राहुल गांधी : युवा तुर्क का राजनीतिक बयान

एक ऐसी पार्टी जिसमें करीब चार दशक से एक ही परिवार का आधिपत्य हो वहां नताओं का सार्वजनिक रूप से रोना-बिलखना अपने आप ही एक संशय को जन्म देता है. शीला रोईं, जनार्दन रोए और गहलोत रोए. लगभग पूरा कांग्रेस परिवार ही गमगीन था. कहना होगा कि यहां पार्टी के नवनियुक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपना लक्ष्य पूरा करने में पूरी तरह से सफल रहे. उन्होंने अपने पार्टीजनों और देशवासियों को बिल्कुल सही समय पर अपनी दादी और पिताजी के बलिदान की याद दिलाई. इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि देश के लिए गांधी परिवार का योगदान बहुत बड़ा है.

लेकिन यहां आकर राहुल गांधी के साथ हमारी सहमति समाप्त हो जाती है. इस देश के नेता भावुकता का प्रदर्शन करने के लिए नहीं जाने जाते. ऐसे में ज्यादातर कांग्रेसी नेताओं के रोने-बिलखने का एक संदेश साफ है कि वे इस मौके का इस्तेमाल परिवार के प्रति अपनी श्रद्धा साबित करने के लिए करने से नहीं चूके. यह एक अलग किस्म का अवसरवाद है. 

खैर, हम राहुल गांधी के भाषण के पहले हिस्से की बात करते हैं जिसे उनका राजनीतिक बयान कहा जा सकता है. राहुल गांधी को भले ही आधिकारिक रूप से नंबर दो अब जाकर कांग्रेस ने घोषित किया हो लेकिन इस बात में किसको संदेह था कि वे पार्टी में नंबर दो नहीं है? उन्होंने अपनी पार्टी की संस्कृति को बदलने की बात कही, अवसरवादी राजनीति पर लगाम लगाने की भी बात कही है. इन घोषणाओं के लिहाज से राहुल एक नई कांग्रेस की उम्मीद जगाते हैं. लेकिन यह बदलाव आमूल परिवर्तन की तरह नहीं दिखने वाला. उन्हें पता है कि यह आसान काम नहीं है.

इसीलिए उन्होंने बदलवा और युवाओं को लाने के साथ एक वाक्य सावधानी से जोड़ दिया था- ‘यह सब धीरे-धीरे होगा.’ ओल्ड गार्ड के अंदर किसी तरह की बेचैनी न पनपने पाए इसका भी उन्होंने बहुत सावधानी से ख्याल रखा. जब-जब उन्होंने कहा कि युवाओं को आगे लाना है तब-तब उन्होंने यह भी कहा कि हमें अपने बुजुर्गों के अनुभव की जरूरत हर दकम पर पड़ेगी. उन्हें अंदाजा है कि आमूल बदलाव का कोई संदेश पार्टी के भीतर ही उठापटक का सबब बन सकता है. यहां राहुल गांधी ने काफी समझदारी दिखाई.

पर परिवर्तन के बयान पर वे खुद को बहुत आगे ले जाते नहीं दिखे. बदलाव की उनकी घोषणा उनकी तमाम पिछली घोषणाओं के जैसी ही है. उसमें किसी स्पष्ट योजना और कार्यक्रम के दर्शन नहीं होते. किस तरह से वे पार्टी की अंदरूनी संस्कृति को बदलेंगे, किस तरह से देश में समतामूलक माहौल बनाएंगे इसके लिए उन्होंने कोई विस्तृत और स्पष्ट रोडमैप नही दिया है उन्होंने. उत्तर प्रदेश से लेकर खैरलांजी तक के दलित परिवारों के घरों में रात बिताना और उनका जीवन बदलने का सपना दिखाकर वापस दिल्ली लौट -जाने वाली छवि अभी भी कायम है. अमेठी, बस्ती से लेकर भट्टा पारसौल तक के जितने दलित परिवारो के घर में उन्होंने रात्रि विश्राम किया है उनमें से कोई भी राहुल गांधी से संतुष्ट नहीं है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पत्ता साफ की एक वजह राहुल के वे खोखले वादे भी थे जिनसे वहां के लोगों में एक गुस्सा था. यह खोखलापन उनके राजनीतिक बयान में भी दिखा. यह कांग्रेस को किसी निश्चित दिशा में नहीं ले जा रहा है.   

राजनीति वातावरण के नजरिए से देश इस समय एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर है. देश की दो बड़ी पार्टियों में नेतृत्व का फेरबदल चल रहा है. कांग्रेस में जहां यह परिवारवाद की अगली कड़ी के रूप में सामने आया है वहीं भाजपा में यह संघ के आधिपत्य और पार्टी के एक धड़े के बीच मची आपसी खीचतान को सामने लेकर आया है. इस लिहाज से राहुल गांधी के लिए स्थितियां मुफीद है, उनके सामने कोई दिग्गज, घाघ जननेता नहीं खड़ा है, एक बिखरी हुई पार्टी है जिसके तमाम धड़े आपसी सिरफुटौव्वल से बेजार हैं. पर हां जनता खोखले वादे और दिशाहीन नेताओं को ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करती.