित्य की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं
विभूति प्रकरण हिंदी साहित्य के सबसे ताजा विवादों में से एक है जिसमें ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति वीएन राय ने हिंदी की महिला लेखिकाओं को छिनाल कहा था. इस पर भड़के हुए सैकड़ों लेखकों ने ऐसी टिप्पणी पर उन्हें पद से हटाए जाने की मांग की लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पदों को छोड़ने और पुरस्कारों को ठुकराने की वह नैतिकता भी हिंदी की सत्ता के गलियारों में अब नहीं है जिसमें आत्मसम्मान और कुर्सी को तराजू के दो पलड़ों में रखा जाए और आत्मसम्मान भारी पड़े. ऐसे मौके अपवाद हैं जब केदारनाथ सिंह ने 2009 का शलाका सम्मान और उनके साथ कई अन्य लेखकों ने भी हिंदी अकादमी से सम्मान लेने से इसलिए मना कर दिया कि 2008 का सम्मान कृष्ण बलदेव वैद को दिए जाने के निर्णय के बाद वह निर्णय बदल दिया गया था. सिर्फ इसलिए कि एक कांग्रेसी नेता ने हिंदी अकादमी की अध्यक्ष शीला दीक्षित को पत्र लिखकर कहा था कि वैद की किताब अश्लील है. पुरस्कार देने का फैसला बदल लिया गया लेकिन श्लीलता-अश्लीलता तय करने के लिए जिम्मेदार साहित्यकारों की एक समिति तक नहीं बनाई गई.
हिंदी अकादमी इससे पहले भी विवादों में तब घिरी रही थी जब इसके कई सदस्यों के विरोध और इस्तीफे के बावजूद अशोक चक्रधर को उसका उपाध्यक्ष बना दिया गया था. विरोध करने वाले साहित्यकारों का कहना था कि एक हास्य कवि होने पर भी उन्हें इसीलिए गंभीर साहित्यकारों की एक संस्था का उपाध्यक्ष बनाया गया कि उन्होंने चुनाव में कांग्रेस के प्रचार के लिए गीत लिखे थे. विवाद जो भी हो, ऐसे सब विरोधों में अधिकांशत: जीत सत्ता की ही हुई है. और इसके भी मूल में कहीं न कहीं गुटों में बंटी हिंदी की साहित्यिक दुनिया ही रही है.
आम धारणा है कि हिंदी वालों का विरोध तात्कालिक ही होता है. बस आप उस समय अपनी जगह पर बने रहिए और धीरे-धीरे सब शांत हो जाएंगे. जल्दी ही फिर से वही वक्त आ जाता है, जब हिंदी साहित्य के इन मंदिरों में दर्शन के लिए आने वालों की भीड़ पहले की तरह ही बढ़ जाती है. ऐसा क्यों, यह पूछने पर उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल कहते हैं, ‘दरअसल, हिंदी का जो लेखक है वह अपने रचनात्मक संसार में असुरक्षित है. अधिकांश लेखक जो सत्ता केंद्रों से जुड़े वे स्थापित हुए. ये रचनात्मक रूप से उत्कृष्ट न होकर ‘प्रमोटी’ लेखक थे. जो ईमानदार, मेहनती और अन्वेषी लेखक थे, उनकी घोर उपेक्षा हुई, क्योंकि वे सत्ता केंद्रों में विश्वास नहीं करते थे. ऐसा माहौल बना दिया गया कि सत्ता केंद्रों से जुड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है.’
हिंदी साहित्य में विभिन्न तरह के सत्ता केंद्रों का विश्लेषण करते हुए मोरवाल आगे कहते हैं, ‘हिंदी में मूलतः तीन सत्ता केंद्र हैं. पहला आलोचक नामवर सिंह का, दूसरा हंस के संपादक राजेंद्र यादव का और तीसरा ललित कला अकादमी के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी का. लेकिन हिंदी में केवल व्यक्ति ही सत्ता के केंद्र नहीं हैं बल्कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, पत्रिकाओं के संपादक और लेखक संगठन भी हैं. लेखक संगठन जिन पर हम सबसे ज्यादा भरोसा करते थे, वे एकदम अप्रासंगिक हो गए.’ कुछ लोग नया ज्ञानोदय के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया को साहित्य का चौथा सत्ता केंद्र मानते हैं. किंतु कालिया उनकी इस धारणा को नकारते हुए कहते हैं, ‘साहित्य के सत्ताकेंद्रों के बारे में तो मैं सिर्फ ये कहूंगा कि आयुर्वेद में रोग के तीन ही कारण हैं – कफ, पित्त और वात. मैं सत्ताकेंद्र नहीं हूं क्योंकि आयुर्वेद में रोग का कोई चौथा कारण नहीं होता.’
हिंदी में यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिनसे सत्ता केंद्रों को चुनौती मिलने की उम्मीद थी वही कुछ समय बाद नये सत्ता केंद्र बन गए. लघु पत्रिकाएं और लेखक संगठन सत्ता केंद्रों को चुनौती देने के लिए एक बेहतर मंच हो सकते थे. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया. कथाकार व समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘हिंदी में स्वतंत्र पाठक वर्ग के नहीं रहने के कारण जो लोग सत्ता से जुड़े रहे, बस वही महत्वपूर्ण हो गए. दूसरी तरफ पहल, हंस आदि पत्रिकाएं सत्ता केंद्र के रूप में उभरीं. तीसरी तरफ लेखक संगठन भी एक सत्ता केंद्र बन गए जो मिलकर सामूहिक रूप से किसी को उठाने-गिराने के खेल में शामिल हो गए.’
लेकिन हिंदी साहित्य के पाठकों से दूर जाने की वजह क्या रही, यह पूछने पर सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी कहते हैं, ‘इसका सबसे बड़ा कारण हिंदी का मीडिया है. इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों. वह मूलतः हिंदी-विरोधी है और अपने चरित्र में दोगला है. हिंदी मीडिया ने साहित्य को कोई तरजीह ही नहीं दी. ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’, ‘रविवार’ जैसी पत्रिकाएं घाटे के कारण नहीं बल्कि कम फायदे के कारण बंद कर दी गईं. साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता पर जितना तीखा हमला हिंदी के लेखकों ने किया, उतना किसी ने नहीं किया, लेकिन हिंदी मीडिया ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. ‘आइकन’ तो मीडिया ही बनाता है. हिंदी मीडिया ने हिंदी साहित्य के लिए यह काम नहीं किया.साथ ही दूसरी बड़ी वजह हिंदी का प्रकाशन व्यवसाय है. किताबें पाठकों के पास पहुंचें, इसके लिए हिंदी के प्रकाशकों ने कोई नेटवर्क नहीं बनाया. दूसरी तरफ किताबें और महंगी होती गईं.’
लगभग यही राय विष्णु नागर की भी है. वे कहते हैं, ‘साहित्य-विरोधी माहौल मीडिया ने बनाया. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अगर दूरदर्शन को छोड़ दें तो साहित्य के लिए कहीं कोई स्पेस ही नहीं है. जिन अखबारों और पत्रिकाओं पर साहित्य को पाठकों तक पहुंचाने का दायित्व था, उन्होंने उससे पल्ला छुड़ा लिया. दूसरी तरफ सरकारी खरीद के कारण किताबें बहुत महंगी हुईं. किताबों के मूल्य निर्धारण में लेखकों की कोई भूमिका नहीं रही.’
साहित्यकार गिरिराज किशोर इन सबके अतिरिक्त एक और बड़े कारण की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘सरकारों ने हिंदी को किनारे किया और अंग्रेजी को वर्चस्व की भाषा बनाया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण योगदान नेहरू का था जिन्होंने हिंदी की जगह अंग्रेजी को स्थापित किया. दूसरी बात यह कि हिंदी के लेखकों में गुटबाजी बहुत बढ़ गई. गुटों के मुखियाओं ने अपने-अपने गुट के लोगों के साहित्य को महत्व दिया और बाकी को खारिज किया. इससे पाठक बहुत दिग्भ्रमित हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदी में पठन-पाठन का माहौल कम हुआ.’ यानी गुटबाजी ने पाठकों को लेखकों से दूर किया और पाठकों की इस दूरी ने और ज्यादा गुटबाजी को जन्म दिया. कथाकार और ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश एक और बिंदु को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘दरअसल हिंदी प्रदेशों में साक्षरता कम रही और सांस्कृतिक आंदोलनों का अभाव रहा. हर ताकत का पहला आखेट हिंदी जनता ही रही, चाहे वह पतनशील मुंबइया सिनेमा हो या कॉरपोरेट या राजनीति या फिर धर्म. सबने इसी भाषा को टारगेट किया. इससे भी हिंदी जनता साहित्य से विमुख होती गई.’
लेकिन हिंदी साहित्य के पाठक खत्म होते गए, क्या इसके लिए हिंदी का लेखक कतई जिम्मेदार नहीं है? मैनेजर पांडेय कहते हैं, ‘हिंदी समाज में जो घट रहा है उससे अधिकांश लेखकों को कोई लेना-देना नहीं है. कविता, कहानी मध्यवर्ग तक सीमित होकर रह गई है. इसलिए रचना से भाव और विचार के स्तर पर व्यापक जनता जुड़ नहीं पाती. मैं पूछना चाहता हूं कि आज का हिंदी साहित्य हिंदी जनता के दुख-दर्द और उसके सरोकारों की कितनी खबर ले रहा है? पिछले दस साल में लगभग दो लाख किसानों ने आत्महत्या की है. यह अभूतपूर्व है. लेकिन इसपर कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं लिखी गई. सिर्फ राजेश जोशी ने एक कविता लिखी. इसी तरह हिंदुस्तान की राजनीति की पूरी अमानवीयता आदिवासियों पर केंद्रित हो गई है. आदिवासियों के दुख-दर्द, शोषण, विस्थापन आदि को लेकर केवल एक उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ लिखा गया और चंद्रकांत देवताले ने एक कविता लिखी. यह समझने के लिए ये दो उदाहरण पर्याप्त हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य की यात्रा मध्यवर्ग से निकलकर मध्यवर्ग तक सीमित हो गई है.’ स्वर्गीय कमला प्रसाद की भी लगभग यही राय थी. उनका कहना था, ‘समाज अपनी समस्या, उलझन आदि का समाधान ढूंढ़ने के लिए साहित्य के पास जाता है. इसीलिए हम बार-बार प्रेमचंद, तुलसी, कबीर आदि के पास लौटते हैं. इस समय के अधिकांश लेखक और कवि द्वंद्वहीन हैं. उनकी रचनाओं में वह सामर्थ्य ही नहीं कि वे खुद से व्यापक जनता के मनोभावों को जोड़ सकें.’
हिंदी में पाठकों के खत्म होने के अलग-अलग चाहे जितने कारण गिनाए जाएं, इन सबके मूल में सत्ता केंद्रों की ही भूमिका है, ऐसा मानने वालों की कमी नहीं. पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘जो लोग ‘फोर फ्रंट’ थे, जैसे नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी आदि, वे लोग ही हिंदी साहित्य की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं. ये लोग विभिन्न जगहों पर रहे. इन्होंने साहित्य की स्वायत्त सत्ता बनाने की जगह सरकार पर इसकी निर्भरता को और बढ़ावा दिया. थोक सरकारी खरीद के कारण हिंदी में पुस्तकों का स्वाभाविक बाजार ही नहीं बना. इस थोक सरकारी खरीद संस्कृति के जन्मदाता अशोक वाजपेयी ही हैं जिसने हिंदी लेखकों का सबसे बड़ा अहित किया.’ पंकज बिष्ट आगे कहते हैं, ‘जो लोग साहित्य की नेतृत्वकारी भूमिका में थे, उन्होंने साहित्य को स्वाभाविक गति और मार्ग से भटका दिया. इन्होंने साहित्य में एक ट्रेंड सेट कर दिया कि रचनात्मक प्रतिभा की जगह जुगाड़ और सेटिंग से भी साहित्य में महत्वपूर्ण और प्रभावी बना जा सकता है.’
लेकिन जुगाड़ की जीत के पीछे भी कहीं न कहीं पाठकों की कमी ही जिम्मेदार है. इसी वजह से ही हिंदी के लेखक की हैसियत भी कम है. उसके पीछे कम लोग हैं, इसलिए उसकी आवाज भी कमजोर है. उसके साथ अन्याय होगा तो इतना भी नहीं हो पाएगा कि मीडिया उसे वैसी तवज्जो दे, जैसी उसने चेतन भगत को ‘थ्री इडियट’ से जुड़े विवाद में दी थी. हिंदी न्यूज चैनलों पर भी कितनी बार ही हिंदी के लेखकों को किसी बहस में बुलाया जाता है? इसीलिए हिंदी का लेखक पुरस्कार, सम्मान, लोकार्पण, विदेश-यात्रा जैसी चीजों के पीछे भागता है और उन लोगों के पीछे भी भागता है जो उसे ये सब दे सकते हैं. मूल्य, प्रतिबद्धता, विचारधारा की बात उसकी रचनाओं में तो है, लेकिन जीवन में काफी कम. एक जाने-माने लेखक नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘यों तो हिंदी में सत्ता केंद्रों की राजनीति में अवसरवाद के उदाहरण हमेशा मिलते रहे हैं लेकिन इसकी सबसे ताजा मिसाल राय-कालिया का ‘छिनाल प्रकरण’ है. रवींद्र कालिया ने हर तरह से मेहनत करके थोक के भाव में जितने नये लेखकों को खड़ा किया, लगभग सभी ने निर्णायक मौके पर कालिया की हालत पतली देखकर उनसे किनारा कर लिया और कालिया लगभग अकेले पड़ गए.’ दरअसल आज हिंदी में जो माहौल बन गया है उसमें किसी का महत्व उसकी रचनात्मकता के कारण नहीं बल्कि उसकी सत्ता के कारण है. एक वरिष्ठ कवि कहते हैं, ‘पिछले 20-25 साल में रचनात्मक रूप से कुछ नया और महत्वपूर्ण न देने के बावजूद अगर नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी और राजेंद्र यादव स्टार बने हुए हैं तो इसका असल कारण उनकी सत्ता है. अगर आज उनके हाथ से सत्ता छिन जाए तो कोई उन्हें पूछेगा तक नहीं.’
स्थिति यह है कि आपके पास किसी भी तरह की सरकारी या गैरसरकारी ताकत है तो आप आसानी से लेखक या साहित्यकार बन सकते हैं. आज का फंडा यह है कि पहले ताकतवर बनिए, फिर साहित्यकार खुद-ब-खुद बन जाएंगे. जानकार मानते हैं कि यह ताकत किसी सरकारी या गैरसरकारी संगठन में अच्छी नौकरी, विश्वविद्यालय के अध्यापक, प्रोफेसर, किसी संस्था के अध्यक्ष से लेकर ब्यूरोक्रेट, पत्रकार होने या किसी मठाधीश की चेलागीरी तक कुछ भी हो सकती है. जिसके पास जिस अनुपात में ताकत होगी वह हिंदी साहित्य के वर्तमान परिदृश्य में उतना ही बड़ा और महान साहित्यकार होगा. इसका कारण यह है कि रचना की उत्कृष्टता को न तो पाठक तय करता है और न ही कोई व्यापक समूह. यह साहित्य के छोटे-बड़े सत्ता केंद्रों द्वारा तय की जाती है. जिस लेखक के पास जितनी ताकत होगी वह उसी अनुपात में सत्ता केंद्रों को ‘मैनेज’ कर पाएगा, अपने पक्ष में उतनी समीक्षाएं छपवा पाएगा और उसी अनुपात में वह छोटा या बड़ा लेखक बनेगा. यह माहौल ताकतवर लोगों के लेखक बनने के लिए जितना अनुकूल है, ईमानदार, मेहनती और अपने रचना-कर्म पर भरोसा करने वालों के लिए उतना ही प्रतिकूल.
छपना तो मुश्किल है ही लेकिन छपने के बाद भी किसी नये लेखक के लिए अच्छा लिखकर अच्छी समीक्षाएं पाना और चर्चा में आ पाना कितना मुश्किल है, इस पर स्वर्गीय कमला प्रसाद का कहना था, ‘हिंदी में समीक्षा और चर्चा दोनों ही विशुद्ध लेन-देन का मसला हो गए हैं. जो लेने-देने की स्थिति में नहीं होगा उसे दरकिनार हो जाना ही होगा.’ तहलका ने जब इस सिलसिले में कुछ युवा साहित्यकारों से बात करने की कोशिश की तो अधिकांश ने चुप्पी साध ली. इससे और ठीक से पता चलता है कि ज्यादातर युवा लेखक साहित्य की पूरी राजनीति से कितने खौफजदा हैं और उनमें से कुछ तो उन सिंहासनों के पाए ही बनते जा रहे हैं, ताकि बाद में उन पर बैठ सकें.
हालांकि अधिकांश युवा कथाकारों से उलट चर्चित युवा कथाकार कैलाश बनवासी इस मुद्दे पर बोलते हैं और कहते हैं, ‘इनके हाथों में पद, संपादन, पुरस्कार समितियां और सरकारी-गैर सरकारी धनी संस्थान हैं, इसलिए स्वाभाविक है कि नये रचनाकार इनके प्रति न केवल आकर्षित होंगे बल्कि कृतज्ञ और वफादार भी रहेंगे. लेकिन ज्यादा बुरा यह है कि इस प्रवृत्ति के चलते साहित्य की स्वतंत्रता खत्म हो रही है. उसके सरोकार सत्ताकेंद्रों और बाजार की मांग पर तय हो रहे हैं.’ उनके उलट युवा कथाकार मनोज कुमार पांडे ऐसे मठों के अस्तित्व को मानते हुए भी इस बात से इनकार करते दिखते हैं कि ये मठ साम्राज्य बनाने की सोच के तहत बनाए जाते हैं. उनका मानना है कि समान विचारों और साहित्यिक रुचियों के लोग एक साथ आते हैं जिसे कुछ लोग मठ कहने लगते हैं.
लेकिन चीजें इतनी आसान दिखती नहीं. लेखक की तो फिर भी बात होती है, लेखन की बात तो सुनाई ही नहीं पड़ती. शोर और आरोप-प्रत्यारोप बहुत ज्यादा है और काम की बातें उतनी ही कम हैं. हिंदी की सड़क पर साहित्य के नाम से जो बस जा रही है, उसमें साहित्य पीछे के दरवाजे पर लटक रहा है, जिसे अपने या अपनों के लिए ज्यादा जगह पाने के फेर में कभी भी कोई मठाधीश नीचे गिरा सकता है.
राजेंद्र यादव
अगस्त, 1986 में ‘हंस’के प्रकाशन के साथ राजेंद्र यादव एक साहित्यिक सत्ता केंद्र के रूप में उभरे. इसके पहले ‘नयी कहानी’ के महत्वपूर्ण रचनाकार के रूप में उनकी ख्याति थी. उनकी इस ख्याति की ‘हंस’ के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका रही. यह वही दौर है जब भारतीय राजनीति एक करवट ले रही थी. अस्मिता आधारित राजनीति की शुरुआत हो रही थी. इसका मुखर रूप 90 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद देखने को मिला. राजेंद्र यादव ने शीघ्र ही नयी सामाजिक शक्तियों के उभार को परख लिया और राजनीति के एजेंडे को साहित्य में लागू करना शुरू कर दिया. दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, पिछड़ा आदि की रचनाशीलता को ‘हंस’ के रूप में एक बड़ा प्लेटफॉर्म दिया. देखते-देखते राजेंद्र यादव दलित और स्त्री विमर्श के पुरोधा बन गए. हंस की लोकप्रियता भी बढ़ी और वह सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली हिंदी की अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रिका बन गई, जो अपने तमाम उतार-चढ़ाव और कमियों के बावजूद आज भी बरकरार है.
हंस की लोकप्रियता और प्रतिष्ठा के कारण राजेंद्र यादव इस स्थिति में आ गए कि वे किसी को रचनाकार बना सकें या किसी छोटे लेखक को बड़े लेखक के रूप में स्थापित कर सकें. यह काम उन्होंने बखूबी किया भी. हंस के अलावा राजेंद्र यादव के पास कोई अकादमिक या सांस्थानिक सत्ता नहीं है. वे एक पत्रिका के माध्यम से साहित्यिक सत्ता केंद्र बनने की अनूठी मिसाल हैं. आज भी हंस में छपने की इच्छा हर रचनाकार की होती है. इस तरह, राजेंद्र यादव की ताकत के मूल में उनका संपादक व्यक्तित्व है.
हंस के संपादक राजेंद्र यादव सत्ता केंद्रों के अस्तित्व को तो स्वीकार करते हैं पर वे खुद भी उनमें शामिल हैं ऐसा नहीं मानते. अवधेश त्रिपाठी से उनकी बातचीत के अंश :
क्या आप मानते हैं कि साहित्य में कुछ सत्ताकेंद्र हैं?
देखिए, आप सत्ताकेंद्रों की बातें कर रहे हैं तो एक तरह से कह सकते हैं कि कुछ सत्ताकेंद्र हैं, जो विश्वविद्यालयों को चलाते हैं या जिनके इशारे पर विश्वविद्यालयों में रचनाएं होती हैं, नियुक्तियां होती हैं. उस अर्थ में लोग तीन सत्ता केंद्रों को मानते हैं. पहला नामवर जी का, दूसरा अशोक वाजपेयी और तीसरा मैं खुद. उस अर्थ में मैं बिलकुल भी सत्ता केंद्र नहीं हूं जिस अर्थ में ये दोनों हैं. ये किन्हीं-न-किन्हीं बड़े संस्थानों से जुड़े हुए हैं. नामवर जी बीसियों कमेटियों में हैं और विश्वविद्यालयों में अक्सर भाषण करने जाते रहते हैं. अशोक वाजपेयी के पास भी हमेशा से सत्ता रही है. आईएएस ऑफिसर थे, उसके अलावा भारत भवन जैसा प्रतिष्ठान था और इस समय ललित कला अकादमी है. उनके पास हमेशा बड़े शक्तिशाली संस्थान रहे. मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. इस मामले में यह समझिए कि मैंने मित्र नहीं शत्रु बढाये हैं. जिसकी भी रचना एक बार लौटा दो वह शत्रु हो जाता है. पहले बहुत खुशामदी किस्म के और मुझे महानतम साहित्यकार सिद्ध करते हुए पत्र आते हैं, फिर कोई रचना आती है. अगर वह हमें पसंद नहीं आती और हम उसे लौटा देते हैं, तो राष्ट्र के सबसे बड़े शत्रु बन जाते हंै. मुझे लेकर और मेरे विचारों को लेकर सबसे ज्यादा नाराज विश्वविद्यालय हैं. क्योंकि मैं यह मानता हूं कि साहित्यिक जड़ता के केंद्र विश्वविद्यालय हैं. वहां पर नयी चीजें नहीं आतीं. आज भी वहां जिसे नया कहा जाता है वह पचास साल पुराना है. उनके कुछ गिने-चुने मूर्धन्य साहित्यिकार हैं; उन्हीं पर वे किताबें लिखते हैं, उन्हीं पर लेख लिखते हैं, उन्हीं पर वे शोध कराते हैं. सारे प्राध्यापक किस्म के लोग ऐसे लोगों के बारे में ही लिखते हैं.
लेकिन आपके पास तो हंस की ताकत है. और आप पर आरोप है कि हंस के जरिए योग्य-अयोग्य लोगों को साहित्यकार बनाने के खेल में आप भी शामिल रहे हैं.
मैंने हंस निकाला और पच्चीस साल पूरे हो गए हैं. लेकिन इस दौरान मेरी अपनी रचना हंस में सिर्फ तीन या चार छपी हैं. मेरी किताबों की समीक्षा हंस में न छपे इसका मैं ध्यान रखता हूं. मैं अपने को प्रोमोट नहीं करना चाहता. हंस मेरे पास माध्यम है और मैं उसका दुरुपयोग नहीं करूंगा. ज्यादातर लोग आत्मप्रशंसा के लिए पत्रिकाएं निकालते हैं. उनके यहां पत्रों में भी यह बताया जाएगा कि वे कितने महान संपादक हैं. हमारे यहां घनघोर क्रिटिसाइज करने वाले पत्र छपते हैं. इस लिहाज से मैं कैसे कहूं कि मैं सत्ता केंद्र हूं. मैं तो जैसे-तैसे एक पत्रिका निकाल रहा हूं, जिसके पीछे न तो कोई संस्थान है, न कोई ट्रस्ट है, न कोई बड़ा हाउस है.
ये तो ठीक है लेकिन जिस दौर में यह माना जा रहा था कि ‘हंस में छपे बगैर आप कथाकार नहीं हो सकते’ क्या राजेंद्र यादव ने कुछ खास लोगों को प्रोमोट नहीं किया?
ऐसा बिलकुल भी नहीं है, मैं रचना देखता हूं व्यक्ति नहीं देखता.
तो क्या स्नोवा बार्नो के बारे में आपकी अब भी वही राय है?
देखिए मैं नहीं जानता कि स्नोवा बार्नों थीं या नहीं. मेरे सामने उनकी रचनाएं हैं, और वही मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं. मैं तो यह भी नहीं जानता कि प्रेमचंद थे या नहीं. लोग कहते हैं इसलिए मानते हैं, बाकी उनकी रचनाएं हैं. हमें रचनाओं तक सीमित रहना चाहिए.
आप खुद ही मान रहे हैं कि नौकरियों में, अकादमियों में, पत्रिकाओं और पुरस्कारों में कुछ खास लोगों का वर्चस्व है. ऐसे में जो नया
रचनाकार मठों के इस दायरे के बाहर पड़ता है, क्या उसके लिए कोई संभावना है?
एकदम है. इसलिए कि जितने भी सत्ता केंद्र हैं सबमें कोई कोआर्डिनेशन तो है नहीं. सब सहमत तो नहीं हर चीज पर. अगर कोई रचनाकार हंस में नहीं छपता तो ज्ञानोदय में छप जाएगा, बल्कि छपता है. ये दिखाने के लिए छापा जाता है कि देखो हमने हंस के लेखक को तोड़ लिया. दोनों प्रतिस्पर्धी पत्रिकाएं हैं. इसलिए संभावना है.
आप समेत तमाम सत्ताकेंद्रों ने कई ऐसे रचनाकारों को महान घोषित किया जो बाद में परिदृश्य से ही गायब हो गए?
हमें जो प्रतिभाशाली लगता है, या जिसमें संभावना लगती है, अगर किसी वजह से वह कल न रहे तो हम क्या कर सकते हैं. विजय प्रताप बहुत अच्छी कहानियां लिखते थे. हमारे यहां भी बहुत अच्छी कहानियां छपीं. असमय उन्होंने आत्महत्या कर ली. हम कह सकते हैं कि प्रतीकात्मक ढंग से या सचमुच कुछ लोगों की मृत्यु हो जाती है. सृंजय बहुत ढोल धमाके के साथ आए और फिर गायब हो गए. हम किसी के लेखन के बारे में आश्वासन नहीं दे सकते.
नामवर सिंह
चौरासी साल की उम्र में भी नामवर सिंह हिंदी साहित्य के केंद्र में बने हुए हैं. उन्होंने बौद्धिकता और सत्ता दोनों को एक साथ साधा. सत्ता के कारण उनकी स्थिति मजबूत होती गई और बौद्धिकता के कारण उनकी विश्वसनीयता भी एक हद तक कायम रही. अपने करियर के शुरुआती वर्षों में वे हिंदी के तत्कालीन सत्ता केंद्रों से निरंतर संघर्ष करते हुए आगे बढ़े और कालांतर मे स्वयं एक बड़े सत्ता केंद्र में तब्दील हो गए. उनके इस संघर्ष में राजकमल प्रकाशन से जुड़ाव, आलोचना जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन और जेएनयू में हिंदी के प्रोफेसर और अध्यक्ष बनने को काफी महत्वपूर्ण माना जा सकता है. जेएनयू से अकादमिक दुनिया में उनका निर्णायक वर्चस्व स्थापित हुआ. वे अनेक संस्थानों के निर्णायक निकायों में रहे. विभिन्न विश्वविद्यालयों में असंख्य नियुक्तियां कीं (जिनमें ज्यादातर अयोग्य व्यक्तियों के प्रति और कभी-कभी जाति के आधार पर भी स्नेह प्रदर्शित किया गया). आज देश भर में उनसे उपकृत लोगों की फौज है. उन्होंने प्रकाशन जगत, विश्वविद्यालय एवं विभिन्न अकादमिक संस्थानों पर अपने नियंत्रण को मजबूत बनाए रखा. इसके अतिरिक्त वे अनेक छोटे-बड़े साहित्यिक पुरस्कारों के निर्णायक रहे. कई वर्षों तक साहित्य अकादमी में रहे, जहां हिंदी के पुरस्कारों को लेकर इनकी निर्णायक भूमिका रही.
हिंदी साहित्य के अमिताभ बच्चन कहे जाने वाले नामवर सिंह की चारों तरफ मांग है. नये-पुराने अधिकांश रचनाकार उनसे वैधता हासिल करना चाहते हैं. इसीलिए गोष्ठियों से लेकर लोकार्पण कार्यक्रमों तक हर जगह उनकी व्यस्तता है. कुल मिलाकर पिछले दो दशकों से अधिक समय से कुछ भी नया न लिखने के बावजूद नामवर सिंह हिंदी साहित्य के शीर्ष सत्ता-पुरुष बने हुए हैं.
अशोक वाजपेयी
नामवर सिंह और राजेंद्र यादव से अलग अशोक वाजपेयी की ताकत सांस्थानिक अधिक है. हाल के वर्षों में वे एक मजबूत सत्ता केंद्र के रूप में उभरे हैं और उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी है. अशोक वाजपेयी निरंतर सत्ता में रहे हैं और आज भी ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष हैं. वे भूतपूर्व आईएएस हैं. प्रशासक के रूप में वे लंबे समय तक मध्य प्रदेश में साहित्य और संस्कृति को निर्धारित और नियंत्रित करते रहे. सत्ता का हिस्सा होने के कारण उन्हें संसाधनों की कभी कमी नहीं हुई. भोपाल में भारत भवन और दूसरी संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने अनेक साहित्यिक गतिविधियों का संचालन किया. उन्होंने उदारतापूर्वक भिन्न मत वाले लोगों को भी सरकारी पैसे से उपकृत किया. बाद में वाजपेयी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति बने और अनेक लोगों को लाभान्वित किया. वर्तमान समय में वे और भी शक्तिशाली हुए हैं. वे हाल ही में बनी ‘रजा फाउंडेशन के सर्वेसर्वा हैं. इस संस्था के पास काफी पूंजी लगभग (एक करोड़) है. इसके माध्यम से वे कई जगह साहित्यिक आयोजन कर रहे हैं या उन्हें प्रायोजित कर रहे हैं. अशोक वाजपेयी फिलहाल हिंदी के सर्वाधिक साधन संपन्न साहित्यिक व्यक्तित्व हैं. वे कई पुरस्कारों के निर्णायक मंडल में भी हैं. हाल ही में उदय प्रकाश को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार में भी उनकी निर्णायक भूमिका मानी जाती है.
रवींद्र कालिया
चर्चा में बने रहने और विवाद खड़ा करने के जरिए सत्ता केंद्र के रूप में खुद को स्थापित करने का जो रास्ता राजेंद्र यादव ने अपने लिए निकाला था, रवींद्र कालिया उसी रास्ते पर चलने की कोशिशें तो लंबे समय से करते आए थे, लेकिन ‘वागर्थ’ पत्रिका के संपादन के दौरान उन्हें पहली बार खुलकर अपना मठ बनाने का आधार मिला. साहित्य का सत्ताकेंद्र तभी तक मजबूत होता है, जब तक उसकी तरफ से युद्घ की हुंकार भरने वाली नयी पीढ़ी पीछे मौजूद है, जो उंगली के एक इशारे पर चरित्र हनन से लेकर किसी भी तरह के अभियान में उतर सकती है. नये कहानीकारों को तरजीह देने के नाम पर कालिया ने अपने पीछे कुछ प्रतिभाशाली और ज्यादातर अप्रतिभाशाली नये कहानीकारों को लामबंद किया. ज्ञानपीठ और उसकी पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ हाथ में आते ही उन्होंने अपने को एक मजबूत सत्ताकेंद्र के रूप में स्थापित कर लिया. फिर तो आलम धुंआ-धुआं हो गया. पुरस्कार दिलवाने, पत्रिका में प्रकाशित करने और पुस्तक प्रकाशित करने की ताकत हाथ में होने के साथ ही विभूति नारायण राय से मित्रता के चलते कम से कम एक विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग में नियुक्ति कराने की उनकी क्षमता के बारे में पता लगते ही याचकों की भीड़ उनके पीछे हो ली. कालिया ने ‘विभूति राय विवाद’ के दौरान अपने कई लड़ाकों के जरिए मोर्चा संभालने की कोशिश की. लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ सिपहसालार उनका साथ छोड़कर चले भी गए. कुल मिलाकर रवींद्र कालिया महत्वपूर्ण संस्थानों और शक्तिशाली व्यक्तियों से संपर्क के चलते प्रमुख सत्ताकेंद्र बने हुए हैं.
हिंदी में बस लेखक ही एक दूसरे के पाठक हैं और पाठकों की यही कमी साहित्य के मठों को बनाने में मदद करती है, इस रिपोर्ट से जुड़ा गौरव सोलंकी का आलेख पढ़ने के लिए क्लिक करें बल्ब बड़ा या सूरज