रीढ पर चोट

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एक-हरिद्वार में गंगोत्री टूर ऐंड ट्रैवल्स के नाम से कंपनी चलाने वाले अर्जुन सैनी ने लोन पर खरीदी गई अपनी तीन गाड़ियां सरेंडर कर दी हैं. चार धाम यात्रा बंद है और काम बस नाम भर का ही बचा है. जब खाने के ही लाले हों तो गाड़ियों की किस्त चुकाना तो दूर की बात है. लगातार बढ़ते कारोबार के बाद सैनी ने इस साल गाड़ियों की संख्या बढ़ा कर 12 कर ली थी जिनकी अक्टूबर तक की एडवास बुकिंग भी हो चुकी थी. लेकिन 18 जून को एक ही दिन उनकी सात गाड़ियों की बुकिंग कैंसिल हो गई. तब से शुरू हुआ यह सिलसिला रुका नहीं है.

दो- टूरिस्ट गाइड प्रकाश इन दिनों ऋषिकेश स्थित अपने दफ्तर में खाली बैठे रहते हैं. दो साल से इस कारोबार में सक्रिय 29 साल के इस युवक के पास अब कोई काम नहीं है. केदारनाथ में आपदा के बाद उन्हें दिल्ली के एक 40 सदस्यीय पर्यटक दल के साथ रुद्रप्रयाग से वापस ऋषिकेश लौटना पड़ा था. इस अंतिम टूर के जरिए उन्होंने सात हजार रुपये कमाए. पिछले सीजन में  डेढ़ लाख रुपये की कमाई से उत्साहित होकर इस बार उन्होंने चार धाम यात्रा मार्ग पर बने कुछ छोटे होटलों के साथ पार्टनरशिप करते हुए 50 हजार रुपये का निवेश किया था. लेकिन इस रकम के साथ प्रकाश की आगे की योजनाएं भी आपदा के सैलाब में डूब गई हैं.

तीन- चमोली जिले के सुदूरवर्ती गांव माणा के लोग पारंपरिक तौर पर भेड़ की ऊन से गर्म कपड़े, चटाइयां और कालीन बुनने का काम करते हैं. ये लोग चारधाम यात्रा शुरू होते ही बदरीनाथ और आस-पास के इलाकों में इनकी बिक्री करते थे. छह महीने के दौरान यहां का हर परिवार हर महीने 15 से 20 हजार रु तक कमा लेता था. इससे लोगों की साल भर की रोटी का इंतजाम हो जाता था. लेकिन अब यह आमदनी लगभग ठप है.

चार- मसूरी की माल रोड पर रिक्शा चलाने वाले 45साल के जयलाल सवारी के इंतजार में टकटकी लगाए बैठे हैं. यहां कुल 125 रिक्शा चालक हैं. यात्रियों की बेहद कम आवाजाही से इस बार बमुश्किल तीन दिन बाद उनका नंबर लग पा रहा है. पिछले साल इन दिनों एक ही दिन में वे कई-कई चक्कर लगा लेते थे और शाम तक पांच से छह सौ रुपये तक की कमाई कर लेते थे. लेकिन इस बार स्थिति इतनी खराब है कि हफ्ते भर के बाद तीन-चार सौ रुपये से अधिक आमदनी नहीं हो पा रही है.

जून के दूसरे पखवाड़े उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने सैकड़ों मकानों,  दुकानों, सड़कों और पुलों को बहा कर पहाड़ का भूगोल ही नहीं बदला बल्कि यहां रहने वाले तमाम लोगों के वर्तमान को बदहाली और भविष्य को अनिश्चितता के भंवर में धकेल दिया है. वर्षों से राज्य के लोगों के लिए रोजगार का सबसे बड़ा जरिया रही चार धाम यात्रा आपदा के बाद से पूरी तरह बंद है. इसके चलते बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और यमुनोत्री जाने वाले राजमार्गों पर बसे उन कस्बों की जैसे रौनक ही खत्म हो गई है जो साल के इस समय यात्रियों और पर्यटकों से गुलजार रहते थे. सड़क किनारे बने ढाबों में खाना बनाने, गाड़ियों में पंक्चर लगाने और पालकियों और खच्चरों पर यात्रियों को ढोने वाले हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं. आपदा से बने डर के माहौल ने राज्य के बाकी हिस्सों को भी नहीं छोड़ा जबकि वहां तबाही का कोई असर नहीं था. जानकार बताते हैं कि आपदा के बाद से अब तक मसूरी, नैनीताल, रानीखेत, हरिद्वार और ऋषिकेश जैसे पर्यटन एबं तीर्थ स्थलों में सैलानियों की संख्या पिछले सीजन के मुकाबले 70 फीसदी तक गिर चुकी है. नतीजतन होटल व्यवसाय से लेकर टूर ब ट्रैवल समेत दूसरे कारोबारों में भी जबरदस्त गिरावट आई है.

पिछले बारह साल में पहली बार ऐसा हुआ कि पहाड़ों की रानी कहलाने वाली मसूरी और सरोवर नगरी के नाम से प्रसिद्ध  नैनीताल के कुछ  होटलों में सोलह जून के बाद तीन-चार दिन तक एक भी पर्यटक नहीं ठहरा. इसका सीधा फर्क आमदनी पर पड़ा जिससे छोटे होटलों को अपने यहां काम करने वालों की संख्या में कटौती करनी पड़ी. उत्तराखंड होटल ऐसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष एसके कोचर  कहते हैं, ‘बड़े होटल तो फिर भी कुछ वक्त तक अपने कर्मचारियों को वेतन दे सकते हैं, लेकिन छोटे होटलों की आमदनी हैंड टू माउथ जैसी होती है लिहाजा कटौती करने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता है.’ अलग-अलग आंकड़े बताते हैं कि राज्य के मसूरी, नैनीताल, रामनगर जैसे शहरों के अलावा बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे धार्मिक स्थलों और इन तक पहुंचने वाले हाइवे पर बने छोटे-बड़े होटलों की कुल संख्या तकरीबन पांच हजार  है. इनके अलावा 20 हजार ढाबे और अन्य दुकानें भी इन जगहों पर हैं. इस आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा होगा. ऋषिकेश में होटल व्यवसायी बचन पोखरियाल कहते हैं, ’आपदा के बाद ऋषिकेश-हरिद्वार आने वाले पर्यटकों की संख्या आधी से भी कम रह गई है. अधिकांश होटलों की बुकिंग रद्द हो चुकी है.’ उनके मुताबिक अकेले ऋषिकेश में ही टूर ब ट्रैवल से लेकर गाइड का काम करने वाले लोगों की संख्या सैकड़ों में है ज आपदा के बाद पूरी तरह बेकार हो चुके हैं. चारधाम यात्रा मार्गों पर बस सेवा देने वाली कंपनी गढ़वाल मोटर्स आनर्स यूनियन का भी यही हाल है. कंपनी में पंजीकृत लगभग साढ़े छह सौ बसों में से फिलहाल पचास-साठ ही चल रही हैं. अब तक मुनाफे में चल रही कंपनी घाटे में आने के कगार पर पहुंच चुकी है. दूसरे क्षेत्रों के लोगों का भी यही दुखड़ा है. खुद सरकार भी पर्यटन उद्योग को हुए भारी-भरकम नुकसान की बात स्वीकार कर चुकी है. अब तक हुए नुकसान का साफ-साफ आंकड़ा अब तक उसके पास भी नहीं है, लेकिन इतना तय है कि इसकी भरपाई होने में लंबा वक्त लगेगा. हालांकि सरकार 30 सितंबर तक यात्रा मार्गों को खोल देने का दावा करते हुए केदारनाथ को छोड़ कर बाकी तीनों तीर्थ स्थलों की यात्रा जल्द शुरू करने की बात कह चुकी है, मगर तब तक यात्रा पर आधारित कारोबार की संभावनाएं कितनी बची रह पाएंगी, कहना मुश्किल है.

उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद अलग-अलग सरकारों ने राजस्व जुटाने के लिए यहां तीन प्रमुख क्षेत्रों उद्योग, पनबिजली परियोजना और पर्यटन इंडस्ट्री पर विशेष ध्यान देने की बात कही थी. लेकिन 15-16 जून की आपदा इन तीनों क्षेत्रों पर बिजली की तरह गिरी है. भारी  बारिश से प्रदेश की दर्जन भर पनबिजली परियोजनाओं को बड़ा नुकसान होने से बिजली का उत्पादन न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया. बिजली संकट गहराने से मैदानी इलाकों में लगे उद्योगों के उत्पादन में भी गिरावट आई. इस तरह देखें तो आमदनी के दो प्रमुख जरिये सीधे-सीधे आपदा की चपेट में आ गए.

लेकिन हजारों जिंदगियां लीलने वाली इस आपदा ने सबसे बड़ी चोट राज्य के पर्यटन और तीर्थाटन को पहुंचाई है.  उत्तराखंड इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के मुताबिक आपदा के बाद प्रदेश में पंजीकृत लगभग 19 हजार छोटे उद्यमों मंे काम करने वाले 40 हजार से ज्यादा लोग बेरोजगार हो चुके हैं. इनमें वे असंगठित कामगार शामिल नहीं हैं जो पीपलकोटी, तिलवाड़ा, जोशीमठ और गौरीकुंड जैसी जगहों पर बने होटलों और ढाबों में नौकरी करने, चाय की दुकान चलाने, फूल मालाएं बनाने, गाड़ियों में हवा भरने और भुट्टा बेचने जैसे छुटपुट काम के जरिए गुजारा करते हैं. इन लोगों को भी जोड़ देने के बाद प्रभावितों का आंकड़ा एक लाख से ऊपर पहुंच जाता है.

तहलका से बात करते हुए मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं, ‘बेरोजगार हो चुके इन लोगों को सरकार बेरोजगारी भत्ते से इतर हर माह पांच सौ से लेकर एक हजार रुपये की मदद देगी.’ लेकिन ऊंट के मुंह में जीरे जैसी यह मदद भी सही हाथों तक कैसे पहुंचेगी, यह एक अहम सवाल है. दरअसल सरकार ने आपदा प्रभावितों के चिह्नीकरण की प्रक्रिया में इन लोगों के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं बनाया है. वह प्रभावितों के हितों को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध होने की बात भले ही कहती रहे, लेकिन चार धाम यात्रा पर आने वाले यात्रियों की तरह इन कामगारों का भी उसके पास कोई व्यवस्थित रिकॉर्ड नहीं है.

जानकारों के मुताबिक बेहतर तो यह होता कि इन लोगों के लिए रोजगार के नए विकल्प तलाशने की दिशा में प्रयास होते. लेकिन राहत और पुनर्वास कार्यों को लेकर पहले दिन से ही किरकिरी झेल रही सरकार ने पूरा ध्यान आपदाग्रस्त इलाकों में ही लगा दिया और इस तरह एक बड़ा तबका राहत के एजेंडे से ही बाहर हो गया. विपक्ष ने भी इस मुद्दे पर सरकार का ध्यान खींचने की कोई प्रभावी कोशिश नहीं की, जबकि नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट और पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी समेत भाजपा के कई नेता इस दौरान आपदाग्रस्त इलाकों का दौरा भी कर चुके हैं. वैसे आपदाग्रस्त इलाकों में राहत अभियान पर पूरा ध्यान लगाने का सरकार क दावा भी खोखला नजर आता है. खुद मुख्यमंत्री बहुगुणा का चमोली जिले के सुदूरवर्ती विकासखंड नारायणबगड़ के आपदा प्रभाविक इलाकों का दौरा पांच बार रद्द हो चुका है. दूसरे प्रभावित इलाकों में भी सरकारी राहत अभियान की असफलताएं आए दिन सामने आ रही हैं और यही वजह है कि सामाजिक मंचों से लेकर सोशल मीडिया तक राहत कार्यों को लेकर सरकार की खूब खिंचाई हो रही है.

यह पूरी स्थिति एक दूसरे पहलू की तरफ भी ध्यान खींचती है. राज्य बनने के 13 साल बाद भी इतनी बड़ी आबादी का आमदनी के लिए चार धाम यात्रा पर ही निर्भर रहना बताता है कि पर्यटन की असीम संभावनाओं वाले प्रदेश में रोजगार सृजन के लिए सरकारों ने किस तरह के प्रयास किए हैं. सरकारों द्वारा वैकल्पिक रोजगार की दिशा में रत्ती भर भी नहीं सोच पाने की अदूरदर्शिता का दंश झेलने को मजबूर प्रदेश के लगभग हर हिस्से में रहने वाले बेरोजगार चार-धाम यात्रा के दौरान यात्रा मार्गों से जुड़े छोटे-बड़े रोजगार से ही अपनी आमदनी चलाते रहे हैं. राज्य के पर्यटन उद्योग की रीढ़ मानी जाने वाली इस यात्रा के दौरान होने वाले कारोबार ने राज्य निर्माण के बाद तेजी से तरक्की भी की है. जनगणना विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के दौरान राज्य में 31.8 फीसदी सालाना की दर से नए भवनों का निर्माण हुआ. इन भवनों में 70 फीसदी होटल थे. हालिया आपदा के दौरान जो इमारतें ध्वस्त या क्षतिग्रस्त हुईं उनमें एक बड़ी संख्या होटलों और ढाबों की ही थी. ऐसे भवनों के मालिकों के लिए पचास हजार से लेकर एक लाख तक का मुआवजा घोषित करते हुए सरकार ने इन्हें कुछ राहत जरूर दी है, लेकिन माना जा रहा है कि जब तक चार धाम यात्रा बहाल नहीं होती या फिर आमदनी के दूसरे विकल्प नहीं ढूंढे जाते तब तक लोगों की असल मुश्किलें दूर नहीं होने वाली हैं.

परंपरागत ढर्रे पर चल रहे पर्यटन व्यवसाय से इतर रोजगार के दूसरे विकल्प ढूंढ़ने में राज्य सरकारें तेरह साल बाद भी नाकाम क्यों रही हैं, यह सवाल इसलिए भी अहम है कि सरकारें उत्तराखंड को हमेशा से पर्यटन प्रदेश बताती रही हैं. राज्य बनने के बाद से लगभग हर साल प्रदेश के पर्यटन मंत्री और अधिकारी पर्यटन विकास के गुर सीखने के नाम पर कई विदेश यात्राएं कर चुके हैं. बर्लिन में प्रतिवर्ष होने वाले टूरिज्म मार्ट में हिस्सा लेने के नाम पर तो प्रदेश के नेता और नौकरशाह अब तक लाखों रुपये भी फूंक चुके हैं. लेकिन जनता की गाढ़ी कमाई खर्च करके हासिल किए गए ऐसे तजुर्बों से राज्य को क्या फायदा हुआ यह कोई नहीं जानता. पर्यटन रोजगार को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वरोजगार योजना को भले ही सरकारों की तरफ से एक कारगर प्रयास बताया जाता रहा है, लेकिन इस योजना के तहत लोन लेकर होटल, ढाबे खोलने और गाड़ियां खरीदने वाले अधिकांश लोग यात्रा ठप होने के बाद किस्त चुकाने तक के मोहताज रह गए हैं. पर्यटन से जुड़े सवालों को लेकर तहलका ने जब वर्तमान पर्यटन मंत्री अमृता रावत से संपर्क करने की कोशिश की तो बताया गया कि वे ‘आउट ऑफ स्टेशन’ हैं.

इस बार की आपदा ने तो प्रदेश के प्रति पर्यटकों के विमोह के लिए सरकारी उदासीनता का बड़ा प्रमाण सामने रखा है. लंबे समय तक देश भर का मीडिया समूचे उत्तराखंड में भयंकर तबाही की खबरें दे रहा था, लेकिन इस दौरान कई दिनों तक सरकार की तरफ से एक भी बयान ऐसा नहीं आया जो यह बताता कि मसूरी, नैनीताल जैसे हिल स्टेशन पूरी तरह सुरक्षित हैं. जहां एक तरफ मुख्यमंत्री कहते रहे कि आपदा से सेना ही निपट सकती है वहीं कुछ जनप्रतिनिधि टीवी चैलनों पर दहाड़ें मार कर रोते दिखे और आपदा को नियंत्रण से बाहर बताते रहे. ऐसे में पर्यटकों का प्रदेश की तरफ रुख न करना कहीं से भी अप्रत्याशित नजर नहीं आता. हालांकि देर से जागी सरकार ने कुछ दिन पहले विज्ञापन जारी करके पर्यटकों को लुभाने की कोशिश जरूर की है जिसके परिणाम अब थोड़ा-बहुत दिखने भी लगे हैं. मसूरी और नैनीताल में हफ्ते भर से पर्यटकों की आवाजाही में कुछ बढ़ोतरी दर्ज की गई है.

आपदा के बाद सरकार के इस रवैये को लेकर नाराजगी भी अब खुल कर सामने आने लगी है. मसूरी स्थित होटल पैराडाइस कौंटिनेंटल के मैनेजर सूरज थपलियाल कहते हैं, ‘मीडिया और सरकार ने इस आपदा को इस तरह से दिखाया कि पर्यटकों को केदारनाथ और मसूरी के हालात एक जैसे लगे.’ वे शिकायती लहजे में कहते हैं, ’क्या सरकार के नुमाइंदों को आपदा के बाद मसूरी नैनीताल जैसे शहरों के सुरक्षित होने की बात नहीं कहनी चाहिए थी ?’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘सरकार अब भले ही कितने भी विज्ञापन जारी कर पर्यटकों को मसूरी, नैनीताल बुला ले लेकिन जो नुकसान हो चुका है उसकी पूर्ति नहीं हो सकती.’ एक अनुमान के मुताबिक  मसूरी के पर्यटन व्यवसाय को अब तक लगभग 50 करोड़ रु की चपत लग चुकी है. उत्तराखंड होटल एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष एसके कोचर भी थपलियाल की बातों से  सहमति जताते हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य गठन के बाद पर्यटन और होटल इंडस्ट्री ने तेजी से तरक्की की और इसकी विकास दर 30 फीसदी सालाना से भी ज्यादा थी. लेकिन इस बार आपदा की भयावहता व्यापक तौर पर इस कदर प्रचारित हुई कि लोगों ने करोड़ों रुपये की बुकिंग एक ही झटके में कैंसिल कर दी. इससे कारोबार में अब तक 80 से 90 फीसदी की गिरावट आ चुकी है.’

कोचर की बातों में एकबारगी दम भी नजर आता है क्योंकि आपदा के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने मीडिया के जरिए लोगों से उत्तराखंड का रुख न करने की अपील की थी. हालांकि जब तहलका ने उनसे इस अपील का कारण पूछा तो उनका कहना था, ‘उस वक्त सरकार का पूरा ध्यान आपदाग्रस्त इलाकों में राहत पहुंचाने पर था. हम कोई जोखिम नहीं लेना चाहते थे.’

दो महीने बाद भी उत्तराखंड में हाल यह है कि इस असाधारण आपदा के वास्तविक कारणों तक की पड़ताल नहीं हो सकी है. मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा कहते हैं कि ऐसा अप्रत्याशित बारिश के चलते हुआ जो बहुत आम-सी बात है. उधर राहत और पुनर्वास के काम पर भी आरोप लग रहे हैं कि वह ढंग से नहीं चल रहा है. चार धाम यात्रा और आमदनी के दूसरे विकल्पों को लेकर सरकार के रवैये का जिक्र पहले ही किया जा चुका है. ऐसे में सबसे तगड़ी चोट प्रदेश की रीढ़ मानी जाने वाली जिस पर्यटन इंडस्ट्री के हिस्से में आई है उस पर सरकार पर्याप्त ध्यान दे पा रही होगी, इस पर यकीन करना मुश्किल नजर आता है.