लेखक को अपने विचारों को जताने का मूलभूत अधिकार है: सुप्रीम कोर्ट

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प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड की किताब के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया ज़रूर लेकिन उनकी मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। उन्हें घर पर ही नज़रबंद रखा गया है। जिससे वे सुरक्षित रह सकें।
पिछले महीने प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड की किताब ‘स्मगलरलु कामाटोल्लुÓ पर पाबंदी लगाने की याचिका पर फैसला दिया सुप्रीम कोर्ट ने। अदालत ने 1969 के एक अदालती ऐतिहासिक फैसले का मान रखते हुए यह फैसला लिया। एडवोकेट के आइएनवी वीरंजनेमुलु ने अपनी याचिका में पुस्तक के एक अध्याय ‘हिंदुत्व मुक्त भारतÓ पर आपत्ति जताई थी। सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख न्यायाधीश दीपक मिश्र, एएमखानवलकर और डी वाई चंद्रचूड की खंड पीठ ने दो पन्ने के अपने फैसले में लिखा कि ‘हर लेखक को अपने विचारों को मुक्त रह कर अपनी बात कहने और उसे उपयुक्त तरीके से अभिव्यक्त करने का मूलभूत अधिकार है। किसी लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को दबाने को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इस किस्म की किताब को प्रतिबंधित करने के किसी भी अनुरोध पर सोच-विचार कर कठोरता से ही फैसला लेना चाहिए।
सच्चाई की खातिर और अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार की रक्षा में यह अदालत याचिका खारिज करती है। अदालत ने याचिका कर्ता से कहा कि प्रोफेसर कांचा इलैया की किताब पर प्रतिबंध लगवाने का उसका प्रयास ‘महत्वाकांक्षीÓ है। जब कोई लेखक लिखता है तो यह उसकी अभिव्यक्ति के अधिकार का मामला होता है। हमें नहीं लगता कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस अदालत (सुप्रीम कोर्ट) को किताबों को प्रतिबंधित करने का काम करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 1969 के उस ऐतिहासिक फैसले की याद दिलाता है जब ईवी रामास्वामी पेरियार की ‘सच्ची रामायणÓ पर पाबंदी लगाने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की थी। ‘सच्ची रामायणÓ पर अदालती फैसला एक ऐसी नजीर है जिसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार के मामलों में हमेशा गिना जाता है। ईवी रामास्वामी पेरियार बहुजन आंदोलन के कुछ आधार व्यक्तित्वों में एक हैं। दक्षिण भारत (तमिलनाडु) में द्रविड आंदोलन की नींव रखने वालों में वे एक थे। वे तर्कवादी और समाज सुधारक थे। जनता ने उन्हें पेरियार (सम्मानित व्यक्ति) की पदवी दी क्यांकि खुद वे सत्ता की राजनीति से दूर रहे। लेकिन वहीं राजनीति की ऐसी धुरी बनी जिस पर आज भी चक्कर लग रहे हैं। पेरियार वर्ण आश्रम के विरोधी थे और उससे जुड़े तमाम मसलों पर उन्होंने लिखा। उन्होंने कर्मकांड और आडंबर पर भी प्रहार किए।
उत्तर प्रदेश में समाज सुधारक और रिपब्लिकन पार्टी के नेता ललई सिंह यादव ने 1968 में ‘सच्ची रामायणÓ का हिंदी अनुवाद किया। उत्तरप्रदेश सरकार ने 20 दिसंबर 1969 में उस पर पाबंदी लगा दी। ललई सिंह यादव ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। 10 जनवरी 1971 को जस्टिस एके कीर्ति, जस्टिस केएन श्रीवास्तव और जस्टिस हरिस्वरूप की पीठ ने किताब पर से पाबंदी हटा दी और ललई सिंह यादव को तीन सौ रुपए हर्जाना भी दिलाया। उत्तरप्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली की सदस्यता वाली पूर्ण पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखने का फैसला सुनाया।
अब कांचा इलैया की सुरक्षा राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। उनकी किताब भी मूल और अनुवाद में पूरे देश में उपलब्ध रहेगी।
हैदराबाद के कांचा इलैया तेलंगाना के उस्मानिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रह चुके हैं। तेलुगु में लिखी उनकी पुस्तकों के अनुवाद अंग्रेजी में भी हो चुके हैं। वे अब अंग्रेजी में भी लिखते हैं।
वे मादिगा जाति के हैं। इस जाति में सभी प्रकार के मांस भक्षण का रिवाज सदियों से चला आ रहा है। गौ भक्षण के कारण हिंदू और ऊंची जातियां माला मादिगा को अपने से दूर रखती हैं। सूअर भी इनका प्रिय भोज्य पदार्थ है और घूस तथा चूहे गांवो में मदिगाओं का रुचिकर भोजन है तथा आर्थिक अभाव में जीने का सबसे बड़ा साधन भी। कांचा इलैया इसी मादिगा जाति के जुझारु प्रतिनिधि और विद्रोही लेखक नेता हैं।
एक जमाने में मंदिरों में इस जाति के लोगों का प्रवेश निषिद्ध था। इलैया ने वर्षों पूर्व ‘आइएम नॉट हिन्दू्Ó और बाद में ‘हिन्दू इंडियाÓ में प्रकाशन लेखन कर विवादों को मोल लिया था। विशेष कर मनुवादी व्यवस्था की उन्होंने चीरफाड़ की। वे पूछने पर कहते हैं, मनुवाद ने मनुष्य को विभाजित कर हमें ऊंचे से गिराया है और भारत को बर्बाद किया है। कहीं किसी प्रसंग में उन्होंने अश्लील शब्दों का प्रयोग हिन्दू देवी-देवताओं के लिए किया, जिसे वे अपना नागरिक स्वातंत्र्य मानते हैं। वे कहते हैं मैं समाजशास्त्री हूं। उनकी इस स्वघोषित ‘पदवीÓ को बहुसंख्य लोग नकारते हैं और उनके द्वारा व्यक्त विचारों पर अपनी असहमति जताते हैं। हरकतों की संज्ञा देते हैं।
‘हिन्दू इंडियाÓ का ही एक भाग है वर्तमान में उनकी प्रकाशित तेलगु में पुस्तक ‘सामाजिका स्मगलुरलु कोया टोल्लू् अर्थात वैश्य लोग सामाजिक तस्कर हैं।Ó
‘देश भर में व्यापार की बागडोर इन दिनों वैश्य के ही हाथ में है। महात्मा गांधी भी वैश्य थे और भारतीय राजनीति के अनेक सितारे इस जाति के वर्चस्व में आते हैं।
तेलंगाना की वैश्य जाति को ‘कोमटीÓ कहते हैं। परंपरानुसार ये ‘कृपणÓ जाति हैं और खानपान में शुद्ध शाकाहारी। एक प्रकार से ब्राहमण जाति के समकक्ष हैं कोमटी जाति। पूजा पाठ और धर्म प्रचारक के रूप में कोमटियों की आस्था सघन रही है।
कांचा इलैया स्वयं मादिगा हैं उन्हें एक प्रकार से ब्राहमण, कापू, गोल्ला, कुर्मा जातियों द्वारा निम्न जातियों को दबाये जाने की शिकायत रही है। उन्होंने ‘हिन्दू इंडियाÓ में इस से पहले जमकर मीनमेख निकाली थी। यहां तक की इनकी तुलना हरामी और कामियों से की थी। यह काँचा के अपने विचार थे। ब्राहमण जाति को मनु स्मृति में मस्तिष्क कहा गया है। इसका उन्होंने प्रबल विरोध किया था। कापू जाति तेलंगाना में सत्ता संघर्ष में सबसे आगे रही है। यादव जाति का वर्चस्व भी तेलंगाना की जिन्दगी में वर्चस्व रहा है। इन सब की आलोचना काँचा इलैया ने की है। इसके लिए उनके साथ तेलंगाना के कुछ बुद्धिजीवी और दलित हैं। पहले उन का विरोध हुआ था, किन्तु उतना नहीं जितना आज हो रहा है।
इसी लगन में उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने वैश्य लोगों को सामाजिक तस्कर भी बताया। इस पर अच्छा खासा विरोध हो रहा है क्योंकि वैश्य जाति के लोग धन बल से समर्थ भी हैं। काँचा इलैया के लेखन से वैश्व समुदाय के लोग अपमान महसूस करते हैं। हालांकि उनकी जीवन शैली और व्यापारिक विस्तारवादी प्रसंगों पर काँचा ने प्रहार किया है। उन्होंने परंपरा से गांवों में रेहन पर खेत देने को, सोना चांदी गिरवी रखने के धंधों की आलोचना की और बताया कि छोटी जातियों का शोषण कितना होता रहा है। इसी तरह उन्होंने मूलधन पर ब्याज – बट्टे के बहाने हो रहे शोषण को अपनी रचनाओं के जरिए पेश किया। काँचा इलैया से मैंने जब सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया कि ‘कसाई एक बार में पशु को मार देता है किन्तु वैश्य (वणिक) ब्याज के कारोबार के चलते उसे किश्तों में मारता है और हिन्दुस्तान इससे बेखबर है। सरकार आंख मूंदे देखती है।Ó
काँचा इलैया यह भी जानते हैं कि मनी लांड्रिंग पर राज्य और केंद्र सरकार ने कड़े कानून बना डाले हैं फिर भी महाजनी सभ्यता अभी चरमरा भी नहीं है। गांवों में यह भीतरी कर व्यवस्था शोषण रूप में अब भी जारी है। वे कहते हैं इसका विरोध होना चाहिए।
मुझे वे समझाते हैं आप के हिन्दी के लेखक प्रेमचंद ने इस महाजनी व्यवस्था का विरोध किया था। मैं तो आधुनिक भारत में वैश्यों की शोषण प्रवृति को आगे लाया हूं, फिर मुझे क्यों लोग जान से मारना चाहते हैं। मैं एक सामाजिक लेखक हूं। मेरे पास प्रमाण हैं। मैं अकारण नहीं लिखता हूं।
उनकी दलीलों और स्पष्टीकरणों से असहमत आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना के वैश्य संगठनों ने उनकी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने हेतु प्रदर्शन किए हैं। उनको जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं। इस पर इलैया ने उस्मानिया विश्वविद्यालय परिसर स्थित थाने में शिकायत दर्ज करवाई है। इस संदर्भ में वैश्य संगठनों के प्रतिनिधियों का आरोप है कि पुस्तक में तथ्यहीन बातें हैं जिसे लेकर गुंटूर में उनका घेराव हुआ। कार पर भी हमला हुआ पर वे बच गए। जाहिर है कि वैश्य जाति में अनेक जातियों के लोग आते हैं। हिन्दुस्तान भर से वैश्यों का यह आन्दोलन उठा है।
इलैया कहते हैं कि तमिलनाडु में वैश्य समाज के स्वनिर्मित कल्की अवतार समाज के मासूम लोगों का शोषण कर रहे हैं। समाज के लोगों से लाखों रुपयों का धन वसूला जा रहा है, जो आश्रम में प्रवेश से लेकर अन्य प्रसाधनों तक की सुविधा उपलब्धता के नाम पर चल रहा है। कल्की अवतार के नाम पर इलैया के अनुसार एक ढोंगी बाबा अपनी पत्नी परिवार के साथ यह सब कर रहा है। लोग उसे पूज रहे हैं। राज्य सरकारें चुप हैं। करोड़ों अरबों का यह धन कहां से आ और कहां जा रहा है।Ó
इलैया का यह आरोप जांच का विषय हो सकता है। वे तमिलनाडु के कल्कि अवतार बाबा का जिक्र कर रहे हैं जिन्हें अच्छा खासा सम्मान वैश्य समुदाय में प्राप्त है और वे अपने वैश्य अनुयायियों में पूज्यनीय हैं।
उन्होंने सरकारों से आग्रह किया था कि हिन्दी, तेलुगु माध्यम की शिक्षा पांचवीं तक कर दी जाए और इसके बाद का शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से हो जिससे सीधे अंग्रेजी में पढ़ कर दलित छात्र उन पदों पर पहुंचे, जहां वे नहीं पहुंच पाते हैं।
लेकिन काँचा इलैया का कहना है कि उन्हें जान से मारने की धमकियां एसएमएस से मिलती हैं। पुलिस को उनकी हिफाजत करनी चाहिए, क्योंकि आजकल लिखने पर मौत की सजा लेखकों को दे दी जाती है।